आठ साल का बच्चा, गोद में दो साल के भाई का शव! पिता शव ले जाने के लिए सस्ता वाहन ढूंढ़ रहे, क्योंकि एम्बुलेंस कम पैसे में मिल नहीं रही! मुरैना के अम्बाह की यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुई! लोग टिप्पणी कर रहे हैं, पर उस वक्त इस घटना को देखकर भी अनदेखी करने वाले तब कहां थे। दरअसल, ये हमारी संवेदनाओं के भोथरा होने का चरमोत्कर्ष है! अब ऐसे दृश्य देखकर दिल नहीं कचोटता, पर सोचिए उस 8 साल के बच्चे के दिल पर डेढ़ घंटे क्या गुजरी होगी! जिस भाई का शव गोद में लेकर वो बैठा था, उसके साथ उसकी कई यादें जुड़ी होंगी। अपनी उम्र से कहीं ज्यादा बोझ दिल पर लिए वो मासूम अपने पिता की लाचारी व दुनिया से मदद की उम्मीद के लिए देख रहा होगा!
दरअसल, यह घटना लोकतांत्रिक व्यवस्था और समाज दोनों की कलई खोलती है। ऐसी खबरें मीडिया की सुर्खियां बनीं, लेकिन मजाल है कि कोई व्यक्ति मदद के लिए आगे आया हो! तकरीबन डेढ़ घंटे तक ये छोटा बच्चा अपने भाई की लाश को लिए बैठा रहा। बाद में पुलिसवाले ने दरियादिली दिखाई और बच्चे की लाश को घर भेजा। वैसे यह कोई देश की पहली और आख़िरी द्रवित करने वाली तस्वीर नहीं, लेकिन मानवीय मूल्यों के क्षरण और तंत्र से उठते विश्वास की यह एक बड़ी बानगी है जिस पर सवाल उठने लाजिमी हैं। आज हम बड़ी-बड़ी इमारतों पर इतराते हैं। मानव सभ्यता अपने विकास के शीर्ष पर होने को लेकर इठलाती है, लेकिन इन बुलंदियों के बाद भी जब हम मानवीय स्तर और संवेदनाओं की बात करते हैं। फिर एक इंसान के रूप में अपने आपको सबसे निचले स्तर पर पाते हैं।
विचारणीय प्रश्न है कि घटना के वक्त मासूम बच्चे की मनोस्थिति क्या होगी? उसके कोमल मन में भी इन दृश्यों को देखकर सवाल तो कई उठे होंगे? आख़िर वह उसका अपना ही छोटा भाई था। वीडियो में जो दिख रहा है उसके अनुसार, मुरैना में 8 साल का मासूम अपने 2 साल के भाई की लाश गोद में लेकर बैठा रहा। सफेद कपड़े से ढकी लाश पर मक्खियां भिनभिना रही हैं। बड़ा भाई मक्खियां उड़ाता फिर मदद की उम्मीद में इधर-उधर नजरें दौड़ाता। यह सब डेढ़ घंटे तक चलता रहा। उसका दिल छोटे भाई की मौत से भारी दिख रहा है। गोद नन्ही, लेकिन सबसे वजनी लाश से भारी हुई मालूम पड़ती है। निस्संदेह ऐसे दृश्य देखकर हर संवेदनशील व्यक्ति की रूह कांप सकती, लेकिन यह तेज़ी से भागता समाज और विकास की गौरव-गाथा गाती लोकतांत्रिक सरकारों को उससे फ़र्क़ कहां पड़ा! तभी तो 1500 रुपये न होने की वज़ह से एक पिता अपने मृत बेटे की लाश गंतव्य तक ले जाने के लिए मशक्क़त करता रहा, लेकिन उसे फौरी रूप से न लोकशाही व्यवस्था से कोई मदद मिली और न सामाजिक स्तर पर। वो भला हो उन पुलिसकर्मियों का, जिनकी वज़ह से बच्चे की लाश को ले जाने के लिए गाड़ी मिल सकी, वरना मानवता और मानवीय मूल्य सड़क पर ही दम तोड़ चुके बच्चे की भांति अपनी अंतिम सांसें गिन रहे थे।
एक पिता के लिए कितना मुश्किल वक्त रहा होगा। अपने ही कलेजे के टुकड़े की मौत होना। उस मौत पर दो आंसू भी न बहा पाना और गरीबी, लाचारी में मदद की गुहार लगाना। ऐसे में एक बात स्पष्ट है कि दर्द तो उस पिता को भी हुआ होगा, लेकिन विडंबना देखिए कि गरीबी के पीछे अपने दर्द को छुपा लिया। हमारा समाज भी बड़ा निर्दयी हो गया है। यहां संवेदनाएं भी अब हैसियत देखकर जाहिर की जाने लगी हैं। बड़े आदमी का कुत्ता भी बीमार हो जाए तो उसकी सुर्खियां बन जाती हैं, लेकिन एक गरीब का दर्द किसी को नजर नहीं आता। आज की युवा पीढ़ी में समय के साथ परिवर्तन जरूर आ गया है। किसी भी घटना का वीडियो बनाओ और उसे सोशल मीडिया पर वायरल कर दो। ताकि लोग उस वीडियो को लाइक कर सकें। उस पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकें। ज्यादा हुआ तो गुस्सा ज़ाहिर कर दें। लेकिन सवाल यही है कि जब ऐसी घटना घटती है तो मदद के लिए कोई क्यों आगे नहीं आता है।
पिता की तो अपनी मजबूरी थी जो उसने अपने दर्द को गरीबी के पीछे छुपा लिया पर उस मासूम बच्चे का क्या कसूर था जो उसे अपने ही भाई की लाश को गोद में लिए बैठना पड़ा। वो भी उस आस में कि कोई आए और उसके पिता की मदद कर सके। वह अपने छोटे भाई को घर ले जा सके। अपने मन को समझा सके कि अब उसका छोटा भाई इस दुनिया में नहीं रहा है। आज मानव संवेदनाएं भी सरकारी तंत्र की तरह हो गई हैं जिसे न कुछ दिखाई देता है न सुनाई देता है। बात रहनुमाई व्यवस्था की करें तो उसके लिए यह घटना शायद मायने ही न रखे क्योंकि गरीब का दर्द सरकार को न ही सुनाई देता है और न ही दिखाई देता है। उसके लिए तो मानो उनकी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है। ऐसे में जिस दिन हमारी रहनुमाई व्यवस्था गरीब का दर्द समझ जाएगी उस दिन सही मायनों में देश विकास की बुलंदियों को छू लेगा।