कमल किशोर गोयनका
गांधी का जीवन और चिंतन स्वराज्य, धर्म, अहिंसा तथा सत्य के लिए समर्पित था, लेकिन राष्ट्रभाषा हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के लिए भी प्रेम कम न था। उन्होंने एक बार कहा था कि मैं अंग्रेजी से प्रेम करता हूं, परंतु हिन्दी से मेरा विशेष प्रेम है। यह प्रेम सभी भारतीय भाषाओं के लिए था और उन्होंने देहावसान से पहले कहा था कि दुनिया से कह दो, ‘गांधी को अंग्रेजी नहीं आती।’ गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं- तमिल आदि का उपयोग किया था और ‘हिन्द स्वराज’ (1909) में वे पश्चिमी संस्कृति तथा उपनिवेशवाद के विरुद्ध अपनी संस्कृति, स्वराज्य तथा भाषा के उपासक के रूप में सामने आये। गांधी बैरिस्टर तो थे ही, लेिकन उससे भी अधिक वे भारत-प्रेमी, सत्याग्रही, लोक नायक, लेखक, पत्रकार तथा भाषा-चिंतक भी थे। उन्होंने जिस क्षेत्र में भी काम किया, देश और मानव-हित सर्वोपरि था। भारत के संदर्भ में भाषा का प्रश्न भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि बहुभाषी देश में अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व, संकुचित प्रांतीयता, स्वार्थी शिक्षित वर्ग तथा व्यापक अशिक्षा के कारण इतना उलझ गया कि वे आजादी मिलने तक उस समस्या से जूझते रहे। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से भारत आने से लेकर अपने बलिदान तक के लगभग चालीस वर्षों में सैकड़ों बार अपने भाषणों, पत्रों तथा लेखों में देश की भाषा- समस्या के हल के लिए एक राष्ट्रीय भाषा-नीति की रचना का प्रयत्न किया और उसे स्वराज्य से जोड़कर देखा। गांधी ने बार-बार कहा कि यदि स्वराज्य देश के करोड़ों भूखे, अनपढ़ तथा दलितों के लिए होना है तो उनकी जनभाषा हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना होगा। उन्होंने देखा कि अंग्रेजी पढ़ा-लिखा वर्ग विदेशी भाषा-संस्कृति का गुलाम है और वे ‘जनता के दुश्मन’ तथा ‘मातृ द्रोही’ बन गये हैं।
गांधी ने अपनी भाषा-नीति में अंग्रेजी भाषा को दो रूपों में देखा- एक प्रशंसात्मक तथा दूसरे आलोचनात्मक एवं बहिष्कारमूलक। गांधी की आरंभिक शिक्षा गुजराती, संस्कृत तथा अंग्रेजी में हुई थी और जब वे बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गये तो वे न अंग्रेजी ठीक प्रकार से बोल सकते थे और न अंग्रेजों की अंग्रेजी समझ ही सकते थे, लेकिन वे अंग्रेजी के प्रशंसक थे, क्योंकि अंग्रेजी कूटनीति, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, राज्याधिकारियों से संपर्क एवं अर्थ-प्राप्ति आदि की भाषा थी, परंतु उनका दृढ़ मत था कि हमें अंग्रेजी भाषा एक राष्ट्रवादी भारतीय की तरह पढ़नी-लिखनी तथा प्रयोग में लानी चाहिए। गांधी ने जीवन-भर भाषा के प्रश्न को राष्ट्रवादी भारतीय की दृष्टि से देखा और ‘हिंद स्वराज’ में लिखा कि मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा के द्वारा हमारी गुलामी की बुनियाद डाली और अंग्रेजी सत्ता के लिए कारकून पैदा किये, पश्चिमी सभ्यता के प्रचारक बनाये, हमें अंधविश्वासी बनाया तथा हिंदू धर्म एवं प्राचीन साहित्य का तिरस्कार किया। इससे गांधी के अनुसार, हमारी भाषिक गुलामी हुई और सांस्कृतिक अध:पतन हुआ और अंग्रेजी शिक्षा ने हमें नपुंसक, प्रज्ञाहीन तथा कायर बना दिया और हम अपने देश में ही विदेशी हो गये, हमारा मौलिक चिंतन समाप्त हो गया और अंग्रेजी शिक्षित युवक परिवार एवं समाज से कटकर अहंकारी हो गये। गांधी की दृष्टि में अंग्रेजी का प्रभुत्व अंग्रेजों की सांस्कृतिक विजय और भारत की संस्कृति की पराजय का प्रतीक है। इसी कारण गांधी राजभाषा, मातृभाषा, राष्ट्रभाषा, शिक्षा, दैनिक एवं पारिवारिक व्यवहार में अंग्रेजी को बिल्कुल बरदाश्त करने को तैयार नहीं थे। अत: गांधी स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी का बहिष्कार करके आम जनता की भाषा हिन्दी को राजभाषा, राष्ट्रभाषा तथा विभिन्न प्रांतों से संपर्क भाषा बनाना चाहते थे।
गांधी की भाषा-नीति का प्रमुख आधार स्वतंत्रता, राष्ट्रीय एकता, सह-अस्तित्व तथा स्वदेशी भाषाओं का प्रचार-प्रसार था। उनके लिए भाषा ‘माता’ के समान थी और वे अपनी मातृभाषा की कमियों के बावजूद उसी तरह चिपटे रहना चाहते थे जैसे एक बच्चा अपनी मां की छाती से चिपटा रहता है जो उसे जीवनप्रद दूध देती है। इसी से ‘हिंद स्वराज’ में उन्होंने मातृभाषा में शिक्षा का समर्थन किया। मातृभाषा तृणवत हो तब भी वह उपयोगी है। गांधी कहते थे कि जो मातृभाषा से प्रेम करता है वह राष्ट्रभाषा के प्रति भी वैसा ही भाव रखता है और फिर वे हिंदुस्तान में ‘एक देश एक भाषा’ की चर्चा करते हैं। वे कहते हैं कि यदि हिंदुस्तान एक राष्ट्र है तो उसकी एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। हिंदुस्तान की एक राष्ट्रभाषा की वे कसौटी तय करते हैं- सर्वसाधारण समझता हो, अंतर्प्रांतीय व्यवहार में आ सके, भारतीयता का भाव उत्पन्न करे, प्रांतीय भाषाओं के साथ स्पर्धा न करे, राष्ट्र को एकताबद्ध करे तथा हिंदू-मुस्लिम एवं हिंदी-उर्दू में एकता कर सके। गांधी दक्षिण अफ्रीका से आने के बाद यह कहते रहे कि वे हिंदी को ही राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयत्न करते रहेंगे, लेिकन वे राष्ट्रभाषा ‘हिंदी’ के नाम में परिवर्तन करते रहे। वे कहते थे कि ‘हिंदी’ ही मूल शब्द है और उसमें उर्दू शामिल है और दृढ़ता से कहते थे कि ‘हिंदी’ नाम कभी नहीं बदला जायेगा, परंतु कुछ कारण अवश्य रहे होंगे जिससे गांधी हिंदी के लिए ‘हिंदी या हिंदुस्तानी’, ‘हिंदी-हिंदुस्तानी’, ‘हिंदुस्तानी’, हिंदी और उर्दू’, ‘हिंदी या हिंदुस्तानी या उर्दू’ आदि नये-नये नाम देते रहे। गांधी के मन में हिंदू-मुस्लिम तथा हिंदी-उर्दू की एकता की प्रबल इच्छा थी, क्योंकि वे स्वराज्य के लिए उसे अनिवार्य मानते थे। गांधी की इस भाषा-नीति के कारण हिंदू और मुसलमानों में कुछ ने उनका विरोध किया, पुरुषोत्तम दास टंडन ने ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ से इस्तीफा दे दिया और गांधी ने हिंदी प्रचार-सभा बनाई। गांधी ने 24 जुलाई, 1947 को प्रार्थना सभा में कहा था, ‘आज तो मैं दोनों भाषाओं का शत्रु बना हुआ हूं, मगर दोनों का खैरख्वाह था तो वह गांधी ही था।’
गांधी ने एक भाषा के साथ एक लिपि के प्रश्न को उठाया। उन्होंने ‘एक लिपि परिषद्’ की स्थापना की और काका कालेलकर को इसका संयोजक बनाया। गांधी मानते थे कि देवनागरी लिपि सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है और वह भारतीय भाषाओं की सामान्य लिपि हो सकती है। जो भारतीय भाषाएं संस्कृत से निकली हैं, वे तो देवनागरी लिपि सरलता से अपना सकती हैं। गांधी देवनागरी तथा फारसी लिपि में देवनागरी लिपि को ही श्रेष्ठ मानते थे, लेकिन हिंदी और उर्दू के लिए वे देवनागरी तथा फारसी दोनों लिपियों को अनिवार्य मानते थे। वे स्पष्ट कहते हैं कि उर्दू लिपि सीखना राष्ट्रीय कार्य है और जो इसे पसंद नहीं करता वह स्वराज्य को भी पसंद नहीं करता। इसके बावजूद वे कहते हैं कि देवनागरी लिपि सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि है, वह निर्दोष है, परिपूर्ण है तथा राष्ट्रीय एकता के लिए जरूरी है। इन दो लिपियों में जो ज्यादा लिखी जायेगी, जिसका ज्यादा जोर होगा तथा जो ज्यादा सरल होगी, वही राष्ट्रीय लिपि होगी।
इस प्रकार गांधी ने बहुभाषी एवं बहुलिपि देश के लिए भाषा-लिपि का एक भारतीय मॉडल दिया, अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व तोड़ा, हिंदी को राष्ट्रभाषा एवं संपर्क भाषा बनाने का प्रयत्न किया तथा एक भाषा एक लिपि के लिए राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न की। गांधी भाषा-चिंतक थे, लेकिन भाषाविद् नहीं थे और हिंदी भाषा उनके लिए स्वराज्य तथा एकता का आधार थी। उनके जीवन काल में ही उनकी भाषा नीति की आलोचना शुरू हो गई थी और स्वतंत्रता के बाद भी एकमत नहीं हो पाया और अंग्रेजी की सत्ता और मजबूत हो गयी, हिंदी राष्ट्रभाषा अपने अधिकारों से वंचित रखी गई और प्रांतीय भाषाएं विरोध में खड़ी हो गईं। इधर स्थिति कुछ बदल रही है और हिंदी भाषा की स्वीकृति बढ़ती जा रही है, परंतु गांधी का ‘एक भाषा एक लिपि’ का स्वप्न पूर्ण होने की प्रतीक्षा कर रहा है।
लेखक जाने-माने साहित्यकार हैं।