शमीम शर्मा
इस बार अयोध्या पहुंचते ही प्रभु के मुखारविन्द से निकला होगा कि इससे तो वनवास ही ठीक था। प्रदूषण का नाम भी नहीं था। कानफोड़ू शोर नहीं था, मिलावटी मिठाई और जंक फूड नहीं था, आंखों को चुंधियाने वाली लाइट नहीं थी। रामजी के मुख से निकली इस खीझ पर सहधर्मिणी ने भी सहमति में गर्दन हिलाई होगी और कदमों को फिर से जंगल की तरफ मोड़ लिया होगा। पर छोटे भाई ने अनमने भाव से कहा होगा- भईया! अब इस बदली हुई नगरी को स्वीकारने के अलावा कोई रास्ता भी नज़र नहीं आ रहा है। और दुखी हृदय से सबने अपनी नगरी में प्रवेश कर लिया होगा।
खूब दीये टिमटिमाये, खूब लड़ियां व झालरें लटकीं और जगमगाई, खूब पटाखे फूटे। न तो अंधेरा टस से मस हुआ और न ही पटाखे न चलाने की कसमों ने कोई असर दिखाया। इस कोने से उस कोने तक आसमान को चीरते हुए रॉकेटों ने प्रदूषण में बेतहाशा वृद्धि की। इतना ही नहीं, धरती पर भी लगातार धमाके होते रहे, फुलझड़ियां कनखियों से मुस्कराती हुई ठेंगा-सा दिखाती रहीं। सब चलता है, के भाव से सब पटाखों के शोर और धुएं को स्वीकार करते रहे। जैसे मंदिर के बाहर रखे जूते चोरी हो जाने पर भक्त कुछ नहीं कर सकता, उसी प्रकार सरकारी चेतावनियां, न्यायालयों की हिदायतें धरी की धरी रह गईं, जैसे कोई बम फुस्स हो जाये।
व्हाट्सएप पर दिवाली की बधाई के अम्बार लग गये। धन वर्षा तो पता नहीं किसके यहां हुई और किस के नहीं, पर बधाई सन्देश हर मोबाइल पर खूब बरसे। यह और बात है कि मोबाइल धारक ने वे सारे पढ़े या बिना पढ़े डिलीट कर दिये। इतना ही नहीं, लोगों ने भर-भर थाल लड्डुओं के भेजे। सच्चाई यह है कि इतनी मिठाई खाई नहीं, जितनी डिलीट करनी पड़ गई। घंटों बेकार हुए सो अलग।
कहावत तो यह है कि दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम। ताने-ताने पर लिखा है रिश्तेदारों का नाम। उनके खूब ताने सुनने पड़े कि पटाखों पर भाषण दे रहे थे और अब अपने बच्चों से चलवा रहे हो। खैर, उन रिश्तेदारों के अब टेंशन शुरू हो चुकी होगी, जिन्होंने वादा किया था कि बाकी पैसे दिवाली के बाद लौटायेंगे।
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एक बर की बात है अक दिवाली कै दिन नत्थू नाड़ लटकाये बैठ्या था। उसका ढब्बी सुरजा बोल्या- रै त्योहार के दिन तेरै के होग्या? नत्थू माथे पै हाथ धरके बोल्या- पटाखे कोर्ट नैं बन्द कर दिये, साउंड सरकार नैं, घी अर मिठाई डॉक्टर नैं बन्द कर दी। ईब दीवाली के हजमोला खा कै मनाऊं?