दुनिया में और किसी भी सार्वजनिक पद के लिए होने वाला चुनाव वैश्विक स्तर पर इतना ध्यान आकर्षित नहीं करता जितना कि संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति चुना जाना। अमेरिका दुनिया का सबसे प्रभावशाली देश बना हुआ है। इसका राष्ट्रपति दुनिया का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति होता है, जो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, सबसे बड़ी तकनीकी श्रेष्ठता एवं वैज्ञानिक आधार और सबसे विशाल सशस्त्र सेनाओं की अध्यक्षता करता है। हालांकि, यह अभी भी किसी महिला को अपना राष्ट्रपति चुनने के लिए तैयार नहीं है। डोनाल्ड ट्रम्प ने इस बार के चुनाव में अपने महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह युक्त व्यक्तित्व के बावजूद हिलेरी क्लिंटन और कमला हैरिस को हरा डाला। जाति और वर्ग के वर्चस्व वाली राजनीति में, लैंगिक पहलू पीछे छूट गया। जनमत सर्वेक्षण एक बार फिर से उलट सिद्ध हुए।
बर्लिन से लेकर टोक्यो, मॉस्को से बीजिंग, तेल अवीव से लेकर तेहरान और वास्तव में, नई दिल्ली तक भी, प्रत्येक सरकार ट्रम्प द्वारा अपनी टीम के चयन पर बारीक नज़र रखेगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह उनका दूसरा कार्यकाल होगा, उन्होंने पिछले कई सहयोगियों से किनारा कर लिया तो वहीं कइयों ने उनका साथ छोड़ दिया। दुनिया ट्रंप को नए सिरे से देखेगी क्योंकि राष्ट्रपति के इर्द-गिर्द नए चेहरे होंगे और व्हाइट हाउस में उनके पिछले कार्यकाल के बाद से दुनिया बदल चुकी है।
घरेलू स्तर पर, ट्रंप का पहला काम स्थिरता सुनिश्चित करना और अपने अल्प-सुविधा प्राप्त समर्थकों, खासकर कामकाजी वर्ग को, उम्मीद प्रदान करना होगा। अमेरिकी अर्थव्यवस्था वर्तमान में ठीक-ठाक आगे बढ़ रही है, आर्थिक विकास 2 प्रतिशत से अधिक है। हालांकि, बेरोजगारी ट्रंप के मुख्य मतदाताओं के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। एक तरफ अपने जैसे करोड़पति और अरबपति वर्ग का लालचीपन तो दूसरी तरफ कम आय वाले और सामाजिक एवं आर्थिक रूप से दबे अपने समर्थकों की ज़रूरतों के बीच वे संतुलन कैसे बना पाएंगे, यह देखना बाकी है।
विदेशी मामलों में, ट्रंप यूरोप और पश्चिम एशिया में संघर्ष को सुलझाने में व्यस्त रहेंगे। उन्होंने चुनाव प्रचार में आर्थिक और विदेश नीति पर ‘वाशिंगटन सर्वसम्मति’ नामक रुख त्यागने का वादा किया था। उनसे उम्मीद की जाती है वे रूस के व्लादिमीर पुतिन के साथ मित्रता बनाएंगे। परंतु चीन को लेकर कयास है कि सख्त रुख अपनाते हुए उसके उत्पादों पर उच्च आयात शुल्क ठोकेंगे, लेकिन यह भी हो सकता है कि व्यावहारिक समझौतावादी रुख अपनाएं। पश्चिम एशिया में, उनसे ईरान को निशाना बनाने की उम्मीद की जा रही है, शायद सत्ता परिवर्तन के लिए दबाव डालते हुए, कदाचित वे इस्राइल के बेंजामिन नेतन्याहू पर नकेल कसना चाहेंगे।
इनमें से प्रत्येक अपेक्षित कार्रवाई का दीर्घकालिक असर अमेरिका और दुनिया पर होगा। क्योंकि ट्रम्प ने अगले चार वर्षों में ‘अमेरिका को पुनः महान बनाने’ का वादा किया है। ट्रिलियन-डॉलर का सवाल यह है कि क्या ट्रम्प संविधान में बदलाव करते हुए एक व्यक्ति को तीसरी बार राष्ट्रपति बनने वाला प्रावधान बनवाने हेतु दबाव डालेंगे। जो भी हो, लेकिन ट्रम्प का द्वितीय कार्यकाल उनके प्रथम वाले से अलग रहने की उम्मीद की जानी चाहिए क्योंकि उम्र और समय उनके पक्ष में नहीं हैं।
अमेरिका का शासन कैसे चलाया जाए, बेशक ट्रम्प इस पर एक दीर्घकालीन प्रभाव डाल सकते हैं, लेकिन दुनिया को अपने नजरिए और अपनी पसंद के अनुसार चलाने की अमेरिका की क्षमता तेजी से सीमित होती जा रही है। अमेरिका को सहयोगियों और दोस्तों के साथ मिलकर काम करना पड़ेगा। यूरोप और जापान दोनों ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने को लेकर चिंतित हैं। पिछली बार, यूरोप में एंजेला मर्केल और जापान में शिंजो आबे थे। हाल की घड़ी, यूरोपीय या पूर्वी एशियाई नेताओं में कोई एक ऐसा नहीं है जो ट्रम्प के सामने तनकर खड़ा हो सके या उन्हें नियंत्रित करने में सक्षम हो, बल्कि शायद उनके पिछलग्गू बन जाएं।
पुतिन को राहत मिलेगी या नहीं और वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को नर्म पड़ने के लिए कहा जाएगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि ट्रम्प और उनके सलाहकार अमेरिका के ‘डीप स्टेट’ एवं सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ और रूस के प्रति बाइडेन के दृष्टिकोण के पीछे कारक रहे तत्वों पर कितना नियंत्रण बना पाएंगे। हालांकि, यह उम्मीद की जानी चाहिए कि पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोनों, कम से कम शुरुआत में, ट्रम्प प्रशासन के साथ दोस्ती बनाने की कोशिश करेंगे। विडंबना और कयास के विपरीत, हो सकता है कि ट्रम्प का पहला साल बाइडेन के आखिरी वर्ष की निस्बत वैश्विक रूप से अधिक शांत रहे।
सौभाग्यवश, भारत के समीकरण राष्ट्रपति ट्रम्प के साथ अच्छे रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर, दोनों ने, ट्रम्प के नजदीकी दायरे के लोगों के साथ संपर्क कायम रखा। हालांकि, भारतीय नेतृत्व को इस आधार पर आगे बढ़ना चाहिए कि ट्रम्प का द्वितीय कार्यकाल, तमाम संभावनाओं के साथ, पिछले वाले से अलग होने वाला है। भारत के लिए नीतिगत रुचि के क्षेत्र में, ट्रम्प की आयात-निर्यात नीति और ‘अमेरिका फर्स्ट’ वाला दृष्टिकोण जिन विषयों में चुनौती पेश कर सकता है, वह हैं, व्यापार, आव्रजन और जलवायु परिवर्तन। मैं उदार अमेरिकी वीज़ा व्यवस्था का बड़ा समर्थक नहीं रहा क्योंकि यह भारत से प्रतिभाओं के पलायन में मददगार रहा। अगर ट्रम्प के कुछ पुराने सलाहकारों, विशेष रूप से पूर्व अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइटहाइज़र जैसे लोगों की राष्ट्रपति कार्यालय में वापसी हो गई तो परस्पर व्यापार में चुनौती बन सकती है।
रक्षा उपकरण खरीद और आपूर्ति शृंखलाओं के माध्यम से भारत का अमेरिका के साथ जुड़ाव बना रहेगा। हालांकि, मोदी सरकार को सावधानी से कदम बढ़ाने और अमेरिका के राजनीतिक व्यूह में न फंसने की सलाह है, जो कि पिछले चार वर्षों में हम कर चुके हैं। शायद गुरपतवंत सिंह पन्नूवाला मामला खत्म नहीं होगा क्योंकि यह पहले ही अदालत में चल चुका है। इस केस से उठती लहरें भारतीय तटों को छूती रहेंगी। ट्रम्प के प्रथम कार्यकाल के दौरान, शिंजो आबे पहले राजनेता थे जिन्होंने व्हाइट हाउस का दरवाज़ा खटखटाया, दोस्ताना हाथ बढ़ाया, एक अहंकारी को तुष्ट किया और क्वाड जैसा संगठन बनाने का विचार सिरे चढ़ाया, जिसका लाभार्थी भारत रहा। आबे एक दूरंदेश राजनेता और भारत के मित्र थे जबकि उनके उत्तराधिकारी महज राजनीतिक नेता हैं, वह भी खुद घिरे हुए, और भारत के प्रति अधिक अनुकूल नहीं। हो सकता है ट्रम्प भारत के प्रति मित्रवत रहें लेकिन हमारा देश उनकी तत्काल प्राथमिकता नहीं है। सबसे बढ़िया यही रहेगा कि मोदी जैसे मित्र कुछ समय के लिए घर पर बने रहें और अमेरिकी सहयोगियों, विशेष रूप से यूरोपियनों को, व्हाइट हाउस पर अपनी बेचैन हाजिरी भरने दें। ट्रम्प ने कहा कि वह व्हाइट हाउस लौट पाए क्योंकि भगवान ने उन्हें बचाया है। वे राजनीतिक नेता जो खुद को ‘भगवान और भाग्य द्वारा चुना गया’ बताते हैं, अक्सर अच्छे की बजाय नुकसान ज्यादा किया करते हैं। किसी के प्रति दोस्ती का इज़हार बहुत उत्सुक होकर करने की बजाय उसके ठंडा पड़ने और होश ठिकाने आने का इंताजार करना, सबसे उत्तम तरीका है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।