डॉ. रमेश ठाकुर
मशहूर शायर मुनव्वर राणा अद्वितीय प्रतिभा के धनी थे। उनके शे’र, उनकी नज़्में, उनकी मासूम-सी मुस्कुराहट के पीछे छिपे शहद वाले तंज सबको अपना बनाते थे। सहमति-असहमति के दौर में उन्हें कुछ लोगों ने बुरा समझा। उर्दू जुबान का अपने दौर का सबसे बड़ा शायर अब यादों में, बातों में, महफिलों में और किस्सों में रहेगा। लखनऊ में मुनव्वर राणा की रूह बाकी है जो सदा यहीं रहेगी। सबको अकेला छोड़कर उर्दू साहित्य का विशाल वटवृक्ष रविवार की सर्द शाम को नवाबों के शहर लखनऊ में ढह गया। छब्बीस नवंबर, 1952 को उत्तर प्रदेश के जिले रायबरेली में जन्मे मशहूर शायर ‘मुनव्वर राणा’ ने एक अस्पताल में अंतिम सांस लेकर नश्वर दुनिया को अलविदा कह दिया। खुदा ने उनके निधन की वजह दिल के दौरे के रूप में मुकर्रर की। जबकि थे कैंसर से पीड़ित। उनके न रहने की खबर पर बड़ी-बड़ी हस्तियों ने दुख जताया। मुनव्वर के निधन से न सिर्फ उर्दू-साहित्य को नुकसान होगा, बल्कि अवधी-हिंदी भाषा को भी गहरा धक्का लगेगा। विश्व पटल पर उन्हें अवधी का खूब प्रचार-प्रसार किया। उर्दू शायरी में नया प्रयोग करके उन्होंने देशी भाषाओं को अपनी जुबान बनाई थी।
राणा की कही प्रत्येक शायरी-कविता में ऐसी तल्खियां होती थीं, जो सियासतदानों को हमेशा नागवार गुजरी। उनकी प्रस्तुति में झलकता अलहदापन सुनने वालों को अपनी ओर खींचता था। मुनव्वर राणा का जन्म बेशक उत्तर प्रदेश में हुआ, लेकिन ज्यादा वक्त उन्होंने कोलकाता में ही बिताया। बचपन में वह बेहद शरारती रहे। वह शुरू से ही हट्टे-कट्टे थे। पहलवानी का भी शौक था लेकिन बाद में त्याग दिया।
राणा का इंतजार ‘पहलवानी का अखाड़ा’ नहीं, बल्कि ‘साहित्य जगत’ कर रहा था। कविताओं ने ही उनको ‘मुनव्वर राणा’ के साथ स्थापित किया। ये नाम उर्दू-साहित्य में सदैव अदब-सम्मान से लिया जाता रहेगा। साहित्य के अलावा अन्य सामाजिक मसलों पर उनकी बेबाक टिप्पणियां भी जगजाहिर रहीं। शायरी में मुनव्वर को सबसे ज्यादा शोहरत ‘मां’ के स्नेह और रिश्तों पर उकेरी कविताओं से ही मिली। मां की ममता को दर्शाने वाली कविता की एक लाइन हमेशा सभी के दिलों में जिंदा रहेंगी। ‘…किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई, मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में मां आई…।’ इन लाइनों में भावुकता और मार्मिकता का ऐसा संगम समाहित है जिसे सुनकर संवेदनाएं उमड़ती हैं। शायरी के लिए सजने वाली कोई ऐसी महफिल नहीं होती थी जिसे वह अपनी शायरी से न लूटते हों? महफिलों के अनगिनत किस्से उनसे जुड़े हुए हैं।
हैदराबाद के एक मुशायरे में अपने कलाम के बारे में एक दफे कहा था कि ‘वह ग़ज़ल को कोठे से उठाकर मां तक ले आए हैं’। वह एक ऐसा संदेश था जिसने सीधे राजनीति पर प्रहार किया था। वहीं, दुबई में एक मुशायरे में जब उन्होंने एक मां पर लिखी शायरी की एक लाइन पढ़ी, तो वहां बैठे दूतावास के एक बड़े अधिकारी बिलख-बिलख कर रोने लगे। वहीं राणा बेबाक राजनीतिक बयानबाजी को लेकर बीते कुछ वर्षों से ज्यादा चर्चाओं में थे। इसके अलावा उन्हें वर्ष 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था जिसे बाद में उन्होंने लौटा दिया था। तब से वह कुछ ज्यादा ही सियासतदानों के निशाने पर आ गए। दरअसल, उनकी बयानबाजियां ही उन्हें हमेशा परेशान करती रहीं।
गले के कैंसर से पीड़ित 71 वर्षीय इस शायर का विवादों से कभी नाता छूटा ही नहीं? हालांकि, उनके विवाद इसलिए कमतर आंके जाते हैं क्योंकि उन्होंने उर्दू साहित्य विधा पर अमिट छाप छोड़ी। उनके जाने से उर्दू-साहित्य को निःसंदेह बड़ी क्षति होगी।
मुनव्वर की बड़ी खासियत थी कि वह उर्दू के बड़े शायर होते हुए भी अपने शेरों में अवधी और हिंदी जमकर प्रयोग करते थे। इसी वजह से उनकी लोकप्रियता और तेजी से बढ़ी। उम्दा शैली का ऐसा शायर शायद ही अब कभी संसार को नसीब हो। उन्हें सिर्फ भारतीय श्रोता ही पसंद नहीं करते थे, समूचा संसार उनकी कविताओं को सुनने के लिए बेताब रहता था। ‘हम नहीं थे, तो क्या कमी थी यहां। हम न होंगे तो क्या कमी होगी।’ शायर मुनव्वर राणा का ये शे’र उनके इंतकाल पर याद किया जा रहा है।