शरद उपाध्याय
आजकल मैं अपराधबोध से ग्रस्त हूं। यह कोई झूठा आरोप नहीं है। यह मुझसे कोई कह नहीं रहा। यह मेरी आत्म स्वीकृति है। मन ग्लानि से भरा हुआ है। लोग नैतिकता के समुद्र में इतनी स्पीड से बोट राइडिंग कर रहे हैं और मैं पाप के दलदल में फंसा हुआ हूं। साक्षात् सतयुग आ गया है। सदाचार का ओवरफ्लो होने लगा है।
सुबह, जब मैं सोकर उठता हूं तो यह भावना चरम सीमा पर होती है। डिप्रेशन बढ़ जाता है। ब्रह्म मुहूर्त से ही मोबाइल मंदिर की घंटियां बजनी शुरू हो जाती है। टन-टन की सदाचारीय आवाजें मुझे भौतिक नींद से उठाती है। ध्वनि की गति से तेज पवित्र मैसेज मेरी अंतरात्मा को झकझोर कर रख देते हैं। कितने व्यक्ति और ग्रुप मुझे सदाचारी बनाने के कठिन प्रयास में लगे हैं। मैसेज़ फॉरवर्डिंग के कठोर तप से उन्होंने कितना ज्ञान अर्जित कर लिया है और मैं पापी कुछ नहीं कर पाया।
प्रात:कालीन वेला में सदाचार की लहरों का वेग कुछ अधिक ही होता है। मैं निर्बल कहां टिक पाता। मैं बह जाता हूं। जमाना कितना बदल गया हैं। कितना गलत समझता था मैं उन्हें। प्रभु मुझे क्षमा करें। कल रात को मैं लोगों को क्या मान बैठा था। एक रात में दुनिया कितनी बदल जाती है। मैं कल रात कलियुग के पलंग पर सोया था। तो दुनिया ऐसी नहीं थी। जागा तो अपने आपको सतयुग के पालने में पाया।
परिचित, अपरिचित, मित्र, रिश्तेदार सभी ने बीड़ा उठा रखा है। वे सुबह से मेरी आत्मा को झकझोर रहे हैं। आज तो जगाकर ही मानेंगे। कितने ज्ञानी हो गए सब एक ही रात में। कल क्या मैं सपने में जी रहा था। कल चलने वाले निंदापुराण के वाहक ये कौन-सी दिशा में चले गए हैं। कल रात को ही तो ईगो के रथ पर सवार होकर कितने लोगों को छोटा किया था। कल रात को कितनी बार उन्होंने अहसास दिलाया था कि वे कितने बड़े हैं और पूरी दुनिया कितनी छोटी। कल रात ही को तो उन्होंने समूची बिरादरी की इतनी निंदा की थी कि मुझे इस पापमय दुनिया से विरक्ति हो गई थी। सुबह शायद बुद्ध की तरह मोक्ष की खोज में निकलने वाला था। पर पवित्र मैसेजों की बौछार ने मुझे रोक दिया। चमत्कार ही हो गया प्रभु। एक रात में कितना बदल गया। लोग अचानक इतने नम्र, इतने धार्मिक, इतने परोपकारी कैसे हो गए।
वे कितने भक्तिमय मनमोहक चित्र और ज्ञान भरे संदेश, मुझ पर फेंकते हैं। मैं असहाय-सा खड़ा रह जाता हूं। कितने झेलूं। एकाध हो तो पढ़कर अपना जीवन सफल बना लूं। पर मूसलाधार वर्षा से कई बार मेरी और मोबाइल दोनों की मेमोरी भी जवाब दे जाती है। चौबीस घंटे रिश्तों का निंदापुराण रचने वाले परम, सुबह-सुबह मित्रता के ऐसे संदेश भेजते हैं कि मेरी आंखें गीली हो जाती हैं।
बहरहाल, हर सुबह मोबाइल पर बिखरे सदाचार के ताबीजों को समेटता हूं। नैतिकता के एकाध डंबल उठा भी लेता हूं। पर जल्दी ही थक जाता हूं। इस जीवन में तो संभव नहीं है।