चुनाव के वक्त का माहौल वास्तव में बड़ा ही दार्शनिक किस्म का होता है जी। खासतौर से नेताओं के साथ तो ऐसा होता है कि वे आज जहां हैं, वहां कल होंगे या नहीं होंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। कल वे कहां होंगे, उन्हें खुद भी यह पता नहीं होता। निकले थे कहां के लिए और पहुंचे हैं कहां टाइप का माहौल दूसरे किसी भी वक्त नहीं होता। चुनाव के वक्त माहौल में कभी जीवन का आनंद दिखाई देता है, खासतौर से जब धर्म और जात के नारे लगते हैं, दारू बंटती है, पैसे बंटते हैं, तब तो अवश्य ही दिखाई देता है। लेकिन फिर कई बार जीवन की निस्सारता भी दिखाई देने लगती है, जब नेता की भेंट नहीं पहंुच पाती। इस दौरान क्या नेता और क्या वोटर सभी कभी बंधन मुक्त नजर आते हैं, लेकिन कभी ऐसे बंधनों में बंधे भी नजर आते हैं, जो लगता है कि कभी टूट नहीं पाएंगे। अचानक एक दिन सारी दुनिया को पता चलता है कि एक नेता जो अपनी पार्टी में खूब खुश नजर आ रहा था, वहां अपनी हेकड़ी दिखाता था, ऐंठ में रहता था, वह तो वास्तव में वहां घुटा हुआ था और अब वहां से निकलकर वह खुली हवा में सांस ले रहा है। इस लिहाज से देखा जाए तो पार्टियां भी जेल जैसी ही होती हैं और चुनाव आते हैं तो नेता को लगता है कि अब वह आजाद है।
पता चलता है कि एक नेता जो अभी तक जिस पार्टी में, उसके नेताओं में अपनी आस्था दिखाता था, वफादारी की कसमें खाता था, वह तो वक्त आने पर अपनी पार्टी में भितरघात करने के लिए, अपने नेताओं की पीठ में छुरा घोंपने के लिए तैयार बैठा था। जरूरी नहीं कि हमेशा मुंह में राम और बगल में छुरी रहे। मुंह में वफादारी की दास्तानें और बगल में छुरी भी हो सकती है। यही वक्त होता है जब नेता यह साबित करते हैं कि घर के भेदी विभीषण अभी भी होते हैं। जयचंद और मीर कासिम अभी भी प्रासंगिक बने हुए हैं। नेताओं में कशमकश ऐसी चलती है जिसे चचा गालिब ने कुछ इस तरह से फरमाया है कि कुफ्र खींचे है मुझे, रोके है मुझे इमां। हालांकि वह जो नेता है, जिसे दूसरी पार्टी वाले अपनी पार्टी में खींच ले गए हैं, उसे कुफ्र की तरह किसी मुकदमे ने, उसकी चोरी चकारी की किसी फाइल ने ही खींचा होगा। हालांकि चुनाव जीतने का मोह भी खींच कर ले जा सकता है और मंत्री बनने का लालच भी। लेकिन ईमान उसे उस तरह से रोक नहीं पाता है, जैसे चचा गालिब को रोक लेता था। तब ईमां होता होगा। अब ईमानदारी का सिर्फ ढोल होता है और ढोल में तो पोल होती ही है। अब तो कुटिलता है, भितरघात है, विश्वासघात है। एक दार्शनिक माहौल में इन फितरतों का होना इस बात का सबूत है कि एकदम दुनियादार भी हैं। लेकिन क्या दुनिया में ईमानदारी, वफादारी होती ही नहीं है। चुनाव के वक्त तो नहीं।