लक्ष्मीकांता चावला
भारत की स्वतंत्रता से कुछ वर्ष पहले शहीद भगत सिंह ने यह चिंता प्रकट की थी कि स्वतंत्रता के बाद भारत कहीं काले अंग्रेजों के शासन में न आ जाए, जनता रोटी-रोटी और न्याय के लिए तड़पती न रहे। भगत सिंह की चिंता सही ही नहीं, शतप्रतिशत सही साबित हो रही है। भगत सिंह ने सांप्रदायिक और जातिवाद को बढ़ावा देने वाले लोगों का हमेशा विरोध किया था। वह सत्ता में ऐसा बदलाव चाहते थे जहां आम आदमी की आवाज सुनी जा सके।
मैं उस जननेता से मिली, जिसकी आयु 100 वर्ष से ज्यादा है और जिसने अंग्रेजों का राज देखा है। उसका यह कथन है कि अंग्रेजी राज उनके प्रति तो बहुत क्रूर था जो भारत की आजादी की बात करते थे अथवा उनके तुगलकी आदेशों को नहीं मानते थे, पर आम जनता पुलिस थानों से वैसी परेशान नहीं थी जैसी कि अब हो रही है। स्वतंत्रता के कुछ वर्ष पश्चात भी जनता का विश्वास पुलिस तंत्र पर था। पुलिस के ऐसे बहुत से अधिकारी हुए जो न्याय देते थे, निर्दोष की रक्षा करते थे और सब प्रकार के राजनीतिक दबाव से मुक्त थे।
कुछ वरिष्ठ सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारियों ने यह बताया कि जब वे पीड़ित का पक्ष नेताओं के सामने रखते थे तो वे कभी भी निर्दोष को दंड देने के लिए नहीं कहते थे, पर धीरे-धीरे स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र पुलिस और प्रशासन के हाथों गिरवी रख दिया गया। इसमें अधिक दोष वर्तमान राजनीति का है और उनका दोष भी कम नहीं जो मलाईदार पोस्टिंग पाने के लिए अपनी सुविधा अनुसार स्टेशन चुनने के लिए राजनेताओं की छाया में जाते हैं।
एक हालिया घटना में एक व्यक्ति बहुत पीड़ा में मिला। उसका यह कहना था कि उसके बेटे ने जो अपराध किया भी होगा, उसके लिए क्षेत्र के पुलिस अधिकारी ने हजारों रुपये ले लिए। फिर भी उस पर केस बना दिया। जब उस पुलिस के कनिष्ठ अधिकारी की शिकायत उच्चाधिकारियों तक की तो उनका कहना था कि अमुक नेता का यह आदमी है। उसी के कहने पर इसे चौकी इंचार्ज बनाया गया है। उस नेता का भी दरवाजा खटखटाया। उसने भी बेझिझक कह दिया कि मुझे वोट चाहिए। जो भी आता है, मैं उसका काम कर देता हूं, पर इतना अवश्य कह देता हूं कि पकड़े जाओगे तो वे बचाने के लिए नहीं आएंगे।
यह एक उदाहरण है। पुलिस की कमिश्नरेट व्यवस्था में एक बड़ी कठिनाई यह भी है कि अगर कोई राजनेता यह चाहे कि किसी आरोपी या अपराधी को जमानत नहीं देनी चाहिए तो फिर कमिश्नरेट की कलम वहीं रुक जाती है। अदालत से उसे जमानत मिल जाए तो पुलिस को स्वीकार करना पड़ता है, पर राजनेताओं का आदेश उनके लिए सर्वोपरि हो जाता है। देश भर में थोड़े बहुत अंतर के साथ पुलिस के कार्य की संस्कृति या अपसंस्कृति एक जैसी है। जो ट्रक ड्राइवर देश के कई हिस्सों में माल लाने-पहुंचाने के लिए जाते हैं, उनसे ही पूछा जाए तो वे बता देते हैं कि किस प्रदेश में पुलिस ज्यादा तंग करती है। अफसोस है कि कुछ ट्रक ड्राइवरों ने पंजाब के विषय में यह कहा कि यहां सबसे ज्यादा कठिनाई है, इसके बाद उत्तर प्रदेश में। अभी पूर्वोत्तर की शिकायतें ज्यादा नहीं मिलीं।
क्या कोई एक सांसद शपथ लेकर यह कह सकता है कि उसके संसदीय क्षेत्र में पुलिस या प्रशासनिक क्षेत्र में कोई भी रिश्वत नहीं चलती है? पंजाब में ज्यादातर उन्हीं गाड़ियों को पुलिस रोकती, चालान करती या उनसे समझौता वार्ता करती है जो दूसरे जिलों या दूसरे राज्यों से आती हैं। यह अवश्य देखा गया कि जिस राजनेता का किसी पुलिस अधिकारी ने अनुचित आदेश नहीं माना, उसके विरुद्ध जलूस निकालते, नारे लगाते और उसका ट्रांसफर करने के लिए हाईकमान तक नाक रगड़ते हैं। एक पुलिस स्टेशन में एएसआई दुखी होकर आत्महत्या करता है, लेकिन मरने वाले को भी न्याय नहीं मिलता।
कौन नहीं जानता कि सरकारें चुनाव इन्हीं पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के बल पर लड़ती हैं। क्या यह नहीं हो सकता कि राजनेताओं का हस्तक्षेप पुलिस के कार्य से पूरी तरह खत्म हो जाए। क्या देश में रिश्वत खत्म नहीं हो सकती? क्या पुलिस द्वारा झूठे केस बनाने और मोटी रकम ऐंठने का धंधा बंद नहीं हो सकता?
देश के गृहमंत्री से भी मैंने यह निवेदन किया है कि पुलिस को पुलिस बनाइए। हर व्यक्ति को यह लगे कि पुलिस उसकी रक्षक है। यह भी कहा कि सभी सांसदों से पूछिए कि उनके क्षेत्र में किसी भी विभाग में रिश्वतखोरी तो नहीं है। शायद ऐसा कभी नहीं हो पाएगा। देश के संतों, कथावाचकों, धर्म गुरुओं से भी निवेदन है कि अभी हमें मोक्ष मुक्ति का रास्ता न बताएं, अपने सभी भक्तों, श्रोताओं, शिष्यों से यह पूछें कि उनके परिवारों में भ्रष्टाचार का धन तो नहीं आ रहा। देश उन्नति की राह पर अग्रसर भी है, पर आम आदमी शोषित है, डरा हुआ है और सरकारें, शासक, राजनेता मानें या न मानें यह सत्य है कि पासपोर्ट दफ्तरों के बाहर जो विदेश जाने वालों की चाह में लंबी लगी पंक्तियों में धक्के खा रहे हैं, वह भी भ्रष्ट तंत्र के कारण ही है।