देश इस वक्त नवरात्र की पावन वेला में तन-मन से साधनारत है, आराधना देवी की, जो शक्ति की प्रतीक हैं। उनके दृश्य-प्रतीक नारी की शक्ति और क्षमताओं को दर्शाते हैं। बहुत संभव है हमारे पूर्वजों ने इस पर्व की शुरुआत समाज में नारी की गरिमा व सम्मान को व्यवहार में लाने के लिये की। मसलन, यह बताने की कोशिश कि किसी समाज की सभ्यता के तौर पर पहचान तभी तक है जब तक उस समाज में नारी को पूरा सम्मान मिलता है। स्त्री को न केवल समानता का दर्जा व्यावहारिक जीवन में देना जरूरी है बल्कि उसकी अस्मिता की रक्षा भी सुनिश्चित करना है। उसका जीवन किसी भी तरह के भेदभाव से मुक्त रखना होगा। हमारे समाज ने शेर पर विराजमान देवी को नारी शक्ति के प्रतीक के रूप में पूजा है। जो इंगित करता है कि वह वक्त पड़ने पर हिंसक शेर को भी वश में करना जानती है। उसके अस्त्र-शस्त्र उसकी क्षमताओं के पर्याय हैं, यह बताने के लिये कि वह अपने साथ होने वाले अन्याय का जवाब देने में सक्षम है। संदेश यह कि वह कमजोर नहीं है। साल में दो बार आने वाले शारदीय व वासंतिक नवरात्र हमें नारी शक्ति, अस्मिता व गरिमा का अहसास कराने के लिये हैं। लेकिन विडंबना है कि हमने इन प्रतीकों व संकेतों को महज कर्मकांड में तब्दील कर दिया है।
हाल के दिनों में हम रोज अखबारों पर नजर डालें तो आये दिन महिलाएं अपराधियों की क्रूरता का शिकार होती नजर आती हैं। ऐसा लगता है कि देश में यौन हिंसा का विस्फोट हो रहा है। कष्टदायक है कि मोबाइल पर इंटरनेट की पहुंच के बाद उसमें अश्लील सामग्री का सैलाब-सा नजर आ रहा है। ये पाश्चात्य खुलापन व अश्लीलता न हमारे संस्कारों में है और न ही हमारे वातावरण व जलवायु इसके अनुकूल हैं। देश में कई बड़े यौन अपराधों में यह डराने वाला सच सामने आया है कि अपराधियों ने मोबाइल पर अश्लील सामग्री देखने के बाद यौन अपराधों को अंजाम दिया। ऐसे वक्त में, जब हमारे शिक्षा संस्थान गुरुकुलों की तरह छात्रों के बहुमुखी विकास और ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाने में पिछड़ रहे हैं, तो ऐसे में माता-पिता को यह जिम्मेदारी निभानी होगी कि युवा इस भटकाव से बचें। कष्टदायक यह है कि यौन कुंठाओं के विस्फोट में असहाय महिलाएं व बच्चियां हिंसा का शिकार बन रही हैं। हाल ही में बरेली की वह घटना परेशान करती है जिसमें प्रेम निवेदन अस्वीकार करने पर एक लड़की को एक बिगड़ैल लड़के ने चलती ट्रेन के आगे धकेल दिया, जिसमें उसके हाथ-पैर कट गये। भारतीय संस्कृति पश्चिमी जीवनदर्शन की तर्ज पर महिला को भोग्य नहीं मानती। महिला हमारी संस्कृति सभ्यता में ऊंचा स्थान रखती है।
दरअसल, नवरात्र का यह पर्व कन्याओं के पूजन तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। युवाओं में भी ऐसे संस्कार पनपने चाहिए कि समाज में बेटियों का सम्मान केवल नवरात्र में ही नहीं, सालभर करना है। जिस दौर में यौन कुंठाएं लगातार अपराध की वजह बन रही हों, वहां इसके खिलाफ देशभर में मुहिम चलाने की जरूरत है। इसमें परिजनों, शिक्षकों व समाजसेवी संस्थाओं को रचनात्मक पहल करनी होगी।
सही मायनों में देश में लैंगिक भेदभाव दूर करने का सबसे बड़ा कदम हमारे घरों से उठाया जाना चाहिए। हमें बेटियों को न केवल सक्षम व सबल बनाना है बल्कि उन्हें किसी भी तरह के लैंगिक भेदभाव से आजाद भी करना है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि हम समाज में बेटियों को उनका असली हक नहीं दे पाये हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब संसद व विधानसभाओं में महिलाओं को तैंतीस फीसदी आरक्षण देने का कानून पास किया गया। कहना कठिन है कि इसे हकीकत बनाने में किंतु-परंतुओं से कितने समय बाद छुटकारा मिलेगा। अभी तो जनगणना व परिसीमन का पेच बाकी है। फिर भी इसे अच्छी शुरुआत तो कह ही सकते हैं। मगर ध्यान रहे कि यह आधी दुनिया का न पूरा हक है, न ही पूरा सच। यह सिर्फ तैंतीस फीसदी हक ही है। कोशिश यह भी होनी चाहिए कि महिलाओं को काम के बदले पुरुषों के बराबर मेहनताना मिले। वैश्विक सर्वेक्षण बता रहे हैं कि दुनिया में महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक हासिल होने में अभी सौ साल से अधिक समय लगेगा। फिर भी, इस तरफ ईमानदारी से कोशिश तो होनी ही चाहिए। हुक्मरानों से पूछा जाना चाहिए कि देश के कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी 37 फीसदी ही क्यों है? महिला-पुरुष आय में समानता के मुद्दे पर हमारी पहचान दुनिया में 141वें स्थान पर क्यों है? लिंगानुपात में हम दुनिया में 140वें स्थान पर क्यों हैं? महिलाओं में कुपोषण व स्वास्थ्य के मामले में हम 137वें स्थान पर क्यों हैं? आज उद्योगों में महिला नेतृत्व के मामले में हम इतने पीछे क्यों हैं? दरअसल, हम नारी को पूजने की बात तो करते हैं, मगर समाज में उसे बराबरी का हक देने में पीछे रह जाते हैं। वास्तव में उसके सपनों को हकीकत में बदलने की जरूरत है।
पिछले दिनों ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का एक चित्र मीडिया में शोभा बढ़ाता नजर आया, जिसमें मुख्यमंत्री स्वयं सहायता समूहों से जुड़ी महिलाओं को स्कूटर प्रदान कर रहे थे। इसमें दो राय नहीं कि इस तरह के प्रयोग महिलाओं को सशक्त बनाने के लिये बेहद उपयोगी हैं। पूरे देश के राजनेताओं को इस मुहिम से सबक लेना चाहिए। चुनाव में रेवड़ियां बांटने के बजाय ऐसे ही महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को मदद की जरूरत है। एक तो वे स्वावलंबी बनेंगी, अन्य महिलाओं को प्रेरित करेंगी, दूसरे देश के आर्थिक विकास में सहयोग करेंगी। लिज्जत पापड़ जैसे अभियानों की सफलताओं के उदाहरण हमारे सामने हैं। महिलाएं ईमानदारी व पारदर्शिता के साथ छोटे उद्योगों को तो समृद्ध करती ही हैं, साथ ही लुघ उद्योगों की एक नई शृंखला को भी जन्म देती हैं। उनकी आय बढ़ने से जहां उनकी परिवार में आवाज बुलंद होगी, वहीं वे अपने व परिवार के स्वास्थ्य को भी सुधार पाएंगी।
आज देश की बेटियां खेल के मैदान से लेकर युद्धक विमान उड़ाने तक का काम कर रही हैं। सेना के तीनों अंगों में उनकी सबल भागीदारी होने लगी है। पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों में उनकी कारगुजारी पहले से ही खास रही है। यह बताता है कि वे शक्ति के मामले में किसी से कम नहीं हैं। जरूरत इस बात की है कि उनके सपनों की उड़ान को ऊर्जा दी जाए। उन्हें प्रोत्साहन दिया जाये। उन्हें न्याय मिले, बराबरी के अधिकार मिलें। तभी हमारा कन्या पूजन सही मायनों में सार्थक होगा।