राजकुमार सिंह
त्योहारों का देश कहे गये भारत को चुनावों का देश कहना भी अतिरंजित नहीं होगा। पिछले साल नवंबर में बिहार विधानसभा चुनाव में जीत-हार के असर से राजनीतिक दल-नेता उबर पाते, उससे पहले ही पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज गया है। बेशक इनमें से चार (पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल) पूर्ण राज्य हैं, जबकि पुड्डुचेरी केंद्रशासित प्रदेश है। ये सभी अहिंदीभाषी राज्य हैं, जिन्हें मुख्यधारा की राष्ट्रीय राजनीति में अक्सर ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाता रहा, लेकिन इस बार परिदृश्य बदला हुआ है। बेशक इन राज्यों के चुनाव परिणाम राष्ट्रीय राजनीति और केंद्रीय सत्ता पर सीधा प्रभाव नहीं डालेंगे, लेकिन उनसे अप्रभावित रह पाना भी संभव नहीं होगा। कारण भी साफ हैं: केंद्र में स्पष्ट बहुमत के साथ पदारूढ़ भाजपा उत्तर भारत में लगभग अपराजेय नजर आती है, जबकि अब जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें असम के अलावा चार में तो उसे अपनी जमीनी हैसियत भी साबित करनी शेष है। इन राज्यों में भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों का बोलबाला है। ऐसे में ये चुनाव विरोधियों के लिए आत्मविश्वास की जरूरी डोज देने वाले हो सकते हैं तो भाजपा, विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक दल के अपने दावे के अनुरूप, दक्षिण-पूर्व में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाना चाहेगी।
राजनीति में स्थायी दोस्त या दुश्मन न होने की कहावत पुरानी है, लेकिन सत्ता-स्वार्थ या राजनीतिक दबाव धुर दुश्मनों को भी दोस्त बनने पर मजबूर कर देते हैं। उत्तर प्रदेश में कभी मिलकर चुनाव लड़ने और सरकार चलाने वाले मुलायम सिंह यादव और मायावती की रंजिश के किस्से आम हैं, लेकिन राजनीतिक अस्तित्व बचाने की खातिर उन्हीं मुलायम के बेटे अखिलेश बुआ मायावती के साथ गठबंधन कर पिछला लोकसभा चुनाव लड़ने को मजबूर हुए। उससे किसका कितना अस्तित्व बचा, यह अलग बहस का मुद्दा है, लेकिन विशुद्ध अवसरवाद पर टिकी वह दोस्ती लंबी नहीं चली। अब पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वाम मोर्चा का गठबंधन विशुद्ध राजनीतिक दबाव में परस्पर विरोधी विचारधाराओं की दोस्ती भी है। जब उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने समान विचार का दावा करने वाले सपा-बसपा गठबंधन को नहीं स्वीकारा, तब क्या पश्चिम बंगाल के मतदाता दशकों तक एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे कांग्रेस-वाम मोर्चा को स्वीकार करेंगे?
शेष देश की तरह पश्चिम बंगाल में भी स्वतंत्रता के बाद लंबे समय तक कांग्रेस का ही एकछत्र शासन रहा। दरअसल वाम मोर्चा ने कांग्रेस से ही पश्चिम बंगाल की सत्ता छीनी, और फिर उस पर तीन दशक से भी ज्यादा समय तक काबिज भी रहा। अब हम जो पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का शोर सुन रहे हैं, उसकी जड़ें भी कांग्रेस-वाम मोर्चा संघर्ष के समय से ही रही हैं। यह कहना तो पश्चिम बंगाल के मतदाताओं के विवेक और जनादेश का अपमान करना होगा कि वाम मोर्चा ने राज्य में कुछ भी अच्छा नहीं किया, लेकिन आखिरकार ममता बनर्जी के हाथों मान मर्दन के बाद वहां वामपंथियों की जैसी दुर्दशा सामने आयी है, वह बताती है कि लगातार शासन में रहते हुए वाम मोर्चा भी अंतत: खुद को सत्ताजनित चौतरफा चारित्रिक पतन से नहीं बचा पाया। ममता मूलत: कांग्रेसी हैं। दिल्ली का कांग्रेसी दरबार ही जब वाम मोर्चा से उनके संघर्ष में अक्सर भितरघात करता रहा तो उन्हें अपनी अलग तृणमूल कांग्रेस बनाने को मजबूर होना पड़ा। अलग क्षेत्रीय दल बनाने के बाद ममता ने भाजपा से भी गठबंधन किया और कांग्रेस से भी, लेकिन मतदाताओं का जनादेश उन्हें 2011 में तब मिला, जब वह अकेलेदम चुनाव लड़ीं।
वह चुनाव और उसके नतीजे भारतीय चुनाव के इतिहास में हमेशा उल्लेखनीय रहेंगे। 2016 के पिछले विधानसभा चुनाव तक राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य बदल चुका था। कांग्रेसनीत संप्रग सरकार केंद्र से विदा हो चुकी थी और नरेंद्र मोदी लहर पर सवार भाजपानीत राजग सरकार उसकी जगह ले चुकी थी, लेकिन उसका ज्यादा असर पश्चिम बंगाल पर नहीं दिखा : न 2014 के लोकसभा चुनाव में और न ही दो साल बाद विधानसभा चुनाव में। पांच साल की सत्ता विरोधी भावना के बावजूद तृणमूल कांग्रेस 294 में से 211 सीटें जीतने में सफल रही। यह जीत कितनी बड़ी थी, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दूसरे स्थान पर रही कांग्रेस को कुल 44 सीटें मिली थीं और भाजपा को मात्र तीन। फिर भी, कांग्रेस-वाम मोर्चा गठबंधन के बावजूद, अब अगर पश्चिम बंगाल में मुख्य मुकाबला तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच बताया जा रहा है तो इसे महज भाजपा का प्रचार युद्ध मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा लंबी छलांग लगाने में सफल रही थी। खुद तृणमूल में मची भगदड़ बताती है कि दीदी के संबोधन से लोकप्रिय ममता के खेमे में सब कुछ ठीक नहीं है। कांग्रेसी कुशासन से मुक्त कराने के सपने दिखा कर सत्ता में आया वाम मोर्चा खुद जिस तरह वैसी ही सत्ता-राजनीतिक विकृतियों का शिकार हो गया, राजनीतिक हिंसा समेत कुछ वैसी ही तस्वीर पिछले पांच साल में ममता राज की भी उभरी है। नीतीश कुमार के वापस राजग खेमे में चले जाने और उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के खेमेबाजी से परे ही रहने के चलते भाजपा विरोधी खेमे में फिलहाल ममता बनर्जी ही सबसे बड़ी जनाधार वाली आक्रामक नेता बची हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल में चुनाव जीतने के लिए लंबे समय से भाजपा ने जिस तरह सब कुछ झोंक रखा है, उसके मद्देनजर दीदी की पहली चुनौती तो राज बचाना ही होगी।
भाजपा न भी माने, पर सच यही है कि उसके लिए पश्चिम बंगाल से भी अहम होगा असम का चुनाव। असम पहला पूर्वी राज्य है, जहां भाजपा ने बाकायदा चुनाव जीत कर सरकार बनायी है। बेशक उसमें पूर्व कांग्रेसी हेमंत बिश्वा की भूमिका अहम रही, लेकिन वहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की लंबी मेहनत को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 2016 में भाजपा ने 126 में से 86 सीटें जीत कर असम में सरकार बनायी थी, जबकि लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहने वाली कांग्रेस महज 26 सीटों पर सिमट गयी थी। नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) पर जिन राज्यों में सबसे ज्यादा हल्ला मचा है, उनमें पश्चिम बंगाल और असम हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि आसन्न विधानसभा चुनावों में यह मुद्दा क्या भूमिका निभाता है। लोकसभा सीटों की संख्या की दृष्टि से देखें तो इन चुनाव वाले राज्यों में पश्चिम बंगाल के बाद सबसे अहम तमिलनाडु है। ध्यान रहे कि 2004 के लोकसभा चुनाव में अटलबिहारी वाजपेयी सरीखे कद्दावर राजनेता के नीचे से केंद्रीय सत्ता सिंहासन खिसकाने में कांग्रेस-द्रमुक गठबंधन की बड़ी भूमिका रही थी। दशकों से दो क्षेत्रीय दलों : द्रमुक-अन्नाद्रमुक के बीच बंटी तमिल राजनीति में फिल्मी चेहरे असल किरदार निभाते रहे हैं, जबकि राष्ट्रीय दलों की भूमिका पिछलग्गू की ही रही है। पिछले चुनाव में जयललिता के अन्नाद्रमुक ने 232 में से 136 सीटें जीत कर सरकार बनायी थी, तो करुणानिधि का द्रमुक 98 पर सिमट गया था, लेकिन अब ये दोनों लोकप्रिय शख्सियतें दुनिया में नहीं हैं। ऐसे में मतदाताओं का फैसला बहुत कुछ सत्तापक्ष और विपक्ष की रीति-नीति पर आधारित होगा। कांग्रेस का द्रमुक से गठबंधन बरकरार है तो भाजपा की दोस्ती सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक से है।
चौथा राज्य केरल है, जहां दो दलीय तो नहीं, पर दो ध्रुवीय राजनीति के चलते अक्सर चुनाव में सत्ता बदल जाती है। फिलहाल वहां वामपंथी मोर्चा एलडीएफ की सरकार है, जबकि उसका मुकाबला कांग्रेसनीत यूडीएफ से होगा। भारतीय राजनीति का विचित्र चरित्र भी इस मायने में केरल में दिखेगा कि पश्चिम बंगाल में मिलकर चुनाव लड़ने वाले कांग्रेस-वाम मोर्चा यहां एक-दूसरे से लड़ेंगे। 2019 में राहुल गांधी के यहां से लोकसभा चुनाव जीतने के चलते कांग्रेस के हौसले बुलंद हैं तो केरल में पैर जमाने की जद्दोजहद में भाजपा ने मेट्रोमैन के नाम से लोकप्रिय ई़ श्रीधरन को अपने पाले में लाने में सफलता पायी है। केंद्रशासित पुड्डुचेरी को तमिलनाडु की राजनीति का ही विस्तार माना जाता रहा है, लेकिन पिछली बार तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक की जीत के विपरीत वहां कांग्रेस ने द्रमुक के साथ मिलकर सरकार बनायी। वी़ नारायणसामी की वह सरकार इसी सप्ताह अपने अंतर्विरोधों और विरोधियों की कारगुजारियों की भेंट चढ़ गयी। देखना दिलचस्प होगा कि वहां कांग्रेस का सहानुभूति कार्ड चलेगा या केंद्रीय सत्ता पर सवार आक्रामक भाजपा के दांवपेच। इन राज्यों में चुनाव की तारीखों की घोषणा भले ही चुनाव आयोग ने शुक्रवार को की हो, लेकिन राजनीतिक दांवपेच तो अरसे से चले जा रहे हैं। यहां तक कि केंद्रीय बजट और पद्म पुरस्कार तक इससे अछूते नहीं रह पाये। यह जानना दिलचस्प होगा कि इस बार केंद्रीय बजट में इन चुनावी राज्यों को लगभग सवा दो लाख करोड़ आवंटित किये गये तो 29 प्रतिशत पद्म पुरस्कार भी इन्हीं के हिस्से आये।
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