सुरेश सेठ
हाल के दिनों में नई जनगणना की आवश्यकता पर चर्चा हो रही थी, क्योंकि अंतिम आधिकारिक जनगणना 2011 की है। हालांकि, यह प्रक्रिया 2025 तक शुरू होने की संभावना है। जनगणना का महत्व इसलिए है क्योंकि यह लोगों के उपभोक्ता व्यवहार और मांग का पता लगाने में मदद करती है, जिससे देश में निवेश के रुझानों के लिए भविष्यवाणियां की जा सकती हैं। चाहे जाति आधारित जनगणना हो या सामान्य, इसका प्रभाव व्यापक होगा।
वर्तमान में, निजी सर्वेक्षण संस्थानों के आंकड़ों से पता चलता है कि 14 से 28 साल के युवाओं का महत्व बढ़ रहा है। उन्हें नौकरी मिलने लगी है और अब देश के कार्यबल में हर चार भारतीयों में से एक युवा नौकरी कर रहा है। यदि विकास दर इसी तरह बढ़ती रही, तो 2025 तक इस आयु वर्ग के हर दूसरे युवा के नौकरी में होने की संभावना है।
इन युवाओं की आर्थिक स्थिति भी सुधर रही है, जिसके चलते उनकी हिस्सेदारी कुल उपभोक्ता खर्च में 26 प्रतिशत तक पहुंच गई है, और कुछ अनुमानों के अनुसार यह 43 प्रतिशत तक भी हो सकती है। यदि देश का कुल उपभोक्ता खर्च 168 लाख करोड़ रुपये है, तो इसमें से 72.26 लाख करोड़ रुपये इस आयु वर्ग के युवाओं द्वारा खर्च किए जा रहे हैं। यह दर्शाता है कि युवा वर्ग की आर्थिक शक्ति और उपभोक्ता व्यवहार में तेजी से बदलाव आ रहा है।
अंदाज है कि 2035 तक देश का कुल उपभोक्ता खर्च 328 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगा, जिसमें नौजवानों की नई पीढ़ी का खर्च 51 प्रतिशत यानी 168 लाख करोड़ रुपये होगा। अगले दस वर्षों में, यह युवा वर्ग अपने खर्च को दोगुना कर देगा, जिसका सीधा असर बाजारों पर नजर आएगा।
नौजवानों की खर्च करने की प्राथमिकताएं बदल रही हैं। आज के युवा सबसे अधिक खर्च ट्रैवलिंग और पर्यटन पर कर रहे हैं, इसके बाद लाइफस्टाइल और पैकिंग फूड पर। साथ ही, वे नई तकनीकी डिवाइस जैसे मोबाइल, लैपटॉप, टैबलेट और चिप पर भी काफी खर्च कर रहे हैं। यह बदलाव बाजार की दिशा को नई रूपरेखा दे रहा है। बाजारों का चेहरा तेजी से बदल रहा है। बड़ी रियायती घोषणाएं हो रही हैं। लेकिन पारंपरिक दुकानों की संख्या घट रही है। युवा अब सैलून में जाते हैं और ब्रांडेड कपड़े पहनते हैं। मिठाइयों के स्थान पर पैक्ड फूड, चीनी और थाई रेस्तरां बढ़ रहे हैं।
14 से 28 साल के युवाओं ने कुल उपभोक्ता व्यय में अपने खर्च को 43 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है। वे 28 से 43 वर्ष के लोगों की तुलना में डेढ़ गुणा अधिक खर्च कर रहे हैं। इस बदलाव ने न केवल खर्च करने के तरीकों को बदल दिया है, बल्कि पुराने निवेशकों को नए अवसरों की तलाश करने पर भी मजबूर कर दिया है। इसके साथ ही, विरोधाभासी प्रवृत्तियों का भी उभार हो रहा है।
सरकार महंगाई से निपटने के लिए पिछले दो वर्षों से सख्त मौद्रिक नीति अपनाए हुए है, जिससे लोगों के हाथ में कम क्रय शक्ति रह गई है। ऋण महंगा होने के बावजूद मांग में विरोधाभास देखा जा रहा है। कार निर्माताओं को समझ नहीं आ रहा कि छोटी कारों के मुकाबले युवा बड़ी कारों को प्राथमिकता क्यों दे रहे हैं।
युवाओं का यह भी अजीब लगता है कि जब वे स्थायी नौकरी हासिल करते हैं, तो बड़े और महंगे फ्लैटों की ईएमआई चुकाने के लिए क्यों दौड़ते हैं। उत्सवों के समय मांग बढ़ जाती है, लेकिन यह परंपरागत मांग नहीं रह गई है, जिससे निवेशकों के लिए स्थिति हैरान कर देने वाली हो जाती है। यह बदलाव बाजार की प्रवृत्तियों को समझने में चुनौती पेश कर रहा है।
हाल के दिनों में शेयर मार्केट में अप्रत्याशित बिकवाली के साथ उतार-चढ़ाव देखने को मिला है। यह परिवर्तन उभरते समाज में उपभोक्ता संस्कृति के बदलते तेवरों का संकेत है, जो नए निवेश क्षेत्रों का विस्तार करेगा। जैसे यात्रा, पर्यटन और टेक्नोलॉजी। पैकेज फूड का व्यवसाय पारंपरिक हलवाइयों और बेकरियों के लिए चुनौतियां उत्पन्न करेगा।
युवा पीढ़ी तेजी से बदलते ट्रेंड को अपनाती हुई नजर आ रही है, और वे किसी भी ब्रांड के प्रति ज्यादा वफादार नहीं हैं; उन्हें बस आकर्षक और आधुनिक उत्पाद चाहिए। इसीलिए विज्ञापन जगत में नए-नए इंफ्लुएंसरों का प्रवेश हो रहा है।
देश में बाजारों का चेहरा और मांग के तरीके बदल रहे हैं। अगर देश को विकास की राह पर तेजी से आगे बढ़ना है, तो कर्णधारों को इन परिवर्तनों को स्वीकार करना होगा। पुराने तरीकों को छोड़कर नए दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, जिससे एक ऐसी उपभोक्ता संस्कृति का विकास हो सके जो वैश्विक हो, जबकि अपने मूल से भी जुड़े रहे।
लेखक साहित्यकार हैं।