पाकिस्तान की राजनीति में इमरान खान का प्रवेश और उद्भव पूर्ववर्ती दिग्गजों, मोहम्मद अली जिन्नाह, जुल्फिकार अली भुट्टो, बेनज़ीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ की बनिस्बत अलग किस्म का है। राजनीति में उनकी आमद और उभार किसी पार्टी के जरिए न होकर आईएसआई के पूर्व मुखिया ले. जनरल हमीद गुल की भूमिका से ज्यादा है। हमीद गुल से मेरी मुलाकात और संवाद लाहौर में उस दौरान हुआ था जब कारगिल युद्ध पूरे उफान पर था। अंदर की कई बातों के अलावा उन्होंने बताया कि किस तरह लंबे समय तक सैनिक तानाशाह और राष्ट्रपति रहे जनरल जिया-उल-हक ने निष्ठुर होकर राज चलाया था। जनरल जिया के निज़ाम में कट्टरवादी इस्लामिक रीतियों-नीतियों वाली नीति राष्ट्रीय तौर पर अपनाई गई। तत्कालीन आईएसआई महानिदेशक हमीद गुल ने कट्टरवादी इस्लामिक गुटों का इस्तेमाल कर अफगानिस्तान और जम्मू-कश्मीर में आतंकी अभियान चलाने में सक्रिय भूमिका निभाई थी।
खुद को उदारवादी दिखाने के प्रयासों के बावजूद, कैम्ब्रिज से पढ़-लिखकर लौटे और क्रिकेटर रहे इमरान खान का हमीद गुल के साथ निकट संबंध था, जो कि तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के संस्थापकों सदस्यों में एक थे। कोई हैरानी नहीं कि इस्लामिक विचारधारा से ओत-प्रोत इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ की स्थापना पाकिस्तानी सेना की मदद से हुई है। हमीद गुल के मार्गदर्शन में इमरान का रुख कट्टर इस्लामिक बना, जो कि भारत के खिलाफ उनके नफरती बोलों में झलकता है, हालांकि अपने पश्चिमी मित्रों के समक्ष वह उदारवादी छवि प्रस्तुत करते हैं। इमरान खान की एक कुख्यात विशेषता यह भी है कि तुर्की और मलेशिया से संबंध बढ़ाने की एवज में पाकिस्तान के रिश्ते घनिष्ठ मित्र राष्ट्र यूएई और सऊदी अरब से खराब करवा डाले जबकि इस दौरान भारत के संबंध सऊदी अरब और यूएई समेत खाड़ी मुल्कों से प्रगाढ़ होते गए।
पाकिस्तान का इतिहास अपने आय स्रोत से ज्यादा खर्च करने का रहा है, जिससे इतना भारी कर्ज चढ़ गया है कि चुकाना मुश्किल हो गया है। अब इमरान खान के पास विकल्प कम हैं- या तो अपने खर्चे घटाएं या फिर अतंर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे ऋणदाताओं की अधिक कड़ी शर्तें स्वीकार करें। एक हालिया अध्ययन में, पाकिस्तानी सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीन सालों में मुल्क पर चढ़ा कर्ज दुगुना होकर 85 बिलियन डॉलर हो गया है, जो बाहरी ऋण का नया रिकॉर्ड है। पड़ोसी श्रीलंका अब दूरंदेशी से काम लेते हुए पिछली गलतियां दोहराने से बच रहा है, जब उसे उधार चुकता न कर पाने की एवज में हम्बनतोता बंदरगाह चीन को सौंपना पड़ा था। लेकिन पाकिस्तान अपने ‘सदाबहार दोस्त’ चीन से प्राप्त कर्ज की दलदल में और गहरे धंसता प्रतीत हो रहा है, जिससे वह शायद ही कभी निकल पाए। पाकिस्तान ने बहुचर्चित चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना हेतु बिना आगा-पीछा सोचे बहुत भारी ऋण चीन से उठाया है। चीन का एक उद्देश्य इस राजमार्ग के जरिए अफगानिस्तान के विशाल प्राकृतिक स्रोत अपने यहां पहुंचाना है। उधर चीन ने ग्वादर बंदरगाह कॉरिडोर का सारा नियंत्रण एक तरह से अपने हाथ में कर लिया है। चीनी मछलीमार नौकाएं अरब सागर के मत्स्य भंडार का दोहन करने को ग्वादर बंदरगाह पर धड़ल्ले से आ-जा रही हैं। राष्ट्रपति बाइडेन ने पदभार संभालने के बाद एक बार भी इमरान खान से बात नहीं की है। अमेरिका अफगानिस्तान में हुई अपनी बेइज्जती भूलेगा नहीं, जिसके पीछे वह पाकिस्तान को एक वजह मानता है।
एक के बाद एक आए पाकिस्तानी प्रधानमंत्रियों ने माना है कि बेशक वे देश की विदेश और सुरक्षा नीति नए सांचे में ढालना चाहते थे, लेकिन इसके लिए सैन्य नेतृत्व से सीधी टक्कर लेना किसी भी राजनेता के लिए खतरनाक होता, विशेषकर राष्ट्रीय सुरक्षा और पड़ोसी भारत एवं अफगानिस्तान से रिश्तों को लेकर। पर इमरान खान ने वह राह चुनी है जो सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा को नागवार गुजरी है। यहां इमरान भूल रहे हैं कि जो मनमर्जियां वह लागू करवाना चाहते हैं और जिन्हें बाजवा का समर्थन न हो, ऐसा करके सेनाध्यक्ष की ताकत को कमकर आंकना मूर्खता और खतरनाक सिद्ध हो सकता है।
सेनाध्यक्ष बाजवा और इमरान खान के बीच तनाव आईएसआई के पूर्व निदेशक और दिखावे के शौकीन एवं महत्वाकांक्षी ले. जनरल फैज़ हमीद के प्रति अधिक प्रेम दिखाने से बना है। बतौर आईएसआई मुखिया जनरल फैज़ ने वैश्विक मीडिया के ध्यान का केंद्र बनने के लालच में गंभीर चूक कर दी, जब अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज भाग रही थी। वे अतंर्राष्ट्रीय मीडिया पर छाए, जब उन्होंने वरिष्ठ तालिबान नेताओं जैसे कि मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को ऊंचे पद से महरूम करवाया, जिन्हें जान बचाकर काबुल से कंधार भागना पड़ा था। बेशक बाद में उनकी वापसी अपेक्षाकृत निचले ओहदे पर हुई। यह सारा खेल आईएसआई के खासमखास और तालिबान के ताकतवर गुट हक्कानी नेटवर्क की मदद से उन्होंने खेला था, जो पाकिस्तान और अफगान भूमि, दोनों जगह से अपनी गतिविधियां चलाता आया है।
क्षुब्ध हुए सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा ने फौरी प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई में तत्कालीन आईएसआई मुखिया जनरल फैज का स्थानांतरण बतौर कमांडर पाक-अफगान सीमांत कोर में कर दिया, जिसका मुख्य काम ड्यूरंड सीमारेखा के आरपार सक्रिय तालिबान और अन्य पृथकतावादी गुटों जैसे कि राष्ट्रवादी पश्तूनों वाली तहरीक-ए-तालिबान (पाकिस्तान) से पैदा चुनौतियों से निपटना है। अब देखने में आ रहा है कि न तो अफगान तालिबान और न ही तहरीक-ए-तालिबान को अंतर्राष्ट्रीय सीमारेखा ड्यूरंड लाइन का जरा-सा सम्मान है। अफगान उप-विदेशमंत्री अब्बास स्तानिकज़ई ने 6 जनवरी को कहा ,‘ड्यूरंड रेखा केवल राजकीय मुद्दा न होकर पूरी कौम का है। यह पूरी तरह सरकार से संबंधित नहीं है। हम यह जिम्मेवारी राष्ट्र को सौंपेंगे ताकि मुल्क इस पर राष्ट्रीय फैसला ले।’ इससे ड्यूरंड रेखा के दोनों ओर के पाकिस्तानी और पश्तून इलाकों में इस पर राजनीतिक सरगर्मी बढ़ना तय है। जनरल बाजवा से तनाव के अलावा इमरान खान के सामने बलूचों का रोष भी मुंह बाए खड़ा है, जो अपने समुद्री इलाके में चीनी नौकाओं की मछलीमार सेंध और ग्वादर पर पाक-चीनी नियंत्रण से अपने मूल अधिकार छिनने पर खफा हैं।
आगामी 18 महीनों में हमें पाकिस्तान के अंदर महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिलेंगे। जनरल बाजवा की सेवानिवृत्ति सितंबर माह में होनी है। इस बीच विपक्षी दल इमरान खान की सरकार गिराने को दलबदल को शह देने में लगे हैं। लेकिन जब तक तमाम संबंधित पक्षों को सेना की हरी झंडी न मिले तब तक यह प्रयास सफल नहीं होंगे। इसके अलावा जनरल बाजवा को 22 सितंबर, 2022 तक अपने जानशीन की सिफारिश करनी है। जाहिर है इमरान खान की तरजीह अपने प्रिय ले. जनरल फैज हमीद को इस पद पर बैठाने की है, ताकि उनकी मदद से 12 अक्तूबर, 2023 से पहले होने वाले आम चुनाव में दुबारा चुनकर आने की राह प्रशस्त हो सके। परंतु ऐसा होने पर सेना के अंदर लहरें उठ सकती हैं क्योंकि जनरल फैज हमीद तीन-सितारा कोर कमांडर जनरलों में सबसे कनिष्ठ हैं… क्या इन हालात में, पाकिस्तानी सेना बदनाम हो चुके प्रधानमंत्री द्वारा लिए ऐसे निर्णय की इज्जत करेगी या फिर पूर्व-प्रतिक्रिया करते हुए अपनी तरजीहें लागू करवाएगी? क्या खेल होगा, इस बारे में कयास लगाना फिलहाल जल्दबाजी है। पाकिस्तान में सेना द्वारा तख्तापलट करना न तो अनहोनी है… न ही अनसुनी!
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।