अनूप भटनागर
हमारी न्यायपालिका ने हाल के वर्षों में समलैंगिक और ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों को गरिमा के साथ जीने सहित अनेक नागरिक अधिकार प्रदान किये हैं। सवाल उठता है कि क्या भविष्य में सरकार ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों को सशस्त्र बल में सेवा के अवसर प्रदान करेगी। अगर सरकार ऐसा करती है तो क्या ट्रांसजेंडर के लिये सैन्य बलों से संबंधित कानूनों में तीसरे लिंग के रूप में एक अलग वर्ग बनाया जायेगा? जैसा कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो में जेल में बंद कैदियों के संबंध में किया गया है।
गृह मंत्रालय की इस दिशा में पहल के बावजूद यह सवाल उठने की वजह केरल की एक ट्रांसजेंडर छात्रा की याचिका है जो एनसीसी में पंजीकरण कराना चाहती है लेकिन संबंधित कानूनों में ट्रांसजेंडर के लिये कोई प्रावधान नहीं होने की वजह से वह इससे वंचित है। केन्द्र सरकार का तर्क है कि भारतीय सशस्त्र बल में ट्रांसजेंडर के प्रवेश के लिये कोई प्रावधान नहीं है। इस समय दो ही तरह की पुलिंग और स्त्रीलिंग डिवीजन होती है और तीसरे लिंग के लिये एक नयी डिवीजन गठित करना केन्द्र सरकार का विशेषाधिकार है।
यही नहीं, केन्द्र और एनसीसी ने यह भी दलील दी है कि जहां तक एनसीसी कैडेट के रूप में पंजीकरण का संबंध है तो इसके लिये सिर्फ वे छात्र ही पंजीकरण करा सकते हैं जो एनसीसी कानून, 1948 की धारा 6 में प्रतिपादित पात्रता को पूरी करते हों अर्थात सिर्फ पुलिंग और स्त्रीलिंग।
एनसीसी कानून, 1948 की धारा 6 (2) के अनुसार किसी भी विश्वविद्यालय या स्कूल की स्त्रीलिंग की डिवीजन में कोई भी छात्रा कैडेट के रूप में अपना पंजीकरण करा सकती है। अब सवाल ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्य के पंजीकरण का है तो केन्द्र सरकार ने केरल उच्च न्यायालय से कहा है कि प्राधिकारियों द्वारा विस्तार से विचार-विमर्श के बगैर पुरुष या स्त्रीलिंग श्रेणी से इतर किसी भी अभ्यर्थी को शामिल करने के गंभीर दूरगामी नतीजे होंगे।
इन नतीजों की ओर इशारा करते हुए यह तर्क दिया गया है कि ट्रांसजेंडर को एक कैडेट के रूप में पंजीकृत करने की अनुमति उसे सेवा चयन बोर्ड की परीक्षा में भी शामिल होने का अवसर प्रदान करेगी लेकिन इस समय भारतीय सशस्त्र बलों में ट्रांसजेंडर के प्रवेश के लिये कोई प्रावधान नहीं है।
इस मामले की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने एनसीसी में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के पंजीकरण के बारे में कोई नीति तैयार करने में विफल रहने के लिये केन्द्र सरकार की आलोचना भी की है। उच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई के दौरान बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी कि दुनिया ने तरक्की कर ली है और सरकार 19वीं सदी में ही नहीं रह सकती है। लेकिन इस दिशा में कोई भी कदम उठाने के लिये सबसे पहले भारतीय सशस्त्र बलों में ट्रांसजेंडरों के प्रवेश के लिये कानूनी प्रावधान करने की आवश्यकता होगी।
इस संबंध में उच्चतम न्यायालय के 2014 के फैसले का प्रमुखता से जिक्र किया जा रहा है, जिसमें ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को तीसरा लिंग घोषित करते हुए कहा गया था कि वे भी दूसरे नागरिकों को मिले सभी अधिकारों और सुविधाओं को प्राप्त करने के हकदार हैं। न्यायालय ने 2014 में एक फैसले में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को तीसरा लिंग घोषित करते हुए कहा था कि वे भी दूसरे नागरिकों को मिले सभी अधिकारों और सुविधाओं को प्राप्त करने के हकदार हैं।
इसी तरह, सितंबर, 2018 में न्यायालय ने एकांत में सहमति से समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर करते हुए कहा था कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को भी संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के तहत गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। न्यायालय की 2018 की व्यवस्था के बावजूद अभी भी हमारे देश में समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं है। स्थिति यह है कि इस तरह के कुछ समलैंगिक जोड़े इस समय अपने विवाह के पंजीकरण के लिये कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। कई समलैंगिक जोड़ों की याचिकाओं पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने केन्द्र से जवाब भी मांगा है।
लेकिन सामाजिक सोच में तेजी से हो रहे बदलाव को देखते हुए ऐसा लगता है कि दूसरे देशों की तरह ही भारत में भी देर-सवेर इस समुदाय के सदस्यों को सशस्त्र बलों में प्रवेश देने के बारे में सरकार को नीतिगत निर्णय लेना पड़ सकता है।
समलैंगिक और ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों के बारे में इस तरह की आशा करने की एक वजह न्यायालय की प्रगतिशील सोच है। इसी सोच का नतीजा है कि केन्द्र ने काफी ना-नुकुर के बाद न्यायालय के हस्तक्षेप करने पर केन्द्र द्वारा सेना और नौसेना में शार्ट सर्विस कमीशन की महिला सैन्य अधिकारियों को स्थाई कमीशन दिया है।