विवेक शुक्ला
प्रख्यात हृदय रोग विशेषज्ञ एवं पद्मश्री से सम्मानित डॉ. के.के. अग्रवाल ने न केवल अपनी सकारात्मक बातचीत से हजारों टूटे हुए दिलों को जोड़ा बल्कि लाखों रोगियों के चेहरे पर मुस्कान भी लेकर आए। उनसे मिलने के बाद गंभीर से गंभीर रोगी को एक शक्ति और उम्मीद मिल जाती थी। उसे विश्वास हो जाता था कि वह बीमारी को मात दे देगा। जब डाक्टरी पेशे को कुछ स्तरों पर पतित किया जा रहा है तब डॉ. के.के. अग्रवाल एक मीठी हवा के झोंके के समान थे।
पर वे कोरोना के शिकार हो गए। पिछले लगभग एक वर्ष से भी अधिक समय से वह प्रतिदिन लगभग आठ-दस घंटे ऑनलाइन रहते हुए कोरोना के बारे में लोगों का ज्ञानवर्धन करते रहते थे। वह लगातार 30-35 सालों से देश में स्वास्थ्य के प्रति जनचेतना और उसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे थे। उन्होंने आधुनिक चिकित्सा को भारतीय दर्शन से जोड़ा। उन्होंने ही राजधानी और देश के अन्य भागों में स्वास्थ्य मेले आयोजित करवा कर आमजन को दिल से जुड़ी बीमारियों को लेकर जागरूकता पैदा की।
वे उन डाक्टरों से नाराज रहते थे जो रोगी को टेस्ट पर टेस्ट करवाने के लिए कहते हैं। वे निजी बातचीत में कहते थे कि कुछ डॉक्टर जल्दी से पैसा कमाने के चक्कर में रोगी को ग्राहक मानने लगे हैं। इसके कारण ही डाक्टरों और रोगियों के आपसी संबंध पहले जैसे मधुर नहीं रहे। इनमें एक अविश्वास पैदा हो गया है। डाक्टरों का समाज में पहले वाला सम्मान नहीं रहा। इसकी एक वजह ये भी है कि रोगी को टेस्ट के नाम पर लूटा जाता है। उन्होंने टेस्ट ही टेस्ट और मेडिकल पेशे में बढ़ती अनैतिकता को इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) का अध्यक्ष रहते हुए भी उठाया। इस लिहाज से वे सच बोलने में बहुत निर्भीक थे। उन्होंने इस बात की कतई परवाह नहीं कि उनसे उनकी बिरादरी ही खफा हो जाएगी।
वे नागपुर से एमबीबीएस और एमएस की डिग्री लेने के बाद राजधानी के मूलचंद अस्पताल से जुड़ गए थे। यह 1980 के दशक की बातें हैं। उन्हें मूलचंद अस्पताल से डॉ. कृष्ण लाल चोपड़ा ने जोड़ा था। हार्ट सर्जन डॉ. चोपड़ा विश्वविख्यात लेखक और मोटिवेशन गुरु डॉ. दीपक चोपड़ा के पिता थे। यह सच है कि मूलचंद अस्पताल को अमीरों का अस्पताल माना जाता है। पर वे आमजन के लिए फोन पर या अपने चैंबर पर हमेशा उपलब्ध रहते थे। वे जितने रोगियों को रोज देखते थे, उनमें से आधे से वे कोई फीस नहीं लेते थे। वे कहते थे—साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु ना भूखा जाय॥ वे चाहते तो कई कारपोरेट अस्पताल खोल सकते थे। लेकिन उनकी जीवन को लेकर सोच अलग थी। वे मानव सेवा के प्रति एक तरह से वचनबद्ध थे।
डॉ. अग्रवाल साल में करीब एक सौ हेल्थ कानफ्रेंस में भाग लेते थे। वहां पर भी लोग उनसे अपनी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को पूछते। वे फोन नंबर भी दे देते ताकि आगे भी बातचीत होती रहे। डॉ. अग्रवाल अपने साथी डाक्टरों से अपेक्षा करते थे कि वे नये अनुसंधानों की जानकारी रखें और खुद भी नये अनुसंधान करें। उनका मानना था कि रोगी का इलाज करना पर्याप्त नहीं माना जा सकता। हरेक डॉक्टर को अपने काम और सोच का विस्तार करना होगा। उसे लगातार पढ़ना तथा अनुसंधान करते रहना होगा।
ये प्रश्न हमेशा बना रहेगा कि क्या वे पहले सुयोग्य चिकित्सक थे या फिर कर्मठ समाजसेवी? वे हजारों लोगों के लिए कठिन समय में देवदूत बनकर आए। उनकी अकाल मृत्यु से देश और उनके चाहने वालों ने एक कुशल चिकित्सक, बड़ी सोचने रखने वाला, हर समय नया करने व सीखने को तत्पर, हमदर्द, दोस्तों का दोस्त और ज़िंदादिल इनसान खो दिया है। उनका जाना मानवता के लिए क्षति है।