राजेश रामचंद्रन
सांसदों के बिना संसद गोमाता विहीन गोशाला सरीखी है या बिन मूर्ति के मंदिर समान! इससे पहले कि मेरे इन शब्दों को माननीय सदस्यों या पूजनीय गोमाता की बेइज्जती करने की धृष्टता मानकर भीड़ मेरी मॉब लिंचिंग पर उतारू हो, कृपया नोट करें कि मैंने सांसदों का जिक्र नहीं किया। मूर्ति यहां संसदीय विमर्श है तो मंत्र है, आपसी बहस– ताकि वाद-विवाद से विचारों का आदान-प्रदान हो। संसद की उपमा को मंदिर के रूप में आगे बढ़ाते हुए, वास्तव में लोकतंत्र की इस देवी की आराधना मुख्य पुजारी बिना नहीं हो सकती और यह भूमिका होती है विपक्ष की।
तो, संसद के वर्तमान शीतकालीन सत्र की समाप्ति मुख्य पुजारी की बाहर बैठकर धूप सेंकने, अध्यक्षता करते माननीय अर्थात राज्य सभा अध्यक्ष, जो कि देश के उप-राष्ट्रपति भी हैं, की नकल करने से हुई। जब आप धूप सेंक रहे हों एवं करने को कुछ और न हो, और मोबाइल फोन पास हो, तो सेल्फी लेने या एक-दूजे की चुहलबाजी और अभिनय की रिकॉर्डिंग के अलावा और क्या काम। तथापि, एकल-पार्टी-आधिपत्य वाली सरकार के मानकों के मुताबिक भी, 146 विपक्षी सांसदों की बर्खास्तगी संसदीय बहस की रिवायत को बहुत बड़ा आघात है।
यदि संसद का मतलब केवल सरकारी कामकाज चलाना और नए कानून पारित करने के पहले विपक्षियों को निकाल बाहर करना ताकि पीछे बचें, बेंच बजाकर समर्थन करने वाले सत्ता पक्ष के सदस्य, तो क्या यह मंज़र हमारे लोकतंत्र के लिए सही है? फिर किस मुंह से विदेशी प्रेस और विदेशी धन प्राप्त टिप्पणीकारों को दोष दे सकते हैं, जब वे ‘मेड इन इंडिया पार्लियामेंट 2.0’ को एक ढकोसला करार देते हैं? विपक्ष के कटाक्ष और टोटा-टाकी, शब्द-वाण, वॉक-आउट और कार्रवाई स्थगन, यह सब कानून बनाने की प्रक्रिया को वैधता प्रदान करते हैं। जब कभी कोई कानून तीखी बहसों, एतराजों के बाद अंततः पारित होता है, तो उससे देश की वैधानिक गांभीर्य जुड़ जाता है। बेशक कानून बनाने वाली संसद अब नए भवन में है, लेकिन कानून-निर्माण की नई प्रक्रिया को अधिक दक्ष बनाने और वर्तमान चलन के नाम पर इसकी लोकतांत्रिक भावना की भव्यता नहीं छीन सकती, जो कि इसकी काबिलियत है।
वैसे भी हमने देख लिया कि कैसे नए भवन की सुरक्षा व्यवस्था, एक घुसपैठिए को जूते के तले में स्मोक-कैनिस्टर छिपाकर लाने और फिर दर्शकदीर्घा से सदन में छलांग लगाने से रोकने में अक्षम सिद्ध हुई है। यह हमारे लोकतंत्र के गर्भ-गृह पर हमला था। यह लेखक 13 दिसम्बर, 2001 के दिन संसद भवन में मौजूद था, जब आतंकी हमला हुआ। भीषण मुठभेड़ में सभी हमलावरों को मार गिराने के बाद, जिसमें हमारे आठ वीर जवान और एक आम नागरिक शहीद हुए, तत्कालीन गृह मंत्री एलके आडवाणी और कानून मंत्री अरुण जेतली ने स्थिति का जायजा लेने के लिए परिसर का चक्कर लगाया था और तब सुरक्षा में सेंध को लेकर उनसे की गई जवाबतलबी याद आ रही है।
इस पर आडवाणी ने 18 दिसम्बर, 2001 को लोकसभा में वक्तव्य दिया था (हालांकि शुक्रवार को ‘द ट्रिब्यून’ के स्तंभकार और सुपरकॉप जुलियो रिबैरो ने अपने लेख में आडवाणी को भूलवश तत्कालीन नेता-प्रतिपक्ष बताया है)। आडवाणी ने अपने बयान में भारतीय संसद पर हमले का इल्जाम देश के भितरघातियों और पाकिस्तान बैठे योजनाकारों पर लगाया। इस बार भी, विपक्ष ने उसी प्रकार बयान की मांग की थी। बेशक यहां पर दोनों हमलों के बीच सीधी तुलना नहीं हो सकती क्योंकि जहां एक में संसद परिसर के अंदर पांच आतंकी मारे गए थे वहीं दूसरे प्रसंग में घुसपैठिए ने केवल स्मोक कैनिस्टर का उपयोग किया है। यदि इसे पुनरावृत्ति ही कहा जाए तो इतिहास प्रतीक-प्रहसन के रूप में दोहराया गया।
लेकिन फिर यह भी हो सकता है कि स्मोक कैनिस्टर में मारक गैस होती, जिससे देश के शीर्षस्थ नेतृत्व की सुरक्षा को एकमुश्त गंभीर खतरा बन सकता था। यह सोचना भयावह है लेकिन सरकार द्वारा इस विषय पर विश्वास स्थापना विमर्श करवाए बिना, इस कयास को खारिज नहीं किया जा सकता। विपक्ष द्वारा सुरक्षा चूक पर विस्तृत जानकारी और संभावित सुधारक उपायों पर चर्चा की मांग करना जायज है। संसद उनकी भी उतनी ही है। इसकी बजाय, उन सांसदों को एक के बाद एक कर निलंबित कर दिया गया। यहीं पर राज-व्यवस्था में आया आमूल परिवर्तन साफ दिखाई देता है। पूर्व में संसदीय प्रक्रिया चलाने को सही मायने में चलाने और दिशा देने में विपक्ष का बहुत बड़ा योगदान रहा है।
एक अखबार में किया गया रहस्योद्घाटन विपक्ष के लिए संसद में स्थगन के लिए दबाव बनाने में काफी होता है। किसी पत्रकार के लिए उसके काम की इससे बढ़कर कोई मान्यता नहीं हो सकती कि उसकी लिखी खबर के परिणामवश सदन में बहस के बाद कामकाज स्थगित करना पड़े। इस लेख का लेखक तीन मौकों पर अपनी रहस्योद्घाटन खबरों से संसदीय कामकाज स्थगित होने को अपना सबसे बड़ा सम्मान पदक मानता है, यह किसी भी पत्रकारिता सम्मान से कहीं बढ़कर है। जब पूरा विपक्ष एकजुट होकर, किसी अखबार की प्रति हाथ में लेकर, सदन में खड़ा होकर नारेबाजी करने लगे, और लाचार होकर अध्यक्ष सदन स्थगित कर दे, तो यह घटना पुनः अगले दिन की मुख्य सुर्खियां बनती है। जितना अधिक विपक्ष का दबाव होगा, उतना ही अधिक सत्तापक्ष को समझौताकारी होना पड़ेगा, जो कि संयुक्त संसदीय जांच कमेटी बनाने पर राजी होने जितना बड़ा हो सकता है।
चाहे तो विपक्ष के इन पैंतरों को संसदीय मोल-भाव कहिए या ब्लैकमेल। किसी सरकार को अपना विधायी कामकाज चलाना है, तो विपक्ष की मांगों पर ध्यान देना पड़ेगा। इस प्रकार, प्रत्येक रहस्योद्घाटन (कई मर्तबा खुद सरकार अथवा किसी कॉर्पोरेट लॉबीकर्ता द्वारा नियोजित) या फिर कोई भी घटना हो, उसका अपना एक जीवनकाल होता है, जो अकसर सरकार को कमजोर, लड़खड़ाई और लगातार बचाव की मुद्रा में ला देता है। लेकिन अब यह बदल चुका है। विपक्ष के दबावों के सामने झुकने और उसको संसदीय एजेंडा को हर लेने का मौका देने की बजाय सरकार ने रोधक पैंतरा घड़ लिया है – नारे लगाने वाले सांसदों का निलंबन।
वास्तव में, विपक्षी सांसदों का निलंबन सरकार के लिए शर्मिंदगी की वजह है और लोकतांत्रिक छवि को कमजोर बनाता है। लेकिन लगता है इस सरकार ने दो किस्म की किरकिरी– स्थगन एवं निलंबन – के नफा-नुकसान का आकलन करने के बाद, स्थगन से बचने को निलंबन रूपी विकल्प को चुनने का फैसला कर लिया है। स्थगन से सरकार के दोषी होने का अहसास होता है जबकि निलंबन इसको दबंग किंतु मजबूत (बल्कि आज यह भयावह रूप से है) पेश करता है और इसमें ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं कि मौजूदा सत्ताधारियों को अपनी ऐसी छवि से परहेज़ नहीं है या इन विशेषणों के अभ्यस्त हो चुके हैं या फिर इन्हें रोजमर्रा की आलोचना की तरह लेते हैं।
हालांकि, सुरक्षा में सेंध एक अवसर था कि सरकार अपनी व्यवस्था की गलतियां स्वीकार करती कि कैसे संसद की सुरक्षा संभाल रहे लापरवाह कर्मी ने बैठे-बैठे आगंतुक की रस्मी जामा-तलाशी ली (अपनी यह पुरानी आदत नहीं बदलते)। अफसोस, एक ‘मजबूत’ सरकार को अपवाद स्वरूप ही सही, अपने अभेद्य कवच में किसी दरार को कबूलना गवारा नहीं। सरकार को लोकतंत्र के मंदिर में संसदीय विमर्श रूपी देवी की पुनर्स्थापना हेतु अपने संसदीय पैंतरों पर पुनर्विचार की जरूरत है।
लेखक प्रधान संपादक हैं।