राम का नाम जितना आज लिया जा रहा, उतना राम राज्य में भी नहीं लिया गया होगा। राम का नाम लेने में हरियाणवी सबसे ज्यादा उस्ताद हैं। उन्होंने सोचा नमस्ते-प्रणाम की ऐसी की तैसी और खेतीबाड़ी के धन्धे में राम का नाम लेने का टाइम भी कहां मिलेगा तो ऐसे में राम-राम से ही अभिवादन करना उचित रहेगा। मिलते ही ताऊ-ताई राम-राम, दादा राम-राम कहने का प्रचलन देखने में आता है। राम-राम भी हो गई और राम-नाम स्मरण भी।
राम पर राजनीति होगी, कभी ख्यालों में भी नहीं था। राम चुनावी मुद्दा भी हो सकते हैं, यह तो तब भी नहीं सोचा होगा। पर अब टीवी पर सारा दिन राम-राम हो रही है। राम का रूप धारण करने की कोई बात ही नहीं करता। राम के बाद हम हजारों सालों में एक भी राम पैदा नहीं कर पाये। राम हमारे जप-तप संकीर्तन में हैं, साहित्य में हैं, मंदिरों में हैं, दिलों में हैं, घरों में हैं, त्योहारों में हैं पर हम में से कोई भी राम सरीखा नहीं है।
जिस प्रकार बरसते हुए बादल की बूंद पकड़ कर आकाश तक पहंुचना असंभव है, वैसे ही राम को जाने बिना राम पर बवाल खड़ा करना, या राम की व्याख्या करना बेतुका-सा है। दरअसल राम एक नाम मात्र नहीं हैं, भाव हैं, आस्था हैं और उम्मीद हैं। राम के चरणों में अपना सिर रखकर लोग मुंह में राम-राम रटते हैं और गौर से देखो तो इन्हीं की बगल में छुरी भी है। राम नाम जपना पराया माल अपना कहावत यूं ही नहीं बनी होगी। जब बनी होगी तो इक्का-दुक्का व्यक्ति ऐसे होते होंगे जो राम नाम का ढोंग कर दूसरों का माल हड़प लेते होंगे। पर अब बहुतायत ऐसे ही लोग हैं जो राम नाम की ओट में सटके साधते हैं और फिर राम नाम सत्त।
आज नाम के बाजार में कारोबार जारी है। रचनात्मकता और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर और राम नाम पर बेसिर-पैर की बातें। आज टीवी पर जितनी भी चर्चायें हो रही हैं, सबका यही हाल है। राम-राम करते-करते मरा-मरा पर उतर आते हैं। अनाप-शनाप तथ्यों से उपहास में लथपथ हो जाते हैं। खुद की भी फजीहत करवाते हैं। हमें अपने हिसाब से पौराणिक संदर्भ में बदलाव नहीं करना है बल्कि उसके आधार पर अपने आप में बदलाव लाना है।
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एक बर की बात है ताई रामप्यारी नैं अपने पोते नत्थू तैं बूज्झी अक न्यूं बता राम का नाम दुआण मैं नम्बर एक किसका है। नत्थू बोल्या- घीया का साग। देखते ही मुंह तै लिकड़ै है- हे राम! आज फेर घीया।