लक्ष्मीकांता चावला
हमारा देश भारत इस समय कोरोना महामारी से त्रस्त है। गली-गली में मौत की आहट और मृत्यु का तांडव है। कुछ परिवार ऐसे भी हैं जहां अंतिम संस्कार करने वाला भी कोरोना की भेंट चढ़ गया और परिवार समाप्त हो गए। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी का यह समाचार है कि कुछ दिनों में चालीस से ज्यादा प्रोफेसर और कर्मचारी कोरोना के मुख में चले गए। अब सवाल यह है कि कोरोना महामारी से तो भारत त्रस्त है ही, पर यह जो कालाबाजारी हिंदुस्तान में चल रही है, इसकी चोट कोरोना से भी ज्यादा है।
वैसे हमारा देश धर्म परायण देश है। ऋषियों-मुनियों ने यह शिक्षा दी है कि पराया धन मिट्टी के समान है। जब वेदव्यास जी ने 18 पुराणों की रचना कर ली तो शिष्यों ने पूछा कि कलियुग के प्राणी संभवत: इतना अध्ययन-मनन नहीं कर पाएंगे। सूत्र रूप में बताइए संदेश क्या है? उनका एक ही वाक्य था कि पर-उपकार ही पुण्य है और पर-पीड़ा पाप है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी श्रीरामचरितमानस में यही लिखा है कि परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। एक भी ऐसा धर्म नहीं है विश्व का जो भ्रष्टाचार को पाप न मानता हो।
ऐसे संस्कारों वाले भारत वर्ष में कुछ लोग लोगों की जान की कीमत पर अपनी तिजोरियां भरना चाहते हैं, उन्हें आजकल समाचार पत्रों में गिद्ध कहा जाता है। गिद्ध तो मरे हुए पशु का शरीर खाते हैं, पर ये धन लोलुप व्यक्ति जिंदा मानव को लाश बना देते हैं। पूरे विश्व में कोरोना महामारी से लड़ने के लिए दिन-रात वैज्ञानिक, डाक्टर संघर्ष कर रहे हैं। मेडिकल व्यवसाय से जुड़े हजारों लोग दूसरों की सेवा करते-करते अपने जीवन से हाथ धो चुके हैं। ऐसे में दिल्ली से यह समाचार मिलता है कि एक ही अस्पताल में बारह लोग आक्सीजन के अभाव में मौत के मुंह में चले गए। यह वह समय था जब दिल्ली के बहुत से व्यापारियों ने आक्सीजन ब्लैक में बेचकर सैकड़ों सिलेंडर सरकार और जनता की आंख से छुपाकर रखे थे। केवल दिल्ली में ही नहीं, अमृतसर से लेकर हरियाणा, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे प्रांतों में भी लोग तड़प-तड़प कर मरते रहे।
देश में केवल आक्सीजन का ही नहीं, प्राणरक्षक औषधियों का भी काला धंधा जोर-शोर से चला। तीन से पांच हजार रुपये का इंजेक्शन रेमेडिसिविर पचास हजार से एक लाख में बिका। नकली रेमेडिसिविर बनाने का धंधा भी देश में चल रहा है। कालाबाजारी को छिपाने के लिए सैकड़ों इंजेक्शन भाखड़ा नहर में भी बहाए। शायद कानून के पंजे से बचने के लिए। अभी तक यह तय नहीं हो सका, यह नकली हैं या असली।
अफसोस यह है कि यह वही भ्रष्टाचार है, जिसे समाप्त करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में प्रधानमंत्री पद संभालते ही यह घोषणा की थी कि मैं न खाऊंगा, ना खाने दूंगा। पर आज तो ऐसा महसूस होता है कि इन अवैध धंधे करने वालों के बिना नेता अपना गुजारा नहीं कर सकते और चापलूसों की फौज खड़ी करके सच्चाई देखने से दूर भागते हैं। एक तरफ मौत बरस रही है, दूसरी तरफ लाॅकडाउन में बेचारे सब्जी वाले की रेहड़ी ठोकर मारकर पलटा दी जाती है। दुकानों का दरवाजा बंद करके अपना काम कर रहे लोगों को भी निकालकर पीटने के समाचार फिल्लौर और अमृतसर से मिले हैं।
इससे अधिक शर्मनाक क्या हो सकता है कि गुरुग्राम से लुधियाना लाने के लिए एंबुलेंस का एक लाख बीस हजार रुपये किराया लिया जाता है। केवल एक नहीं, अनेक ऐसी घटनाएं हैं जहां एक हजार का काम करने के लिए दस हजार लिए जा रहे हैं।
दिल्ली और गुजरात के दो-चार प्रसिद्ध अमीर आक्सीजन की ब्लैक करते पकड़े गए हैं। होना तो यह चाहिए कि इन लोगों को केवल कालाबाजारी की सजा न दी जाए, अपितु जो लोग बिना आक्सीजन के मौत के मुंह में चले गए हैं, उनकी हत्या का दोष उन पर लगाया जाए। कोर्ट ने सही कहा था कि यह नरसंहार है जहां लोग बिना आक्सीजन के तड़प कर मर गए। यह भी कहा था कि इन लोगों पर हत्या का केस क्यों न बनाया जाए। कानून में चाहे कोई संशोधन करना पड़े, पर ऐसे लोगों को आजीवन सलाखों के पीछे तड़पते हुए छोड़ देना चाहिए, तभी शायद उनके साथ कुछ न्याय हो सकेगा जो प्राणवायु न मिलने से लाश बन गए और जिनके परिजन जिंदगी भर बिलखने के लिए रह गए।