जाने-माने उद्योगपति रतन टाटा अमूमन एक कहानी सुनाते हैं, ‘एक व्यक्ति तोता ख़रीदने गया। पिंजरों में बंद कई तोते थे। उसने एक तोते की कीमत पूछी, तो तोते वाले ने बताया, ‘पांच हजार रुपये।’ व्यक्ति ने पूछा, ‘इतना महंगा? यह करता क्या है?’ तोते वाले ने जवाब दिया कि यह अपनी चोंच से अंग्रेज़ी टाइप कर सकता है। खैर, व्यक्ति ने दूसरे तोते की कीमत जाननी चाही। तोते वाले ने कहा, ‘यह तो दस हज़ार रुपये का है। क्योंकि यह तीन भाषाएं बोल-समझ सकता है। ’ हैरान व्यक्ति बोला, ‘मुझे इतना काम करने वाले तोते नहीं चाहिए। उस आखिरी तोते की कीमत बताइए?’ तोते वाला कहने लगा, ‘वह तो तीस हज़ार रुपये का है।’ उसने पूछा, ‘यह करता क्या है?’ तोते वाला बोला, ‘मैं नहीं जानता, लेकिन सभी इसे चेयरमैन कहते हैं।’ रतन टाटा आगे कहते हैं, ‘मैं खुद जानता हूं कि चेयरमैन कुछ नहीं करता, फिर भी, बिग बॉस वही होता है।’
गुलाब और कमल के फूल के बीच कोई मुक़ाबला नहीं है। क्योंकि हर फूल की अपनी सिफत और खूबसूरती होती है। इसी प्रकार जिंदगी के सफ़र में भी कोई किसी से आगे या पीछे नहीं है, और न ही कोई किसी से बेहतर है या कमतर। हर इनसान वहीं है, जहां उसे होना चाहिए। हर इनसान अपना अध्यापक है और अपना विद्यार्थी भी। बावजूद इसके आत्मग्लानि से ग्रसित रहता है- कुछ न करने की, तो कभी कुछ करने की। बेतहाशा खर्च किया, या फिर, समय का पाबंद न हुआ तो आत्मग्लानि। किसी से नफ़रत करने पर आत्मग्लानि, तो किसी से प्यार करने पर भी। कभी-कभार तो ग्लानि पर ग्लानि होने लगती है। ग्लानि का अर्थ है- मन में किसी कार्य को करने का खेद होना। या कहें, अपनी गलती को महसूस करते हुए मन ही मन शिथिलता और खिन्न्नता पैदा होना। हरदम दूसरों को खुश करने, अच्छा बनने की और अपना सब कुछ कायदे से रखने जैसी कोशिशें बीमार तक बना देती हैं। इनसान ‘मैं ऐसा क्यों हूं’ या ‘मैं वैसा क्यों हूं’ के चक्कर में परेशान हो उठता है।
वास्तव में, इनसान ऐसे लोगों से घिरा रहता है, जो दूसरों को नियंत्रित करते हैं, उनका मूल्यांकन करते हैं और निरंतर आत्मग्लानि का आभास कराते रहते हैं। जबकि ऐसे लोग दूसरों को बदलने के तो उतारू होते हैं, लेकिन खुद को न बदल सकते हैं, न बदलने की हिम्मत जुटा पाते हैं। सद्गुरु जग्गी वासुदेव समझाते हैं, ‘संपूर्ण होने के लिए आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है, आपको कुछ सोचने की जरूरत नहीं है, आपको अनुभव करने की ज़रूरत नहीं है। जैसे आप हैं, आप एक सम्पूर्ण जीवन हैं।’ अमूमन, दफ्तर की मेज़ पर काग़ज़ों-फ़ाइलों का अम्बार और घर की अलमारी से बाहर गिरते कपड़े देखने-सुनने में सही नहीं लगते, व्यक्तित्व की छवि को गिराते हैं। लेकिन शोध जताते हैं कि इस लिहाज से लापरवाह लोग ख़ुशमिज़ाज होते हैं।
न्यूयार्क की ‘एजिलोन प्रोफेशनल स्टाफिंग’ के सर्वे के मुताबिक साफ-सुथरी डेस्क के मुक़ाबले अव्यवस्थित मेज के प्रोफेशनल्स ज़्यादा मोटा वेतन पाते हैं। न्यूयार्क की ‘सीकोस्ट मेंटल हेल्थ सेंटर’ के मनोवैज्ञानिकों की राय है कि घर या दफ्तर या ज़िंदगी में पूरी तरह अव्यवस्था का सफाया करना मुमकिन नहीं है। इर्विन कुला अपनी किताब ‘एम्बेरेसिंग द स्केयरड मेसीनेस ऑफ लाइफ’ में इस हद तक लिखती हैं, ‘सलीके और तरकीब से रहने का मतलब है कि आपने कुछ किया ही नहीं। मिसाल के तौर पर, आड़े-तिरछे बिखरे औज़ार ही बताते हैं कि मिस्त्री काम कर रहा है। और अगर रसोई सलीक़े से सजी है तो यकीनन खाना बनाया और परोसा ही नहीं गया। ’ तथ्य है कि महान ब्रिटिश वैज्ञानिक अलेग्जेंडर फ़्लेमिंग ने अपने लापरवाह रवैये के चलते ही क्रान्तिकारी दवा पेंसलीन का आविष्कार किया था। उनकी प्रयोगशाला अव्यवस्थित रहती थी। उन्होंने तश्तरी में कुछ रासायनिक यूं ही छोड़ दिए, जिससे वहां मौजूद बैक्टिरिया समाप्त हो गए। इसी से आगे पेंसलीन की राह खुल गई।
अमेरिकी संगीतकार कर्ट कोबेन का मानना है, ‘किसी और जैसा बनने की इच्छा, दरअसल खुद के व्यक्तित्व को व्यर्थ जाने देना है। ’ लोगबाग दूसरों पर दबदबा जमाने के लिए आत्मग्लानि का एहसास जगाने से बाज नहीं आते। साथ ही, अपनी कमज़ोरियों पर पर्दा डालने का प्रयास करते नहीं थकते। दिमाग़ी सोच है, जिसमें खासी ऊर्जा खपती है। इसके नकारात्मक प्रभाव को जानने के बाद बचना अत्यंत ज़रूरी हो जाता है। और अगर कोई हमेशा स्वयं की दूसरों से तुलना करे, तो वह स्वयं ही अहंकार या ईर्ष्या का शिकार हो जाएगा। बात-बेबात पर खुद को कोसना छोड़ दीजिए। अपनी सीमाओं में रह कर, बेफ़िक्री से सारे काम कीजिए, जो दूसरों को ठेस न पहुंचाएं।
हर इनसान के लिए चित्त की आजादी, नैतिक आचरण और सदाचार का सिद्धांत अलग-अलग हो सकता है। यानी हर इनसान को अपने देश, धर्म और परिवार के मद्देनज़र एक लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी। तभी पूर्ण सदाचार के नियम-क़ायदे तय होंगे। इस रेखा से परे हर इनसान को आज़ादी है, मनमर्ज़ी करने की छूट है। सयाने कहते हैं कि खुद को न दोष देना चाहिए, न ही तारीफ़ करनी चाहिए। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति और विचारक अब्राहम लिंकन काम करने की अपनी धीमी रफ्तार पर यूं तसल्ली देते हैं, ‘मैं धीमा चलता हूं तो क्या, पर कभी वापस नहीं आता।’
दरअसल हर किसी की काम करने की अपनी गति होती है। अगर आपको किसी काम में दूसरों से अधिक समय लग रहा है, तो इसका मतलब यह नहीं कि आप पीछे हैं। विद्यार्थी की तरह सीखते हुए आगे बढ़ेंगे, तो खुद दुरुस्त होते जाएंगे, सुधार निरंतर जारी रहेगा। ओशो इस प्रवृत्ति को दु:ख-सुख से जोड़ते हैं, कहते हैं, ‘तुम्हारा दु:ख अत्यन्त गम्भीरता की वजह से है। गम्भीर चित्त से तुम सुखी हो ही नहीं सकते। जिंदगी को एक नाटक या कहानी की तरह लो। उत्सव मनाने वाला चित्त ही सुखी करता है।’ जगज़ाहिर है कि बेपरवाह होकर, खींची गई तस्वीर हमेशा अधिक सहज आती है।