वरुण चौधरी मुलाना
देश के समृद्ध और प्रगतिशील राज्यों में से एक होने के बावजूद हरियाणा सामाजिक विकास के विभिन्न मापदंडों पर पिछड़ा हुआ है। विशेषकर महिला साक्षरता, कुपोषण, असमान अवसर, असुरक्षा, भ्रूण हत्या, यौन शोषण, आर्थिक-सामाजिक निर्भरता और बाल विवाह जैसे अनेक कारणों से महिलाओं की सामाजिक स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। यदि महिलाएं सियासी तौर पर सशक्त होती तो उनके ये हालात न होते।
दरअसल, हरियाणा में महिलाओं की विरोधाभासी स्थिति है। एक तरफ जहां देश में शन्नो देवी हरियाणा विधानसभा की प्रथम महिला अध्यक्ष बनीं, तो वहीं सावित्री जिंदल देश की सबसे धनाढ्य महिला, उधर महिला अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला ने हरियाणा का नाम दुनिया में रोशन किया। खेलों में महिला पहलवानों ने हरियाणा को नई पहचान दी तो दूसरी तरफ गरीबी, कुपोषण और निरक्षरता जैसी विषमताओं से जूझती साधारण महिलाएं हैं। महिलाओं के प्रति मध्यकालीन सामाजिक सोच के कारण प्रदेश में महिलाएं प्रतिभावान होते हुए भी शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र में पिछड़ी हुई हैं। प्रदेश की लगभग आधी आबादी की बतौर नीति निर्धारक प्रतिभागिता के बगैर समाज के सर्वांगीण विकास की कल्पना नहीं की जा सकती।
यूं तो राजनीति में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में भारत ही अपने पड़ोसी देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी पीछे है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक महिलाओं की 48.5 फीसदी आबादी में से संसद और विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है। लोकसभा में 82 और राज्यसभा में सिर्फ 31 महिला सदस्य हैं। राज्यों की विधानसभाओं में भी महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत कम है। बता दें कि 19 विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी 10 फीसदी से भी कम है। जिन विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 फीसदी से अधिक है उनमें देश के केवल 9 राज्य हैं। इनमें छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, राजस्थान व पंजाब और बिहार आदि शामिल हैं। कुल 68 विधानसभा सदस्यों वाले हिमाचल प्रदेश में मात्र एक महिला विधायक है।
वर्ष 1966 में हरियाणा प्रांत बनने के बाद अब तक हुए 13 विधानसभा चुनावों (1967 से 2019 तक) में कुल 1193 सदस्य चुने गए हैं जिनमें महिला विधायकों की संख्या केवल 92 है यानी 8 प्रतिशत से भी कम रही। इन 92 महिला विधायकों में केवल 23 ऐसी विधायक हैं जो एक से अधिक बार चुनी गई। हकीकत में केवल 50 महिलाएं ही विधानसभा सदस्य बन पाई। इनमें अनुसूचित जाति से संबंधित महिलाओं की संख्या मात्र 24 है जिनमें 6 महिला सदस्य एक से अधिक बार चुनी गई। अनुसूचित जातियों की केवल 13 महिलाएं ही विधानसभा सदस्य बन पाई हैं जो हरियाणा के 57 वर्ष के चुनावी इतिहास में चुने विधायकों का मात्र एक फीसदी है।
महिलाओं के सियासी सशक्तीकरण की दिशा में कई कागजी प्रयास किए गये लेकिन ज्यादातर हवाई साबित हुए। अंतत: तीन दशक इंतजार के बाद देश में हाल ही में संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ लाया गया। महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण में इसे कारगर करने के लिए कई शर्तें आड़े आ रही हैं। पहली बात, यह अधिनियम 2024 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में लागू नहीं होगा। दूसरा, 2026 में लोकसभा सीटों के परिसीमन के बाद यह लागू होगा। तीसरे, यह अधिनियम केवल 15 साल के लिए लागू होगा और इसके बाद संसद में फिर से अधिनियम लाना होगा। चौथे, जिन राज्यों में विधानसभा के अलावा विधान परिषद हैं वहां महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का अधिनियम लागू ही नहीं होगा। महिलाओं को संसद व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण के इस आधे-अधूरे अधिनियम से साफ है कि मंशा महिलाओं के सियासी सशक्तीकरण की नहीं, सिर्फ गुमराह कर वोट बैंक हथियाने की है।
पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत और पिछड़े वर्गों (ए-वर्ग) के लिए 7 प्रतिशत आरक्षण महिलाओं व अन्य कमजोर वर्गों के सियासी सशक्तीकरण की दिशा में सराहनीय कदम है। लेकिन शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं का 33 प्रतिशत आरक्षण राजनीति से प्रेरित नजर आता है। वहीं व्यावहारिक तौर पर दोनों पंचायती राज तथा शहरी स्थानीय निकायों अधिनियमों के अंतर्गत चुनी गई महिला प्रतिनिधियों के दायित्व कार्य और शक्ति का दुरुपयोग पंच, सरपंच या पार्षद पतियों द्वारा किया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सशक्त भारत निर्माण की परिकल्पना सत्ता के विकेंद्रीकरण से परिपूर्ण थी जिसमें स्थानीय लोगों की भागीदारी पर जोर दिया गया था। इसलिए केंद्र में कांग्रेस सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं को व शहरी स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा दिया।
इतिहास साक्षी है कि राजनीतिक परिवर्तन से पहले सामाजिक परिवर्तन होना आवश्यक है। नि:संदेह अपराध और भेदभाव मुक्त समाज की संरचना में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। हरियाणा में राजनीतिक प्रतिनिधित्व के साथ महिलाओं को शिक्षित व आर्थिक स्वावलंबी बनाकर उनके हालात में आवश्यक सुधार लाया जा सकता है। इस दिशा में गंभीर प्रयास होने चाहिए। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति तथा सामाजिक सोच में बदलाव जरूरी है। दलगत सियासत से ऊपर उठकर सरकारें और राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए कारगर कदम उठाएं।