डॉ. प्रदीप मिश्र
नेताजी को पिछले कुछ दिनों से उनकी आत्मा की आवाज़ सुनाई दे रही थी। उन्हें ताज्जुब हो रहा था कि आत्मा नाम का यह नया अंग उनके शरीर में कैसे पनप गया? बचपन में तो नहीं था। कैंसर वाली गांठ तो नहीं है? पॉलिटिशियन में आत्मा का उभरना, जानलेवा माना जाता है। एक्स-रे सही, सोनोग्राफी सही, खून की सारी जांचें सही… लेकिन कानों में टन्न-टन्न घंटी बज रही है। जहां हैं वहां रहने में मन नहीं लग रहा है और जहां नहीं हैं, वहां जाने को मन फड़फड़ा रहा है। क्या करें, कहां जाएं? एक है किश्ती, सौ तूफान… एक है सीट, बैठने को सारा जहान…।
डॉक्टरों ने कहा, ‘नेताजी, आपकी आत्मा एक जगह रहते-रहते ऊब गई है, इसलिए तरह-तरह की परेशानियां पैदा हो रही हैं। आपको आबोहवा बदलना जरूरी है।’ नेता का घर तो उसकी पार्टी होता है। उसी में वह रहता, खाता, पीता, फूलता और फलता है। उसकी आबोहवा तो किसी दूसरी पार्टी में जाने से ही बदलेगी।
पहले का जमाना तो रहा नहीं कि विचार नहीं मिले, तो त्यागपत्र लिखा और पार्टी छोड़ दी। जहां विचार मिले, उस पार्टी की सदस्यता का चंदा भरा और पार्टी में शामिल हो गए। हवा भी बदल गई, पानी भी बदल गया। लेकिन अब तो जब तक, नई पार्टी से डील न हो जाए, पुरानी वाली नहीं छोड़ी जाती। डील का मील खाए बिना, पुरानी पार्टी में आखिरी कील नहीं ठुंकती।
हर डील में एकमात्र अपील होती है, ‘मेरा क्या?’ जब ये सेट हो जाता है, तब ही डील को डीलक्स माना जाता है। मिनिस्ट्री वाली डील, सुपर डीलक्स मानी जाती है। राज्यसभा की डील, लक्जरी डीलक्स होती है। ऑर्डिनरी डीलक्स डील… भागते भूत की लंगोटी सरीखी होती है। इसे खोका से मापा जाता है।
डील को कार्पोरेट-जुबान में पैकेज कहते हैं। अच्छे पैकेज का ऑफर मिलने पर ही नेता, पार्टी स्विच करते हैं।
बहरहाल, हमारे नेताजी, अच्छे पैकेज की डील का ऑफर पाने की जुगत में हैं।