राजेश रामचंद्रन
‘ठेस पहुंचाने’ और ‘ठेस पहुंचने का अधिकार’, इन दोनों की प्रवृष्टि हमारे संविधान में दिए गए मूल अधिकारों की लंबी फेहरिस्त में नदारद है। तथापि पिछले कुछ हफ्तों से ये दोनों विषय-वस्तु हमारी सार्वजनिक बातचीत-बहसों में छाए हुए हैं। किसी सामाजिक समूह का वजन कितना भी हो, वह अपमान करने और करवाने को तैयार है, मानो उसका पूरा वजूद सांप्रदायिक दुर्व्यवहार के इन्हीं दो ‘गुणों’ पर टिका हो। इनमें पहले वाला ‘गुण’ दूसरों को निशाना बनाकर चोट पहुंचाने के लिए तमाम नफरती भाषणों का स्रोत है, तो बाद वाला ‘गुण’ खुद को पहुंची चोट का अहसास बताता है। इसलिए, वर्गीय-पहचान को निशाना बनाकर कल्पनीय पीड़ा पैदा करने के प्रयासों के बीच रिश्ता आकस्मिक है। इन दोनों ने अब अभिनय-कला का रुतबा हासिल कर लिया है, टेलीविज़न पर न्यूज़ एंकर द्वारा अभिनीत लिखी-लिखाई पटकथा, नफरत से भरे दर्शकों की अंदरूनी फितरत को और बल देती है, बदले में दर्शक-संख्या चैनल को उच्च टीआरपी प्रदान करती है, इसके बूते पर चैनल विज्ञापनदाता और प्रायोजकों से विज्ञापन पाने के काबिल बनते हैं।
सामाजिक तल्खी यूपीए के कार्यकाल में शुरू हुई, जब कथित भ्रष्ट केंद्रीय सरकार के खिलाफ एक न्यायसंगत रोष बना, साथ ही उन कुछ दागी और समझौतावादी पत्रकारों के विरुद्ध भी, जिनका नाम राडिया टेप प्रकरण में सामने आया था। लेकिन नैतिकता को लेकर गुस्सा शीघ्र ही, पहले राजनीतिक और फिर सांप्रदायिक रंगत ले गया, सार्वजनिक संवाद करने में सभ्य व्यवहार के तमाम नियम आग में झोंकते हुए, खासकर न्यूज चैनलों पर, जहां किसी को हड़काना एक आम रिवाज और मूर्खता बन चुका है और तेज़ आवाज़ में चेतावनियों और गालियों के आदान-प्रदान को बहस बताया जा रहा है। न्यूज़ चैनलों के सीधे प्रसारणों में, एंकर की सरपरस्ती में कुछ ‘विशेषज्ञ’अल्पसंख्यक वर्ग से संबंधित भागीदार को निशाना बनाते हैं, यह नई नफरती नाट्य विधा है, जहां वह एकमात्र अल्पसंख्यक भी पूर्व-निर्धारित पटकथा पर अपनी भूमिका निभाने में आनंद लेता है। यह बहसें न्यूज़ चैनलों के लिए टीआरपी जुटाने के अलावा इन ‘विशेषज्ञों’ की अपने-अपने समुदाय में एक तरह से मशहूरी और सामाजिक मान्यता बनाती हैं।
किंतु अनजाने में सही, ‘झगड़ों के विशेषज्ञ’ असल में समूचे समाज में नफरत को वैधता दे रहे हैं। पहचान आधारित राजनीति असरंदाज़ है, क्योंकि लोगबाग किसी नेता या प्रवक्ता से खुद को जोड़कर देखने लगते हैं। टीवी एंकरों और ‘विशेषज्ञों’ ने राजनीतिक दलों के प्रवक्ता की भूमिका निभानी शुरू कर दी है और दूसरों को नीचा दिखाने वाली एवं नफरती भाषा का इस्तेमाल करना पहचान आधारित राजनीति से बनने वाली चिंताओं को और बढ़ाता है। नूपुर शर्मा की द्वेषपूर्ण टिप्पणी वाली घटना और इस पर गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल के मुल्कों से आई प्रतिक्रिया ने भारत में किसी को असल में कत्ल करने का माहौल बना दिया, किसी की बेइज्जती करने और करवाने के हक की परिणति। हमने टकराव करते असभ्य व्यवहारों के तांडव के पूरे चक्र का अंत किसी की हत्या में पाया है। आक्रामक व्यवहार के इस चक्र की चीर-फाड़ का विश्लेषण अब राजनीतिक मौकापरस्त अपने-अपने समुदाय के चश्मे से कर रहे हैं, जो हिस्सा भाए उसे जायज बता रहे हैं तो नागवार को आधार बनाकर दूसरों पर निशाना साध रहे हैं, बिना यह समझे कि नफरत की चीर-फाड़ नहीं बल्कि इससे पूरी तरह किनारा करने की जरूरत है। और यदि धर्म अपने-आप में समस्या है तो हम अच्छे क्या और बुरे धार्मिक आचरण कौन से हैं, यह ढूंढ़ने की कोशिश करने की बजाय तमाम धर्मों के आचरणों पर ठप्पा लगाएं। एक नई किस्म की धर्म-निरपेक्षता को अंगीकार करें, जो सार्वजनिक तौर पर दिखावा करने वाली तमाम धार्मिक रीति-रिवाजों को एक समान नजरिये से देखे।
अभी नूपुर शर्मा की घृणा-टिप्पणी पर हत्यारी प्रतिक्रिया का चक्र थमा भी नहीं था कि देवी काली को सिगरेट पीते दिखाते पोस्टर को लेकर हिंदू धर्म की ईश-निंदा का सवाल उठ खड़ा हुआ। धार्मिक प्रतीकों और कर्मकांडों का खंडन-मखौल एक विवादित आधुनिक लहर है, चाहे यह नए फिल्मकार की धूम्रपान करती काली हो या एमएफ हुसैन की बनाई नग्न देवी की पेंटिंग। लेकिन यह नई लहर तब वाकई प्रभावशाली होगी जब निशाने पर सब एक समान हों और धार्मिक अंधविश्वास के विद्रोहियों का संगम बिंदु बन पाए, जहां पर तमाम आराध्यों का एक-समान गैर-प्रासंगिकीकरण हो।
लेकिन एक भारतीय प्रधानमंत्री वह भी रहे, जिन्हें आनन-फानन में कम्प्यूटरीकरण और टेलीकॉम सुविधाएं बनाकर भारत में आधुनिकीकरण लाने की जल्दी तो बहुत थी,लेकिन शाह बानो मामले में अदालती फैसला उलटकर और सलमान रूश्दी की ‘सैटेनिक वर्सेस’ पुस्तक पर प्रतिबंध लगाकर मुल्क में धार्मिक आधुनिकीकरण के दरवाज़े बंद कर दिए। ठीक इसी दौरान कज़ानत्ज़की की बेहतरीन रचना पर बनी फिल्म ‘द लास्ट टेम्पटेशन ऑफ क्राइस्ट’ को भी भारत में प्रतिबंधित किया गया था। अब यह साफ है कि हिंदुत्ववादी, जिन्हें दूसरे धर्मों में मौजूद ईश निंदा जैसे प्रावधान- जो कि उन्हें आहत होने का अधिकार देता है– वह कुछ अपने पास न होने की ईर्ष्या सदा रही है, अब वही पात्रता चाहते हैं।
यदि एक प्रधानमंत्री सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को दरकिनार कर शरिया कानून का प्रावधान लागू करे, धार्मिक कट्टरता को आम समझ से ऊपर रखे और नागरिकता से ऊपर वर्गीय पहचान को तरजीह दे, तो यह केवल कुछ वक्त की बात है, जब प्रतिक्रियावश, एक ज्यादा बड़ी और प्रतिस्पर्धात्मक पहचान बनाए रखने की भावना पैदा होगी। पिछले कुछ समय तक, ‘अपमानित महसूस करने’ वाले अधिकार का ज्यादातर और खुलकर उपयोग धर्म-परिवर्तन करवाने वाले करते रहे, जिन्होंने धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को घुमाकर फायदा उठाया। इसलिए जब कोई धर्म प्रचारक अपने धर्म ग्रंथ के पद पढ़ते हुए कहता है ः ‘मैं ही राह हूं, सत्य और जीवन भी, परमपिता तक केवल मेरे द्वारा पहुंचाया जा सकता है’, तो ऐसा कहने का मतलब है वह स्वर्ग के दरवाज़े आराध्य विशेष के आस्थावानों के सिवा सबके लिए बंद कर रहा है, यह गैर-धर्मावलंबियों को कमतर ठहराने जैसा है। इसी प्रकार, जब एक धर्मावलंबी उद्घोष करता है कि ‘उसके आराध्य के सिवा कोई और ईश्वर नहीं’ तो ऐसा कर वह बाकी सबकी हेठी कर रहा होता है।
हिंदू धर्म में ईश निंदा करने पर कोई शास्त्र सम्मत प्रतिबंध अथवा समीकरण नहीं रहा है, लेकिन इसके लिए हिंदुत्ववादियों ने ईश निंदा और एकेश्वरवादी यहूदी धारणा को खुशी-खुशी अपना लिया है और इसको भारतीय राजनीतिक संदर्भ में, सबके ऊपर और अंधाधुंध थोपने की कोशिश में हैं। नाज़ी जर्मनी की स्थापना उस स्थिति में नहीं हुई थी जब यहूदियों ने यह मानकर कि धार्मिक सह-अस्तित्व असंभव है, मुल्क को बलपूर्वक बांटकर, अपने लिए अलग देश बनाया था, न ही कभी यहूदियों ने ईसाइयों को उन प्रांतों से खदेड़ा, जहां वे बहुसंख्यक थे।
मसले का हल यह स्वीकार करने में है कि ‘ठेस पहुंचाने’ और ‘ठेस पहुंचने का हक’, बतौर सार्वजनिक व्यवहार, स्वीकार्य नहीं है। संक्षेप में, कम-से-कम उदारवादी व प्रगतिशील लोगों को अपनी आस्था या आस्थाहीनता का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से गुरेज करना चाहिए, यदि वे किसी धार्मिक कट्टर व्यक्ति का अपमान करने को अधीर हैं, तो ऐसा करने के लिए तमाम धर्मों के कर्मकांडों पर एक समान दृष्टिकोण जरूरी है। यदि मकबूल फिदा हुसैन ने चुनिंदा न होकर तमाम धर्मों के आराध्यों के चित्र बनाए होते, तो यह अपमान करने-करवाने वाला उद्योग जड़ न पकड़ता।
लेखक प्रधान संपादक हैं।