मैं अक्सर महसूस करता हूं कि हमारे इर्द-गिर्द फैली नकारात्मकता हमारी सकारात्मकता एवं रचनात्मक जीवन-ऊर्जा को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। कई बार कुटिलता और निराशावाद हमारी चेतना को घेरने लगता है। हम व्यग्र हो उठते हैं, हम गुस्सैल हो जाते हैं और हम तार्किक रूप से दलील और संवाद करने की समझ खो बैठते हैं। वास्तव में, विषैली बनी संस्कृति, जो कि टूट चुके अथवा विकृत संवादों एवं संलग्न भौतिक-प्रतीकात्मक हिंसा की वजह से बुरी तरह ध्रुवीकृत हो चुके सामाजिक-राजनीतिक माहौल को दर्शाती है, शक्तिशाली रूप से व्याप्त है।
गुस्सैल परम-राष्ट्रवाद और धार्मिक कट्टरवाद का जश्न मनाना, राजनीतिक दंभ जाहिर करना और सोशल मीडिया से फैलाए जाने वाले गाली-गलौज़ भरे नकारात्मक स्पंदनों का निरंतर प्रवाह हमें अंधेरी दुनिया में धकेल रहा है – वह संसार जिसमें स्नेह, प्रेम, सुनने-समझने की कला नदारद है। हमारे आसपास हर कोई– टेलीविज़न के न्यूज़ एंकरों से लेकर पड़ोसियों तक या वे लोग जो सोशल मीडिया पर प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना पर बिना आगा-पीछा जाने त्वरित टिप्पणियां करते हैं या फिर विद्यालय-कॉलेज के प्रधानाचार्य-उपकुलपति तक– लगता है सब गुस्से से भरे, अड़ियल, ‘दुश्मनों’ से लड़ने, उन्हें हराने या निपटने जैसी विषैली सोच से ग्रस्त हैं।
हमारे दोस्त बेगाने बन गए हैं, यहां तक कि परिवार के सदस्यों के बीच नैसर्गिक बोलचाल लगातार मुश्किल बनती जा रही है। प्रेम तो मानो एक बुरा शब्द हो और नफरत एवं गुस्सा नया सामान्य चलन, और परम-मर्दानगी दिखाने एवं आत्ममुग्धता के बीच विनम्रता तो जैसे कमजोरी की निशानी हो। सवाल यह है कि क्या इस मानसिक व्याधि, सांस्कृतिक ह्रास और अत्यंत गुस्से अथवा व्यग्रता से खुद को बचाए रखना संभव है। यही वो घड़ियां हैं जब मुझे लगने लगता है कि चुप रहना और व्याप्त माहौल पर प्रतिक्रिया न देना ही श्रेयस्कर है।
तथापि, पलायनवाद कोई उत्तर नहीं है। जो प्रश्न मुझे और कई अन्यों को सालता है कि क्या इस हिंसा एवं कुटिलता भरे युग में बने रहकर भी आशा, अक्लमंदी एवं जीवन-पुष्ट कृत्यों से अपनी सकारात्मकता को बचाए रखना संभव है। हालांकि, जैसा कि कई लोग दलील देंगे, सकारात्मक बने रहना लगातार मुश्किल होता जा रहा है, सामूहिक अक्लमंदी के लिए हमें यत्न करने की जरूरत है। और यह तभी संभव है जब हमें ‘स्व:’ और दुनिया के बीच संबंध से जुड़ी गतिशीलता का अहसास हो।
काफी ढांचागत कमियों के बावजूद हमारी रचनात्मकता का महत्व है। व्यवस्था हमारे प्रयत्नों, हमारी नेक-नीयत योजनाओं और अर्थपूर्ण कृत्यों के बिना नहीं बदल सकती। इसलिए, भले ही यह दुनिया राजनीतिक रूप से संयोजित और ध्रुवीकृत कर दी जा चुकी है, जिसमें हमारी सोच में किसी को देखने-समझने का नज़रिया केवल दो वर्गों में रखकर करना सिखा दिया गया है (हिंदू या मुसलमान, देशभक्त या देशद्रोही, आस्तिक या धर्मनिरपेक्ष नास्तिक), क्या यह संभव है कि हम इस एकांगी दृष्टिकोण के बिना बौद्धिक स्पष्टता, ऐतिहासिक खोज एवं सूक्ष्म समझदारी से चीज़ें देख पाएं।
इस संदर्भ में, हम गांधी और टैगोर को याद करें। गांधी का बतौर हिंदू किया गया धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रयोग उन्हें अन्य धार्मिक संप्रदायों से राजनीतिक-आध्यात्मिक सामंजस्य बनाने से नहीं रोकता था। यह वह रचनात्मक बोध था जिसने उन्हें भेदभाव एवं घृणा की मानसिकता से परे देखना सिखाया और अहिंसा के जरिए वैकल्पिक राजनीति के बीज बोए। अपनी इस राजनीतिक एवं जीवन-शैली के जरिए गांधी धर्मनिरपेक्षता बनाम अध्यात्म के दोगलेपन से ऊपर उठ गए। सौहार्द्र बनाने की उनकी आध्यात्मिक खोज ने उन्हें सच्चा बहु-धार्मिक एवं बहु-सांस्कृतिक भारत बनाने को प्रेरित किया, यहां तक कि उस समय भी जब विभाजन का झटका जवाबी साम्प्रदायिक नफरत और हिंसा को सामान्य प्रतिक्रिया ठहरा रहा था।
इसी प्रकार टैगोर ने भारत की परिकल्पना बतौर संस्कृति का महासागर से की थी और वे परम-राष्ट्रवाद में अंतर्निहित हिंसा की संभावना से सदैव असहज रहे। उनका साहित्यिक अथवा सांस्कृतिक कार्य इस प्रेम एवं वसुधैव-कुटुम्बकम् की चाहना से उपजा। क्या इस विषैले समय में गांधी और टैगोर की पुनः खोज, उनकी रचनात्मकता से सीखना, फूट डालने वाली राजनीति में अंतर्निहित स्वार्थ से पार पाना और हमारे जख्मी हुए स्वः को फिर से ठीक करना संभव है।
छोटी-छोटी चीज़ें भी मायने रखती हैं। इसलिए हमें बेहतर दुनिया बनाने में अपने नन्हे लेकिन नेकनीयत प्रयासों को कमतर न समझना होगा। ई.एफ. शूमाकर के दार्शनिक शब्दों में कहें तो ‘लघु किंतु सुंदर’। क्रांति के लिए जरूरी नहीं कुछ विशाल और दर्शनीय हो, ऐसा कोई जादूगर नहीं जो इसको पैदा कर सके। यह तो केवल साधारण और अर्थपूर्ण कृत्यों से होती है, जो हमें रोजमर्रा की वास्तविकता में प्रोत्साहित करे।
एक अध्यापक जो बहु-सांस्कृतिक परिवेश से आए छात्रों की कक्षा में दलील, संवाद और एक-दूसरे से सीखने की संस्कृति सिखाए, एक चिकित्सक जो दंगाग्रस्त इलाके में जाए और घायलों का इलाज बिना धार्मिक पहचान देखे करे, या एक सामाजिक कार्यकर्ता जो स्कूल में विद्यार्थियों की कार्यशाला आयोजित करे और उन्हें अपनी बहु-सांस्कृतिक विरासत को याद रखना सिखाए– यह सब छोटे किंतु अर्थपूर्ण प्रयास हैं जिनका सामाजिक बदलाव लाने में योगदान बहुत बड़ा है।
आशा पर अमल या एंटोनियो ग्रैमस्की के शब्दों में ‘इच्छाशक्ति का आशावाद, कोई दिन में सपने देखने जैसा नहीं है, इसकी बजाय यह तो उपचारक है और हमें विवेकशील संस्कृति बनाने के लिए जीवन-पुष्ट कार्यों में शामिल होने में सहायक है।’ भारत का भविष्य उस नई पीढ़ी पर निर्भर है जो वर्तमान विषैले सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में बड़ी हो रही है। इसलिए बतौर अध्यापक मैं महसूस करता हूं कि आशा के अंकुर और विचार का प्रसार करना महत्वपूर्ण है।
क्या हम अपने बच्चों को हिंसात्मक, अकर्मण्य, गरियाते नारे लगाने वाले परपीड़क और अपने ‘दुश्मनों’ की तलाश में लगे गिरोह की तरह बड़े होते देखना चाहते हैं? क्या हम उन्हें गैर-जिम्मेदार राजनीतिक वर्ग द्वारा दिए तमाम किस्म के भड़काऊ भाषणों से विषैले बनाना चाहते हैं? या फिर हम उनका विकास बतौर एक बौद्धिक रूप से जाग्रत और विवेक संपन्न नागरिक करना चाहेंगे, जिसके भीतर प्रेम की भावना और सहकार हो? यदि हम खामोश रहे और उन्हें दुर्जनों की भंगिमाओं और उनकी दुष्प्रचारक मशीनरी से बहने से नहीं रोक पाए तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा। हम उन्हें केवल सकारात्मक एवं जीवन-पुष्ट कृत्यों से प्रेरित कर सकते हैं।
लेखक समाजशास्त्री हैं।