शमीम शर्मा
नेता कहते घूम रहे हैं कि इस बार उनकी पार्टी की हवा है और प्रदूषण विभाग कह रहा है कि हवा बिल्कुल ज़हरीली हो चुकी है। यह ज़हरीली हवा कइयों के लिये जानलेवा सिद्ध हो रही है। बंटवारा सिर्फ सन् 47 में ही नहीं हुआ था बल्कि असली बंटवारा तो चुनावी वेला में होता है। इन दिनों आप किसी से पूछकर देख लो, सभी पार्टियों में बंटे मिलते हैं और जो पार्टी से नहीं जुड़े हुए, वे स्वयं को निर्दलियों का वंशज समझते हैं।
ताज्जुब इस बात का है कि चुनाव के परिणाम आते ही नेता तो एक-दूसरे के गले भी मिलने लगते हैं और हाथ भी मिलाते हैं। इतना ही नहीं, अपने मुंह का निवाला भी दूसरे नेता को खिलाने लगते हैं। पर बंटे हुए वोटर हाथ मिलाना तो दूर- एक-दूसरे का मुंह भी देखना नहीं चाहते। कइयों में तो वैर भी हो जाता है। और ऐसे में अपने नेता के झंडे की बजाय वे झंडे का डंडा तक उठाने में संकोच नहीं करते। फिर किसी का गाल सूज जाता है तो किसी की खाल पर नील उभरने लगते हैं।
चुनाव एक ऐसा अवसर होता है जब आम आदमी से ज्यादा नेता परेशान प्रतीत होता है। यह और बात है कि मुस्कान का मुखौटा पहनकर नेता अपनी परेशानी को प्रकट नहीं होने देते। और फिर हार-जीत के बाद जनता की परेशानी से उनका कोई सरोकार भी नहीं रह जाता। शरद जोशी का कथन है कि वोट एक ऐसी उधार है जो सिर्फ दी जाती है और जिसे देकर हम भूल जाते हैं। फिर चुनाव के ऐन टाइम पर हमें याद आता है कि अबकी बार मजा चखायेंगे और वोट की कीमत वसूलेंगे। कोई तो दारू और पांच सौ के नोट से तसल्ली कर लेते हैं, पर ज्यादातर अपने वोट को हथौड़ा या कलम बना लेते हैं, जिससे वे नेताओं के भाग्य की रचना करते हैं।
आज के समय में जनता की उपयोगिता इतनी ही रह गई है कि उनके वोट से मंत्री और प्रधानमंत्री तक बनते हैं पर जनता वहीं की वहीं रहती है। चुनावी वादे उड़न छू हो जाते हैं और हमारे चेहरों को पहचानने के लिए नेताओं को या तो चश्मा लगाना पड़ता है या फिर वे आपसे ही आपका परिचय पूछते हैं।
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एक बर की बात है अक नत्थू अपनी सुसराल गया तो सारे अड़ोस-पड़ोस मैं बात फैलगी अक रामप्यारी आला आ रह्या सै। जो भी घरां आवै तो नत्थू की सास्सू बतावै अक यो रामप्यारी आला है। कई दिन सेवा पानी कराये पाच्छै जद नत्थू घरां गया तो दरवाज्जा खुड़काया। पौली मैं तै रुक्का मार कै उसका बाब्बू बोल्या- रै कुण सा है? नत्थू बोल्या- मैं हूं रामप्यारी आला।