सौरभ जैन
सदन के पटल पर बजट की एंट्री बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट ब्लॉकबस्टर मूवी-सी होती है। बजट ‘अरे दीवानों मुझे पहचानो कहां से आया मैं हूं कौन’ की धुन गुनगुनाते हुए आता है। ‘तुम आ गए हो नूर आ गया है’ यह कहते हुए आम आदमी पूरे दो घण्टे टीवी को समर्पित कर देता है। सास, बहू के सीरियल में रुचि लेने वाली जनता जब बजट देखने पर आती है, तो उनकी मंशा स्पष्ट होती है कि इस बजट में सस्ता क्या होने वाला है। आस्थावान देश के लोगों का इस बात में पूर्ण विश्वास होता है कि ‘देने वाला जब भी देता देता छप्पर फाड़ के’ ऐसे समय में जब लोगों की ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया हो।’ राजकोषीय घाटा, मुद्रास्फीति तो आम आदमी के लिए ‘हम आपके हैं कौन’ वाली बातें होती हैं, जो न समझ आती हैं और जिन्हें वह न समझना चाहता है। उसे तो बस ‘महंगाई डायन खाय जात है’ की चिंता सताती है।
आम आदमी अपने चेहरे पर अर्थशास्त्री सरीखी भाव-भंगिमाएं लिए एकाग्रचित्त होकर बजट भाषण सुनता है। अंत में उसे उतना ही समझ आता है जितना हॉस्टल के मेस में तुअर दाल में तुअर नजर आती है। बजट की इतनी उपयोगिता तो है कि आम आदमी स्वयं को वित्त विशेषज्ञ के तौर पर देख सकता है। बजट भाषण में जब लुभावनी घोषणाओं और वादों का दौर समाप्त होने के क्रम में होता तब आम आदमी की अंतरात्मा ‘अभी न जाओ छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं’ कर रही होती है। ‘लूट गया रे कोई दिल को पुकार के’ यह अवस्था वित्त विशेषज्ञ बने आदमी को फिर आम आदमी बना देती है। उसे संसार के शाश्वत सत्य से साक्षात्कार करवाती है कि ‘आदमी आदमी को क्या देगा’ पर क्या करे ‘ये दिल है कि मानता नहीं।’ बजट चर्चाओं का दौर पान की दुकानों से लेकर चाय की गुमटियों तक शुरू हो जाता है। रिपोर्टर बेरोजगारों से आयकर में कटौती के लाभ जानते नजर आते हैं। अभागा मिडल क्लास ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम कैसे हो हमारे कर्म’ ही करता रह जाता है। उसके हाथों में कुछ नहीं आता।
आम आदमी की शिकायतें ‘क्या हुआ तेरा वादा’ में उभर कर सामने आती हैं पर सरकारें वादा करने में विश्वास रखती हैं। ‘कैसे कैसों को दिया है मुझको भी तू लिफ्ट करा दे’ की भावना से आम आदमी अपनी महत्वाकांक्षा परिलक्षित भी करता है लेकिन ‘बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपया’ सारे अरमानों को ध्वस्त कर देता है। बजट वर्तमान के सच को झूठ की चादर ओढ़ाकर भविष्य के हसीन झूठे सपने दिखाता है। सपने सुहाने होते हैं मन को लुभाते हैं और उन सपनों पर ‘हम दिल दे चुके सनम तेरे हो गए हैं हम’ हो जाते हैं। पर कमबख्त ‘पैसा ये पैसा पैसा है कैसा’ जेब की स्थिति का अहसास करवा देता है। अंत में हमारे हिस्से ‘रुक जाना नहीं तू कभी हार के कांटों पर चलकर मिलेंगे साये बहार के’ भावों को स्थायी बनाने के अतिरिक्त विकल्प शेष नहीं बचता।