पंकज चतुर्वेदी
बीते तीन साल में सौ करोड़ खर्च हो गए, लेकिन हर बारिश के साथ दुनिया में मशहूर औद्योगिक शहर गुरुग्राम की जलभराव की समस्या गहराती जा रही है। इस साल तो गुरुग्राम एक दर्जन बार शहर में पानी भरने के कारण बेहाल हो चुका है। मामला केवल गुरुग्राम का नहीं है; यहां काम करने के लिए आने-जाने वाले पूरे दिल्ली एनसीआर के लोग प्रभावित होते हैं। चौड़ी सड़कों, गगनचुंबी इमारतों और दमकती रोशनी के बावजूद, थोड़ी-सी बारिश के बाद पानी का ठहराव और जाम लाचारी की स्थिति पैदा कर देते हैं। हर बार कई घंटे के जाम के कारण गुरुग्राम को कई सौ करोड़ का घाटा उठाना पड़ता है। सबसे बड़ी बात, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का इस शहर के प्रति विश्वास डगमगाता जा रहा है, जो कि चिंता का विषय है।
बीते एक दशक में गुरुग्राम में ढेर सारे फ्लाई ओवर, अंडर पास, चौड़ी सड़कें बनीं, लेकिन इंद्र की थोड़ी-सी कृपा इंजीनियरों के तकनीक कौशल पर कालिख पोत देता है। इसके ठीक विपरीत बूंद-बूंद पानी को तरसने वाले गुरुग्राम वासी बरसात की आशंका से ही कांप जाते हैं। इस साल जल भराव के कारण कोई ग्यारह बार गुरुग्राम में कई-कई किलोमीटर लंबा जाम लग चुका है। महकमे इसके निदान के लिए और अधिक निर्माण करने की सिफारिश करते हैं लेकिन इस समस्या के मूल में प्रकृति से छेड़छाड़ पर बात करने से बचते हैं। अचानक तेज और अप्रत्याशित बरसात हो जाना या फिर नाले-सीवर साफ न होना जैसे कारण तो देश के हर शहर को बरसात में लज्जित कर ही रहे हैं, लेकिन गुरुग्राम के डूबने का असल कारण तो यहां के कई नदी-नालों को गुम कर वहां कंक्रीट का जंगल खड़ा करना है।
असल में इस जल जमाव व उससे उपजे जाम का कारण गुरुग्राम की बेशकीमती जमीन और उसको हड़पने के लोभ में कब्जाई गई वे जमीनें हैं जो असल में अधिकतम बरसात में भी पानी को अपने में समा कर नजफगढ़ झील तक ले जाने का प्राकृतिक रास्ता हुआ करती थीं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में यमुना नदी के बाद सबसे बड़े जल क्षेत्र को हमने कुछ ही दशकों में सुखा दिया और उस पर सीमेंट के जंगल रोप दिए, फिर जो लोग बसे उनके घर व रोजगार के ठिकानों से निकला गंदा पानी भी इसमें ही जुड़ता गया। अब सरकार खुद कहती है कि वह झील या ‘वाटर बॉडी’ थोड़े ही है, वह तो महज बारिश आने पर जमा पानी का गड्ढा है। यह दर्दनाक कथा है कभी दिल्ली ही नहीं देश की सबसे बड़ी झील, जल-क्षेत्र और वेट लैंड की। नजफगढ़ झील को कब्जा कर सिकोड़ते हुए दिल्ली का विस्तार करने वाले यह भूल चुके थे कि अब जो उनकी बस्ती में पानी भर रहा है, असल में वह झील का अपना भंडार है न कि उनकी रजिस्ट्री करवाई जमीन।
डेढ़ दशक पहले तक एक नदी हुआ करती थी- साहबी या साबी नदी। जयपुर जिले के सेवर की पहाडि़यों से निकल कर कोटकासिमत होते हुए धारूहेड़ा के रास्ते। बहरोड़, तिजारा, पटौदी, झज्जर के रास्ते नजफगढ़ झील तक आती थी यह नदी। इस नदी का प्रवाह नए गुरुग्राम में घाटा, ग्वालपहाड़ी, बहरामपुर, मेरावास, नगली होते हुए बादशाहपुर तक था। कई जगह नदी का पाठ एक एकड़ तक था। आश्चर्य है कि इस नदी का गुरुग्राम की सीमा में कोई राजस्व रिकार्ड ही नहीं रहा। अभी 10 साल पहले हरियाणा विकास प्राधिकरण यानी हूडा ने नदी के जल ग्रहण क्षेत्र को आर जोन में घोषित कर दिया। इससे पहले यहां नदी के ‘रीवर बेड’ की जमीन कुछ किसानों के नाम लिखी थी। आर जोन में आते ही पचास लाख प्रति एकड़ की जमीन बिल्डरों की निगाह में आई और इसके दाम पंद्रह करोड़ एकड़ हो गये। जहां नदी थी, वहां सेक्टर 58 से लेकर सेक्टर 65 की कई कालोनियां व बहुमंजिला आवास तन गए। बरसात तो पहले भी होती थी और उसका पानी इस नदी के प्रवाह के साथ नजफगढ़ के विशाल जल-क्षेत्र में समा जाता था।
थोड़ी-सी बरसात में ही गुरुग्राम के पानी-पानी होने और और फिर सालभर बेपानी रहने का असल कारण केवल साबी नदी का लुप्त होना मात्र नहीं है, जमीन के लालच में कई महत्वपूर्ण नाले भी समाज गटक गया। डीएलएफ फेज तीन से सिकंदरपुर, सुचाराली से पालम विहार और बादशाहपुर से खाडसा होते हुए नजफगढ़ वाला नाला या साबी नदी का हिस्सा भी गुम हो गया। अब इन तीनों की ही जल-ग्रहण क्षमता कई हजार घन मीटर जल की थी। दिल्ली-गुुरुग्राम अरावली पर्वतमाला के तले है और अभी सौ साल पहले तक इस पर्वतमाला पर गिरने वाली हर एक बूंद ‘डाबर’ में जमा होती थी। ‘डाबर’ यानी उत्तरी-पश्चिम दिल्ली का वह निचला इलाका जो कि पहाड़ों से घिरा था। इसमें कई अन्य झीलों व नदियों का पानी आकर भी जुड़ता था। इस झील का विस्तार एक हजार वर्ग किलोमीटर हुआ करता था जो आज गुरुग्राम के सेक्टर 107, 108 से लेकर दिल्ली के नए हवाई अड्डे के पास पप्पनकलां तक था। इसमें कई प्राकृतिक नहरें व सरिता थीं, जो दिल्ली की जमीन, आबोहवा और गले को तर रखती थीं।
आज दिल्ली के भूजल के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक बना नजफगढ़ नाला कभी जयपुर के जीतगढ़ से निकलकर अलवर, कोटपुतली, रेवाड़ी व रोहतक होते हुए नजफगढ़ झील व वहां से दिल्ली में यमुना से मिलने वाली साबी, साहिबी या रोहिणी नदी हुआ करती थी। इस नदी के जरिये नजफगढ़ झील का अतिरिक्त पानी यमुना में मिल जाया करता था। सन् 1912 के आसपास दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में बाढ़ आई व अंग्रेजी हुकूमत ने नजफगढ़ नाले को गहराकर उससे पानी निकासी का जुगाड़ किया था। उस दौर में इसे नाला नहीं बल्कि ‘नजफगढ़ लेक एस्केप’ कहा करते थे।
इस संकट से जूझने के लिए प्रकृति की तरफ लौटना और कुदरत के प्रति अपनी गलतियों को सुधारना ही निदान होगा, न कि और निर्माण कर देना।