सुषमा रामचंद्रन
तकरीबन एक साल पहले वैश्विक निवेश बैंक गोल्डमैन सैक्स ने भविष्यवाणी की थी कि 2024 के अंत तक दुनिया भर में कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल छू जाएंगी। इस पूर्वानुमान ने भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं को झकझोर दिया था, जो कि तेल के बड़े आयातक हैं। परंतु उनकी किस्मत अच्छी रही कि यह पूर्वानुमान गलत साबित हुआ। बल्कि, पिछले एक साल के दौरान तेल की कीमतों में लगभग 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई है और दाम का मानक ‘ब्रेंट क्रूड’ वर्तमान में 70-72 डॉलर प्रति बैरल के आसपास है। यह बदलाव गंभीर भू-राजनीतिक संकटमयी माहौल के बावजूद है, जिसमें रूस-यूक्रेन युद्ध और इस्राइल-हमास संघर्ष खत्म होने के आसार बहुत कम हैं।
तेल बाजारों के कामकाज ने स्पष्ट रूप से इस तथ्य को दर्शा दिया है कि किसी भी सूरत में आपूर्ति बाधित होने की संभावना नहीं है, युद्धरत होने के बावजूद रूस दुनिया में कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक बना हुआ है। पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के बावजूद रूसी तेल का प्रवाह अभी भी प्रमुख खपतकार क्षेत्रों की ओर है बना हुआ है। पोलैंड, फ़िनलैंड, हंगरी और यहां तक कि जर्मनी सहित अनेक यूरोपीय देश रूस से तेल और पेट्रोलियम उत्पाद खरीदना जारी रखे हुए हैं, हालांकि मात्रा में काफ़ी कमी आई है। इसके अलावा, यूरोपीय संघ भारत की तेल रिफाइनरियों में रूसी तेल से तैयार उत्पाद जैसे कि गैसोलीन और डीजल की खरीद बड़ी मात्रा में कर रहा है। जहां तक पश्चिम एशिया में चल रहे संघर्ष की बात है, यमन स्थित हूती विद्रोहियों के उत्पात के कारण लाल सागर और स्वेज नहर के माध्यम से होने वाला अंतर्राष्ट्रीय व्यापार बाधित हुआ है। व्यापारिक जहाजों के लिए इन समुद्री रास्तों से आना-जाना खतरनाक बना हुआ है, इनमें कई अब केप ऑफ गुड होप से होकर, लंबे और महंगे मार्ग का उपयोग कर रहे हैं। लेकिन फिर भी इससे उक्त क्षेत्र से होने वाली कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की आपूर्ति प्रभावित नहीं हुई -समुद्री और थलीय- दोनों मार्गों से उपभोक्ताओं तक पहुंचना जारी है।
इसी प्रकार कई अन्य कारक भी रहे, जिनके चलते पिछले वर्ष तेल की कीमतों में मंदी का रुख रहा। सबसे महत्वपूर्ण में एक है वैश्विक मांग में कमी, विशेषकर दुनिया के सबसे बड़े तेल आयातक चीन से। उसकी आर्थिक दिक्कतें जारी हैं क्योंकि विनिर्माण क्षेत्र में उत्पादन लगातार चौथे महीने सिकुड़ा रहा। पिछले एक साल के दौरान उम्मीद जगी थी कि अर्थव्यवस्था में सुधार होगा और रियल एस्टेट क्षेत्र मंदी से बाहर निकलेगा। परंतु ऐसा परिदृश्य अब दूर की कौड़ी लगता है और बहुराष्ट्रीय कंपनियां धीरे-धीरे दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से पीछे हट रही हैं, ऐसे देश से जिसका उत्पादन शेष दुनिया की खपत क्षमता से अधिक है। चीन ने वर्ष 2023 में 5.2 प्रतिशत आर्थिक वृद्धि दर दर्ज की थी, लेकिन विश्व बैंक का अनुमान है कि 2024 में केवल 4.8 फीसदी ही छू पाएगी। धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था का परिणाम है तेल आयात में कटौती।
तेल कीमतों में नर्मी लाने वाला एक और कारक है अमेरिका के उत्पादन में वृद्धि, जो दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक बनकर उभरा है। वास्तव में, अनुमान है कि तेल निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) से इतर तेल उत्पादक मुल्क अपने उत्पादन में वृद्धि कर इस क्षेत्र में अग्रणी बने रहेंगे। इसके चलते, पिछले साल से ओपेक प्लस द्वारा संयुक्त उत्पादन में 2.2 मिलियन बैरल प्रतिदिन स्वैच्छिक कटौती के असर की काफी हद तक भरपाई हो गई। पिछले सप्ताह इस कटौती को वापस लेने की उम्मीद थी, लेकिन बाजारों में लगातार मंदी के चलते, ओपेक कार्टेल ने कुछ और समय इसे जारी रखने का फैसला लिया। परंतु यह खबर भी कीमत वृद्धि करने में विफल रही, थोड़ी सी बढ़ी जरूर लेकिन फिर गिर गईं, यह बाजार में अतिरिक्त उपलब्धता दर्शाता है।
तेल बाजारों में मंदी भारत के लिए एक वरदान के रूप में आई है, जो अपना 85 प्रतिशत से अधिक ईंधन विदेश से खरीदता है। फरवरी 2022 में यूक्रेन-रूस युद्ध शुरू होने के बाद से, कीमतों में उतार-चढ़ाव बना हुआ है। लेकिन भारत रियायती दरों पर रूसी कच्चा तेल प्राप्त कर पाया, जो उस साल रही ऊंची कीमतों के संकट से निबटने में मददगार रहा। हालिया गिरावट के रुझान का अर्थ है कि कच्चे तेल का जो मूल्य भारत ने अप्रैल में 89 डॉलर प्रति बैरल चुकाया, वह गिरकर वर्तमान में 72 डॉलर हो गया है। इस गिरावट का महत्व इस मोटे अनुमान से मापा जा सकता है कि तेल मूल्य में प्रति 10 डॉलर वृद्धि होने से चालू खाते के घाटे में 0.5 प्रतिशत का इजाफा हो जाता है।
इस उत्साहजनक परिदृश्य में, सरकार के पास आम आदमी को कुछ राहत देने की खातिर पेट्रोल, डीजल और एलपीजी जैसे पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में कटौती करने की गुंजाइश बन जाती है। इस साल के अंत में कई राज्यों में चुनाव होने हैं, इसलिए राजनीतिक रूप से भी यह एक व्यावहारिक कदम होगा। लोकसभा चुनाव से पहले, मार्च में भी इसी तरह का कदम उठाया गया था। लेकिन यह तथ्य है कि जब कभी वैश्विक कीमतें बढ़ती हैं तो आमतौर पर सरकारें तेल उत्पादों की कीमतें बढ़ाने में जरा देर नहीं करतीं, लेकिन जब मूल्य गिरते हैं तो शायद ही कभी उसी अनुपात में कम की जाती हैं।
कीमतें गिराने का विरोध तेल विपणन कंपनियों (ओएमसी) की ओर से भी होता है, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में बढ़ोतरी के बावजूद खुदरा दरों को यथावत रखने पर घाटा सहना पड़ता है। लेकिन मौजूदा स्थिति अलग है क्योंकि ओएमसी के पास भरपूर धन है, जिनका संयुक्त मुनाफा वित्त वर्ष 2023-24 में लगभग 81,000 करोड़ रुपये रहा। इनमें प्रमुख है, इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन, हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड और भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड।
नि:संदेह, तेल कंपनियों को इस बात की चिंता रहती है कि यदि विश्व बाजार में फिर से तेजी आती है तो उन्हें उत्पाद बिक्री पर अंडर-रिकवरी के साथ फिर से जूझना पड़ेगा। हालांकि, ऐसा होने की संभावना फिलहाल नज़र नहीं आती। उदाहरणार्थ, चीनी अर्थव्यवस्था की गिरी सेहत में निकट भविष्य में कोई महत्वपूर्ण सुधार होने की उम्मीद नहीं है, जो बताता है कि मांग में कमजोरी कुछ वक्त तक जारी रहेगी। दूसरी ओर, गैर-ओपेक तेल निर्यातकों का उत्पादन लगातार बढ़ रहा है।
नतीजतन, वैश्विक निवेशक बैंक अपने मूल्य पूर्वानुमानों में त्वरित संशोधन कर रहे हैं। मॉर्गन स्टेनली ने तेल का मूल्य 2024 की अंतिम तिमाही में 75 डॉलर प्रति बैरल रहने का अनुमान लगाया है, जबकि गोल्डमैन सैक्स ने कुछ सतर्कता बरतते हुए इसे 70-85 प्रति डॉलर बताया है। सिटी ग्रुप ने तो एक कदम आगे बढ़कर भविष्यवाणी की है कि 2025 में कच्चे तेल की कीमत 60 डॉलर प्रति बैरल तक गिर सकती है। दूसरे शब्दों में, तेल बाजारों में मध्यम अवधि में भी नरमी जारी रहने की उम्मीद है। एकमात्र परिदृश्य जिसमें कीमतों में उछाल आ सकता है, वह है यदि सम्पूर्ण पश्चिम एशिया युद्धग्रस्त हो जाए। इस तमाम पृष्ठभूमि में, लगता है कि घरेलू तेल कंपनियों के लिए पैट्रोल पंप स्तर की उपभोक्ता कीमतों में कटौती करने के लिए परिस्थितियां यथासंभव आदर्श हैं। भू-राजनीतिक परिदृश्य चुनौतीपूर्ण बना हुआ है, लेकिन यह माहौल जोखिम उठाने लायक है।
लेखिका वरिष्ठ वित्तीय पत्रकार हैं।