डॉ. वीरेन्द्र सिंह लाठर
भारत सहित दुनियाभर में किसान धान की लगभग 80 प्रतिशत पराली को जलाते हैं ज़िससे गंभीर वायु प्रदूषण फैलता है। इस वजह से हर साल भारत के घनी आबादी व औद्योगिक घनत्व वाले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अक्तूबर-नवम्बर महीनों में वायु की गति कम होने और ठंडी हवा आने के साथ वायु प्रदूषण समस्या गंभीर हो जाती है। इसके समाधान के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें वर्षों से हजारों करोड़ रुपये व्यय करती आ रही हैं लेकिन कामयाबी नहीं मिली।
दरअसल, देश के उत्तर पश्चिम मैदानी क्षेत्र में हरित क्रांति के दौर में (1967-1975) नीति-नियंताओं द्वारा प्रायोजित धान-गेहूं फसल चक्र ने पिछले पांच दशकों से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और लगभग एक लाख करोड़ रुपये वार्षिक निर्यात को तो सुनिश्चित किया, लेकिन भूजल बर्बादी, पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्या को बढ़ाया। फसल विविधीकरण के सभी सरकारी प्रयासों के बावजूद धान-गेहूं फसल चक्र पंजाब, हरियाणा व पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि में लगभग 70 लाख हेक्टेयर भूमि पर अपनाया जा रहा है। इस क्षेत्र में मौसम इनके अनुकूल है वहीं गन्ने की खेती के अलावा धान-गेहूं किसानों के लिए ज्यादा फायदेमंद है।
उत्तर पश्चिम भारत के प्रदेशों में धान-गेहूं फसल चक्र में लगभग 40 क्विंटल फसल अवशेष प्रति एकड़ पैदा होते हैं जिसमें से आधे यानी 20 क्विंटल गेहूं भूसे का प्रबंधन खास समस्या नहीं है, क्योंकि पशुचारे के रूप में भूसा उपयोगी है वहीं अगली फसल बुआई की तैयारी के लिए करीब 50-60 दिन मिलने के कारण किसान भूसे का प्रबंधन आसानी से कर लेते हैं। लेकिन बाकी आधे फसल अवशेष यानी धान पराली का प्रबंधन किसानों के लिए गंभीर समस्या है क्योंकि पराली आमतौर पर चारे के लिए उपयोगी नहीं। वहीं अगली फसल की बुआई की तैयारी में 20 दिन से भी कम समय मिलता है। ऐसे में, धान कटाई के बाद पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में भारी मात्रा में किसान पराली जलाते हैं। ज़िससे अक्तूबर-नवंबर में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सहित जम्मू से कोलकाता तक बड़े क्षेत्र में वायु प्रदूषण समस्या पैदा होती है। इससे भूमि की उर्वरा शक्ति भी प्रभावित होती है।
पराली जलाने की घटनाओं को रोकने के लिए पिछले कुछ वर्षों से प्रदेश सरकारें व वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग, किसानों पर जुर्माना लगाने, बायो-डीकंपोजर से पराली गलाने, जैसे प्रयास कर रही हैं ज़िनके अभी तक सार्थक परिणाम नहीं मिले। पूसा डीकंपोजर के प्रायोजक पूसा संस्थान का मानना है कि डीकंपोजर घोल के छिड़काव से 25 दिन बाद पराली कुछ नरम तो होती है, लेकिन इसे पूरी गलने के लिए करीब 50 दिन चाहिए और बायो-डीकंपोजर मशीनों से पराली प्रबंधन का विकल्प नहीं बन सकता है। वहीं पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा किये गये अनुसंधान बताते हैं कि बायो-डीकंपोजर छिड़काव से खास लाभ नहीं जबकि गहरी जुताई कर पराली भूमि में दबाने और खेत में नमी बनाए रखने से, बिना बायो-डीकंपोजर भी पराली 7 सप्ताह में ही गल जाती है।
धान पराली व फसल अवशेष प्रबंधन पर सभी अनुसंधान और तकनीकी रिपोर्ट एकमत हैं कि मशीनों द्वारा फसल अवशेषों को खेत से बाहर निकाल कर उद्योगों में इस्तेमाल करना सर्वोत्तम समाधान है जैसा कि अमेरिका आदि देशों में हो रहा है। लेकिन भारत में छोटी जोत होने से किसान भारी मशीनें नहीं ख़रीद सकते हैं। ऐसे में पराली को भूमि में मिलाना ही व्यावहारिक उपाय है। यह तभी सम्भव है जब पराली को दबाने और गलाने के लिए 45-50 दिन मिल सकें।
कृषि वैज्ञानिकों और नीतिकारों को उत्तर पश्चिम भारत के लिए, धान की खेती के लिए किसान और पर्यावरण हितैषी नयी तकनीक और बुआई कलेंडर आदि विकसित करने होंगे। ऐसे में धान की सीधी बिजाई पद्धति में कम अवधि वाली किस्में कारगर समाधान है।
धान कटाई के बाद रबी फसलों गेहूं, सरसों आदि की बुआई की तैयारी के लिए कम समय मिलने के कारण ही किसान मजबूरन पराली जलाते हैं। इसके लिए धान की सीधी बिजाई पद्धति में कम अवधि वाली धान किस्मों (पीआर-126, पीबी-1509 आदि) को प्रोत्साहन एक कारगर उपाय साबित होगा। वहीं लम्बी अवधि वाली किस्मों पर प्रतिबंध ज़रूरी है। ज़िसमें धान की बुआई 20 मई से शुरू हो कर कटाई 30 सितम्बर तक हो जाती है। रोपाई के बजाय सीधी बिजाई में धान की सभी किस्में 10 दिन जल्दी पक जाती हैं। ऐसे में गेहूं की बुआई से पहले किसान को लगभग 45-50 दिन धान पराली प्रबंधन के लिए मिलते हैं। जिसका सदुपयोग करके फसल चक्र के बीच हरी खाद के लिए ढेंचा, मूंग आदि उगा सकते हैं। इससे पराली जलाने से होने वाले पर्यावरण प्रदूषण में कमी आयेगी, भूमि की उर्वरा शक्ति बनाए रखने में मदद मिलेगी और रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता भी कम होगी।
सरकार इन प्रदेशों में अगर धान की सरकारी खरीद की समय सारणी 15 सितम्बर से 10 अक्तूबर तक तय करे, तो किसान धान की सीधी बिजाई पद्धति में कम अवधि वाली धान किस्मों को ही अपनायेंगे। इससे लगभग एक-तिहाई भूजल, ऊर्जा और लागत में बचत के साथ प्रदूषण भी कम होगा। इस वर्ष खरीफ 2023 सीजन में, हरियाणा में धान की सीधी बिजाई प्रोत्साहन योजना के सकारात्मक नतीजे के कारण, प्रदेश के किसानों ने तीन लाख एकड़ से ज्यादा भूमि पर सीधी बिजाई विधि को अपनाया। जो इस पर्यावरण हितैषी विधि में किसानों के विश्वास को दर्शाता है।