कई साल पूर्व, एक चुटकुला प्रचलित था कि अमेरिकी डेमोक्रेट और रिपब्लिकन पार्टी के बीच अंतर वही है जो कोक और पेप्सी के बीच है। अब, लगता है कि दोनों अपनी-अपनी चटखारेदार झाग खो बैठे हैं और बृहद अपेक्षाओं के बीच, परस्पर विरोधी वैश्विक नज़रिये और अलग-अलग दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। तरंगदायक स्वाद की जगह कड़ुवाहट ने ले ली है।
अमेरिका में मतदाताओं के लिए, चिंता का विषय है बेरोजगारी, मुद्रास्फीति, आव्रजन, आय-स्तर में असमान वृद्धि और बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं। सर्वेक्षणकर्ता लोकप्रिय रुझान को मापने के तरीकों के आधार पर भविष्य का अनुमान लगाने में व्यस्त हैं तो सट्टेबाज़ सिंडिकेट वांछित परिणाम पाने पर नज़र गड़ाए हुए हैं। इस रस्साकशी में अमेरिकी मतदाता फंसा हुआ है, तो शेष दुनिया चुनाव परिणाम का अन्य क्षेत्रों एवं वैश्विक भू-राजनीति पर असर क्या रहेगा, इसको लेकर पसोपेश में है।
पश्चिमी एशिया की स्थिति अमेरिकी प्रशासन के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए, क्योंकि वैश्विक तेल निर्यात में इसकी हिस्सेदारी 40 प्रतिशत है और अपनी तेल आपूर्ति सुरक्षा के लिए अमेरिका भी इस क्षेत्र पर निर्भर है। तेल की वैश्विक मांग और आपूर्ति संतुलित करने में पश्चिम एशिया की भूमिका अहम है। तेल एवं क्षेत्रीय सुरक्षा के मुद्दे, सऊदी अरब के साथ अमेरिका के संबंध और इस क्षेत्र पर इस्राइल-गाजा संघर्ष के नतीजे बहुत महत्वपूर्ण हैं।
इस संभावना को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है कि डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस में कौन पश्चिम एशिया की स्थिति को सकारात्मक तरीके से प्रभावित कर सकता है, खासकर जबकि गाज़ा या वेस्ट बैंक में फलस्तीनी इलाका छिनने पर असंतोष बढ़ सकता है। दूसरा क्षेत्र जो सर्वाधिक प्रभावित होने की संभावना है, वह है लैटिन अमेरिका, जहां चीन का बढ़ता प्रभाव साफ देखा जा रहा है। पहले इस क्षेत्र को अमेरिका परस्त माना जाता था, परंतु इसमें चीन की भूमिका तेजी से बढ़ी है, जिसका नेतृत्व उसकी सरकारी क्षेत्र की कंपनियों द्वारा ऊर्जा, बुनियादी ढांचा और अंतरिक्ष उद्योगों में निवेश से हुआ। चीन दक्षिण अमेरिकी मुल्कों का शीर्ष व्यापारिक साझेदार है, जिसके चिली, कोस्टारिका, इक्वाडोर और पेरू के साथ मुक्त व्यापार समझौते हैं, इसके अलावा 21 लैटिन अमेरिकी देश चीन की ‘बेल्ट एंड रोड पहल’ में शामिल हैं। चीन ने लैटिन अमेरिकी मुल्कों के साथ कच्चे माल के क्षेत्र में लगभग 73 बिलियन डॉलर का निवेश किया है, जिसके तहत कोयला, तांबा, प्राकृतिक गैस, तेल और यूरेनियम समृद्ध देशों में रिफाइनरियां और प्रसंस्करण संयंत्र बनाना शामिल है। चीन ने अर्जेंटीना, बोलीविया और चिली में लिथियम उत्पादन और वाणिज्यिक बंदरगाहों, हवाई अड्डों, राजमार्गों और रेलवे प्राेजेक्ट में भी निवेश किया है।
अमेरिका के लिए चिंता की बात यह हो सकती है कि चीन के ध्यान का केंद्र कृत्रिम बुद्धिमत्ता, क्लाउड कंप्यूटिंग और 5-जी तकनीक जैसे ‘नवीनतम बुनियादी ढांचा’ निर्माण है और इसके साथ अंतरिक्ष क्षेत्र में सहयोग को सुदृढ़ करने की तगड़ी कोशिशें करना भी है। लैटिन अमेरिका के लिए प्रमुख मुद्दा आव्रजन है, जो कि स्पष्ट रूप से लगातार जोर पकड़ रहा है, जैसा कि अमेरिकी सीमा पर हिरासत में लिए गए लोगों की संख्या से देखा जा सकता है। नशे के खिलाफ अमेरिकी प्रशासन की लड़ाई उन लैटिन अमेरिकी देशों को भी प्रभावित करती है, जो भले ही स्वयं उत्पादक न हों, लेकिन अमेरिका में ड्रग और मानव तस्करी के लिए गलियारे के रूप में उपयोग किए जाते हैं। कोलंबिया के पत्रकार डायना ड्यूरन के अनुसार, अमेरिकी प्रशासन को अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए लैटिन- अमेरिका का महत्व समझने की जरूरत है।
सितंबर में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बीच बहस के दौरान अमेरिका-रूस संबंधों का सवाल उठा था। जो बात अमेरिका को परेशान कर रही है, वह यह कि सोवियत संघ के विघटन के बाद, उम्मीद थी नया रूस उदार, लोकतांत्रिक और अपने पड़ोसियों के लिए मददगार होगा। रूस का उद्भव -विशेषतया पुतिन के नेतृत्व में – महाशक्ति बनने को अग्रसर देश के रूप में, अमेरिका की उम्मीदों को सालता है, जिससे संभावित आपसी सहयोग, संभावित संघर्ष में बदल गया है।
जहां अमेरिका रूस को नजरअंदाज नहीं कर सकता वहीं रूस अमेरिकी चुनावों को लेकर बेपरवाह लगता है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, रूसियों के लिए हैरिस अपेक्षाकृत अनजान हैं। हालांकि उनसे उम्मीद है कि वे बाईडेन के दृष्टिकोण को जारी रखेंगी, लेकिन ट्रम्प को एक ‘मित्र’ के रूप में जाना जाता है और तरजीह दी जाती है। बॉब वुडवर्ड की नवीनतम पुस्तक ः ‘वॉर’ में ट्रम्प और पुतिन के बीच गुप्त बातचीत का जिक्र है, जिससे आशंका बलवती होती है कि ट्रम्प रूस को रियायतें दे सकते हैं। इससे रूस को यूक्रेनी संकट से निपटने में मदद संभव है, इसके अलावा रूस की ऊर्जा संसाधन संपन्नता के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने में इसके बढ़ते महत्व से जोड़ा जा सकता है। यही वजह कि प्रतिबंधों के बावजूद वह कई एशियाई व यूरोपीय देशों संग अपनी स्थिति मजबूत बनाए रखने में सक्षम रहा।
जहां तक चीन का सवाल है, माना जाता है कि व्यापार, ताइवान और स्वच्छ ऊर्जा पर चुनाव परिणाम के संभावित प्रभाव को लेकर बीजिंग का ‘थिंक टैंक’ सावधानी से अध्ययन कर रहा होगा। व्यापारिक संबंधों को लेकर, चीन में कुछ लोग हैरिस की तुलना में ट्रम्प का पक्ष लेते हैं, लेकिन अधिकांश को लगता है कि रिश्ते मुख्यतः वास्तविक आर्थिक सोच से तय होंगे। प्रमुख मुद्दा शुल्क दर रहेगा, विशेषतया चीनी तकनीकी कंपनियों के लिए, जिनके वास्ते संभवतया एक अलग व्यवस्था बने। चीनी आयात पर अमेरिका की बेहद निर्भरता ने एक बड़े व्यापारिक घाटे को जन्म दिया है। बताने की जरूरत नहीं कि दोनों देशों में परस्पर आर्थिक निर्भरता का रिश्ता है, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने में, अमेरिका के लिए चीन पसंदीदा गंतव्य रहा है। अमेरिका की प्राथमिकताओं में से एक इसकी आपूर्ति शृंखलाओं का विविधीकरण भी है।
जहां तक ताइवान का सवाल है, न तो हैरिस और न ही ट्रम्प वर्तमान स्थिति बदलना चाहेंगे। इसके अलावा, अमेरिका में यह अहसास बढ़ रहा है कि स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ने की जरूरत में चीन को फायदा मिलता है, क्योंकि उपकरणों के निर्माण में उसका प्रभुत्व है और अति आवश्यक पर मेटीरियल पर भी उसका नियंत्रण है। एक ऐसा क्षेत्र जिस पर अमेरिकी चुनाव परिणामों का सर्वाधिक प्रभाव पड़ेगा, वह है जलवायु परिवर्तन से निबटने में वैश्विक प्रयास, विशेषकर इस मुद्दे पर मुख्य दावेदारों के अलहदा नज़रिए के परिप्रेक्ष्य में। जहां एशिया और अफ्रीका की ‘ऊर्जा की भूख’ का समाधान खोजना सर्वमान्य है वहीं इनके मतभेदों का असर ऊर्जा पर्याप्तता के अलावा ऊर्जा के स्वरूप में बदलाव की प्राप्ति, वैश्विक संकल्प और सहयोग पर पड़ना तय है।
राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बीच बहस के दौरान, हैरिस ने जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले खतरे पर विस्तार से बात की और स्वच्छ ऊर्जा में बाइडेन प्रशासन की पहल और निवेश का उल्लेख किया। जहां हैरिस ने स्वच्छ ऊर्जा में निवेश के माध्यम से नए विनिर्माण रोजगार सृजित करने की बात कही वहीं ट्रम्प का जोर अमेरिकी उद्योग को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाने और ऊर्जा जरूरतें पूरी करने के लिए उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करने पर था। ऐसे कालखंड में, जहां एक ओर लोकतंत्र स्वयं वैश्विक स्तर पर गंभीर चुनौतियों से रूबरू है और दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन जैसा अहम विषय है, चुनाव परिणाम का इन पर बहुत बड़ा असर संभावित है। स्वतंत्रता का अधिकार और जीवन का अधिकार- दोनों को ताजी हवा की सांस चाहिये।
लेखक भारत के पूर्व चुनाव आयुक्त हैं।