इंद्रजीत सिंह
कुरुक्षेत्र में किसानों द्वारा हाल ही में हाईवे पर लगाए गए धरने को हर्षोल्लास के साथ उठा लिया गया जब प्रशासन ने मौके पर आकर सरकार की ओर से गिरफ्तार नेताओं की रिहाई और सूरजमुखी की खरीद करने का आश्वासन आंदोलनकारियों को दिया। यदि सरकार की सोच सही होती और वह खुद तय किए गए समर्थन मूल्य पर सूरजमुखी की खरीद कर लेती तो किसानों को भयंकर गर्मी में यह कदम नहीं उठाना पड़ता।
किसानों का जो आक्रोश पिछले दिनों सड़कों पर फूटा है वह ऊपरी तौर पर सूरजमुखी के रेट का विवाद लगता है। परंतु वास्तव में इसे किसानों में एकत्र गहरे असंतोष के परिणाम के रूप में देखा जाना चाहिए जो देशभर में और विशेषकर हरियाणा-पंजाब में बार-बार प्रकट हो रहा है। कुरुक्षेत्र जिला के शाहबाद में सूरजमुखी उत्पादक किसानों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की मांग करने पर गत छह जून को किये गए लाठीचार्ज और किसान नेताओं की गिरफ्तारी की घटना ने आग में घी का काम किया। इसके बाद बारह जून को कुरुक्षेत्र स्थित पीपली में महापंचायत में उमड़ा किसानों का हुजूम कृषि के गहराते संकट का स्पष्ट संकेत था। इस आयोजन में खास तौर से संयुक्त किसान मोर्चा व अन्य किसान संगठनों के वे चेहरे दिखाई दिये जिनकी अगुवाई में तीन कृषि कानूनों के खिलाफ 13 महीने लंबा सफल किसान आंदोलन चला था।
दरअसल, किसान आंदोलन में दूसरा बड़ा मुद्दा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी दिये जाने का था जोकि आज तक लंबित है और विभिन्न रूपों में सामने आ रहा है। इस मामले को संयुक्त किसान मोर्चा अब सर्वोच्च प्राथमिकता पर ले आया है। बता दें कि 9 दिसंबर, 2021 को केंद्र के जिस लिखित संदेश के उपरांत किसान आंदोलन स्थगित किया गया था उसमें एमएसपी मामले पर कमेटी गठित करने का आश्वासन था जिसे बाद में तरजीह न दिये जाने को किसान आंदोलन के नेतृत्व ने छल की तरह देखा। कालांतर में चरणबद्ध रूप में एमएसपी पर खरीद के सवाल बेशक अलग-अलग प्रदेशों में उठे परंतु यह राष्ट्रीय मुद्दा बनना तय है। सूरजमुखी खरीद के मुद्दे पर कुरुक्षेत्र में हुए आंदोलन का फिलहाल पटाक्षेप हो गया परंतु इसके निहितार्थ समझने जरूरी हैं।
उल्लेखनीय है कि केंद्र व राज्य सरकारें एक तरफ तो लगातार दावा करती हैं कि एमएसपी है और रहेगी वहीं दूसरी ओर जो फसल मंडी में आती है उसे खरीदा नहीं जाता। हाल में शाहबाद प्रकरण में सरकार के मुताबिक, सूरजमुखी का जो भाव मिल रहा है किसान उसी पर बेच दें और सरकार 1000 रुपये प्रति क्विंटल भावांतर के रूप में उनके खातों में डाल देगी। सूरजमुखी की निजी खरीद का रेट 4000 से 4800 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि एमएसपी 6400 रुपये है। एक हजार रुपये भावांतर मिल भी जाए तो करीब डेढ़ हजार रुपये प्रति क्विंटल घाटा किसान को होता है।
सूरजमुखी तिलहन की फसल है और इससे वनस्पति तेल निकलता है। कई दशकों से सरकार, कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि विभाग की ओर से किसानों को गेहूं-धान के फसल चक्र में बदलाव करने को प्रेरित किया जा रहा है। सूरजमुखी के अलावा मक्का आदि की फसलों पर भी जोर दिया जाता रहा।
कुरुक्षेत्र जिला और साथ लगते इलाके के किसानों ने सरकार की सिफारिशों पर सूरजमुखी, मक्का व अन्य कई फसलों को गेहूं-धान के स्थान पर अपनाया है। यहां सब्जी भी प्रमुख फसल है। सूरजमुखी से पहले ज़रा सब्जियों व मक्का की दशाzwnj; पर गौर करें।
कुछ माह पहले किसान का आलू मात्र 2 रुपये प्रति किलो पिट रहा था। प्याज की भी यही स्थिति हुई। आजकल कुरुक्षेत्र मंडी में मक्का फसल को सुखाया जा रहा है जिसका समर्थन मूल्य 2008 रुपये प्रति क्विंटल है इसके बावजूद मक्का 1000-1200 रुपये क्विंटल बिक रहा है। इसी तरह सरसों हरियाणा के कई जिलों में रबी की मुख्य फसल है। इसका समर्थन मूल्य 5450 रुपये क्विंटल था परन्तु 4000 रुपये खरीदी गई। विशेषज्ञों के आकलन के अनुसार, सिर्फ हरियाणा में ही इस सीजन में किसानों को सरसों में 20000 करोड़ रुपये घाटा हुआ। देश में खाद्य तेल की कुल खपत का 60 प्रतिशत विदेशों से आयात होता है। जाहिर है आयात कंपनियों को बेतहाशा मुनाफे हो रहे हैं। दूसरी ओर सरसों की औने-पौने दाम पर खरीद के बावजूद उपभोक्ताओं के लिए भी तेल सस्ता नहीं किया जाता। यह मात्र एक उदाहरण है। वहीं फसलों का लागत मूल्य बहुत तेजी से बढ़ता रहा है और भाव उसके अनुरूप नहीं बढ़ते। दरअसल कृषि लागत व मूल्य आयोग द्वारा विभिन्न फसलों के एमएसपी निर्धारण की मौजूदा प्रणाली दोषपूर्ण है। इसमें पूरे लागत मूल्य का आकलन नहीं किया जाता। इसके बजाय स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिशों के अनुरूप सी-2+50 फीसदी फार्मूले के आधार पर एमएसपी निर्धारण से किसानों को कुछ राहत प्राप्त हो सकती है। इस फार्मूला में लागत बढ़ने से समर्थन मूल्य भी बढ़ने का प्रावधान है।
फसल खरीद के रेट और उपभोक्ता के लिए खुदरा मूल्य में हैरान करने वाला अंतर है। नीतियों की बदौलत यह अंतर कहीं न कहीं कार्पोरेट के फायदे में लगता है। बेशक मुद्दे छोटे हैं लेकिन किसान आंदोलन राजनीतिक नेतृत्व से सवाल करेंगे कि वह उन नीतियों पर स्थिति स्पष्ट करें जो कृषि की दशा, बेरोजगारी, महंगाई और आर्थिक विषमता के लिए जिम्मेदार हैं। यह भी कि मौजूदा नीतियों के बजाय वे कौनसी नीतियों के पक्षधर हैं।