भरत झुनझुनवाला
आज से 200 वर्ष पूर्व विश्व की आय में भारत का हिस्सा 25 प्रतिशत था और चीन का 33 प्रतिशत। 200 वर्षों के बाद भारत का हिस्सा घटकर 1 प्रतिशत रह गया था और चीन का मात्र 2 प्रतिशत। 1950 के बाद विश्व आय में लगभग दोनों ही देशों के हिस्सों में वृद्धि हुई है और आज विश्व की लगभग 4 प्रतिशत आय भारत में होती है और 15 प्रतिशत चीन में जबकि अमेरिका में 25 प्रतिशत। भारत और चीन ने अपना हिस्सा बढ़ाया है, यह इनकी उपलब्धि है।
लेकिन यदि हम जनसंख्या के अनुपात में देखें तो परिस्थिति अलग बनती है। यदि विश्व की आय 10,000 रुपये है तो उसमें भारत का हिस्सा 400 रुपयेे और अमेरिका का 2,500 रुपयेे बैठता है। इसके सामने भारत की जनसंख्या 133 करोड़ है जबकि अमेरिका की 36 करोड़। इसलिए प्रत्येक भारतीय नागरिक को विश्व आय में 3 रुपयेे मिलते हैं तो अमेरिका के नागरिक को 70 रुपयेे। यानी अमेरिकी नागरिक की आय भारतीय नागरिक की तुलना में लगभग 23 गुना अधिक है। आज विश्व अर्थव्यवस्था की मूल विसंगति यह है कि भारत जैसे बहुसंख्यक देश की प्रति व्यक्ति आय अमीर देशों की तुलना में बहुत ही कम है। इस परिप्रेक्ष्य में हमें तय करना है कि हमारे लिए चीन के साथ दोस्ती लाभप्रद रहेगी अथवा अमेरिका की।
यह सर्वमान्य है कि वर्तमान में तकनीक के क्षेत्र में अमेरिका अग्रणी है। पिछले 100 वर्षों में सभी महत्वपूर्ण तकनीकी अाविष्कार अमेरिका में ही हुए हैं। जैसे परमाणु रिएक्टर, जेट हवाई जहाज और इंटरनेट। लेकिन अमेरिका की यह अगुआई अब चीन के सामने फीकी पड़ रही है। वर्ष 2019 में अमेरिका ने वर्ल्ड इन्टेलेक्टुअल प्रापर्टी आर्गेनाइजेशन में 58 हजार पेटेंट की अर्जियां दाखिल कीं जबकि चीन ने 59 हजार। इनकी तुलना में भारत ने केवल 30 हजार अर्जियां दाखिल कीं। इससे स्पष्ट होता है कि अब तक अमेरिका की जो भी तकनीकी महारत रही हो, आज वह चीन के सामने कमजोर पड़ रही है और चीन समेत भारत के दर्जे में सुधार आ रहा है।
अपने दोस्त का चयन करने में एक बिंदु उच्च तकनीकों को हासिल करने का है। इसमें कोई संशय नहीं कि बीते समय में अमेरिका या उसके सहयोगी देशों जैसे कोरिया या जापान से हमें तमाम तकनीकें मिली हैं। जैसे कार बनाने की तकनीक हमें अमेरिका की जनरल मोटर्स, कोरिया की हुंडई और जापान की सुजुकी से मिली है। लेकिन हमें इन तकनीकों को हासिल करने के लिए रायल्टी भी भारी मात्रा में देनी पड़ी है। यही कारण है कि नयी तकनीकें हासिल करने के बावजूद आज भी हमारा विश्व आय में हिस्सा 4 प्रतिशत पर टिका हुआ है; जबकि चीन ने इन आधुनिक तकनीकों को स्वयं बनाकर विश्व आय का 15 प्रतिशत हिस्सा हासिल कर लिया है। इसलिए अमेरिका से मिली तकनीकों का आर्थिक लाभ कितना हुआ, यह स्पष्ट नहीं है। दूसरी तरफ चीन से भी नयी तकनीकें मिलना कठिन दिखता है क्योंकि चीन की प्रवृत्ति तकनीकों को गुप्त रखने की है। अतः हमें अमेरिका और चीन दोनों से ही आधुनिक तकनीकें मिलने की लाभप्रद संभावनाएं नगण्य हैं। हमारे पास एकमात्र विकल्प यह है कि हम नयी तकनीकों को स्वयं विकसित करें। अतः तकनीक के स्तर पर अमेरिका और चीन की स्थिति वर्तमान में लगभग बराबर बैठती है।
विषय का दूसरा पहलू इन दोनों देशों के सामरिक चरित्र का है। पिछले 100 वर्षों में अमेरिका ने निम्न युद्ध किये हैं : 1950 में कोरिया, 1953 लाओस, 1958 लेबनान, 1961 क्यूबा, 1965 वियतनाम, 1965 डोमेनिकन रिपब्लिक, 1969 कम्बोडिया, 1983 ग्रेनाडा, 1986 लीबिया, 1989 पनामा, 1990 कुवैत, 1992 सोमालिया, 1992 बोसनिया, 1994 हेती, 1998 कोसोवो, 2001 अफगानिस्तान, 2003 इराक, 2007 सोमालिया, 2011 पुनः लीबिया, 2011 युगांडा, 2014 सीरिया, 2015 यमन एवं 2015 में पुनः लीबिया। इस प्रकार अमेरिका ने अपनी सरहद से दूर पिछले 100 वर्षों में 23 युद्ध किये हैं। अमेरिका की अपने पड़ोसी मेक्सिको से सरहद पर मामूली झड़प हुई थी, जिसको शीघ्र निपटा दिया गया था। इनकी तुलना में चीन ने 1950 में तिब्बत, 1950 कोरिया, 1959 वियतनाम, 1962 भारत, 1969 रूस, 1979 वियतनाम और 2020 पुनः भारत से आंशिक युद्ध; कुल 7 युद्ध किये हैं और सभी सरहद से लगे हुए मामलों पर हुए हैं। भारत को छोड़कर बाकी सभी युद्ध विवादों को चीन ने सुलझा दिया है। अतः यदि हम विस्तृत दृष्टि अपनाएं तो स्पष्ट है कि अमेरिका का चरित्र दूर के दूसरे देशों में प्रवेश करके युद्ध करने का है जबकि चीन का चरित्र अपनी सरहद पर युद्ध कर उसे निपटने का है। यह भी ध्यान रखना होगा कि अमेरिका के हमारे ऊपर महान उपकार भी हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विन्सेंट चर्चिल अमेरिका की यात्रा पर गये और उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट से निवेदन किया कि वे विश्वयुद्ध में इंग्लैंड के समर्थन में उतरें। इस पर रूजवेल्ट ने एक शर्त यह रखी कि इंग्लैंड को अपने भारत जैसे उपनिवेशों को युद्ध के बाद स्वतंत्रता देनी होगी। भारत को स्वतंत्रता मिलने में अमेरिका के उस दबाव की निश्चित रूप से भूमिका रही है। साथ-साथ 1964 में अमेरिका ने पीएल-480 कानून के अंतर्गत भुखमरी से राहत दिलाने के लिए भारी मात्रा में हमें अनाज मुफ्त उपलब्ध कराया था।
हमारे सामने कठिन प्रश्न उपस्थित है। एक तरफ अमेरिका का चरित्र दूसरे देशों में युद्ध करने का है लेकिन भारत के प्रति वह देश उदार रहा है। दूसरी तरफ चीन के साथ हमारी सरहद पर विवाद चल रहा है, जिसे निपटाया नहीं जा सका है। यहां भारत और चीन के बीच तिब्बत के विवाद की भूमिका पर भी एक नजर डालनी चाहिए। 1368 से 1644 तक मिंग साम्राज्य के समय तिब्बत स्वतंत्र रहा था। इसके बाद 1644 से 1912 तक क्विंग साम्राज्य के समय तिब्बत पर चीन का प्रभुत्व तिब्बतियों ने स्वयं स्वीकार किया था। इसके बाद पुनः 1912 से 1950 तक तिब्बत स्वतंत्र रहा। अतः चीन ने तिब्बत पर जो अधिकार किया है, उसके पीछे यक्ष प्रश्न यह है कि इतिहास को कहां से शुरू किया जाए? यदि हम 1644 से इतिहास को शुरू करें तो तिब्बत चीन का हिस्सा बन जाता है और यदि हम 1912 से इतिहास शुरू करें तो तिब्बत स्वतंत्र बन जाता है। अतः इस विवाद पर कोई स्पष्ट टिप्पणी करना उचित नहीं दिखता।
तीन परिस्थितियां हमारे सामने हैं। पहली, तकनीक के मुद्दे पर दोनों देशों की वर्तमान स्थिति लगभग बराबर है। दूसरी, सामरिक दृष्टि से अमेरिका की स्थिति कमजोर और चीन की सुदृढ़ दिखती है। तीसरी, तिब्बत के विषय पर परिस्थिति अनिश्चित रहती है। दोनों में मूल अंतर सामरिक है। हमें यूरोपीय यूनियन से सबक लेना चाहिए। द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी ने फ्रांस पर कब्ज़ा किया था। इसके बावजूद ये दोनों बड़े देश यूरोपियन यूनियन में आज बराबर के सदस्य हैं। इसी क्रम में हमें प्रयास करना चाहिए कि चीन से अपने सरहद के विवाद को सुलझाएं और चीन के साथ मिलकर विश्व अर्थव्यवस्था में अपनी आय बढ़ाने का प्रयास करें। चीन की मैन्युफैक्चरिंग और भारत की सेवा क्षेत्र में योग्यता के समन्वय से विश्व आय का बड़ा हिस्सा दोनों देश हासिल कर सकते हैं।
लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।