संजोय हज़ारिका
एशिया में हिमालय पर्वतमाला और तिब्बती पठार के एक छोर से दूसरे सिरे तक जिस तरह तथाकथित विकास का दबाव आज देखने को मिल रहा है वैसा कभी नहीं देखा गया। कुदरत ने अपने तरीके से इनसान को बारम्बार खुला सबक देकर चेताने की कोशिश की है। गढ़वाल हिमालयी इलाके में इस पाठ के कई उदाहरण मिल भी चुके हैं और यह सिलसिला पूर्व की ओर चंद्राकार लीक में नेपाल, भूटान और यहां तक कि तिब्बत में भी देखने को मिल रहा है। पश्चिमी से पूर्वी छोर तक कहानी एक-सी है और इसके पीछे पूरी तरह मानव की लालची प्रवृत्ति है, इस दोहन में अफसरशाही, राजनेता और व्यापारिक घराने शामिल हैं। प्रकृति का जवाब हमें निर्मम रूप में भुगतना पड़ता है-तब अक्सर खमियाजे में इनसानी जानों के अलावा जैविक संपदा, वर्तमान और निर्माणाधीन परियोजनाओं को भारी नुकसान सहना पड़ता है।
बीती 7 फरवरी को हिमालय में एक ग्लेशियर के टूटने वाली आपदा में हमने देखा कि किस तरह उत्तराखंड के ऋषिगंगा इलाके के एक संकरे खड्ड से होकर बर्फ, पानी, पत्थर और मिट्टी के सैलाब ने तांडव मचाया था। इस प्रवाह की ताकत इतनी कि रास्ते में पड़ती दो पनबिजली परियोजनाओं को यूं उड़ा डाला, मानो माचिस की डिब्बियां हों।
गंगा नदी को आमतौर पर जीवनदायिनी ‘गंगा मईया’ कहा जाता है। जल संसाधन मंत्रालय ने नारा गढ़ा है ‘अविरल से निर्मल गंगा’, तथापि गंगा नदी इन परियोजनाओं से मलिन हो रही है। सिक्किम हो या उत्तराखंड, यही देखने को मिलता है कि सड़क और बांध परियोजना के निर्माण कार्य में मलबा सीधा नीचे की ओर गिरा दिया जाता है, जो जलधारा में घुल जाता है। इससे न केवल धारा का मुक्त प्रवाह बाधित होता है बल्कि जल के पोषक तत्वों का ह्रास होता है। पिछले सितंबर में ऋषिकेश से आगे की यात्रा के दौरान देखने को मिला कि डायनामाइट के कर्णभेदी धमाके के बाद धूल का गुब्बार देर तक हवा में तैरता रहता है और मलबे-चट्टानों को क्रेन और बुलडोज़र ढलानों से नीचे ठेल देते हैं, जो सीधे गंगा नदी में जा समाता है।
हालांकि, चार धाम परियोजना का अपना एक सामरिक पहलू भी है क्योंकि अच्छी सड़कें होने से सुरक्षा बलों के लिए चीन सीमा तक आवाजाही बेहतर हो सकेगी, पिछले दिनों लद्दाख में हुए संघर्ष उपरांत इसका महत्व ज्यादा हो गया है। तथापि जल्दबाजी से और ज्यादा समस्याएं पैदा हो सकती हैं और चमोली सरीखी हालिया त्रासदी इसे रेखांकित करती है।
हिमालय और तिब्बत के पठार को धरती का तीसरा ध्रुव कहा जाता है। सर्वविदित है कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बाद हिमालय में बर्फ के रूप में जमा पेयजल भंडार पृथ्वी पर सबसे ज्यादा है। वहां बड़े पैमाने पर चल रही परियोजनाएं, आधारभूत ढांचे का विकास और मौसम में बदलाव की वजह से इसके सनातन वजूद को खतरा बन गया है। तिब्बती पठार और हिमालय हालांकि अलग क्षेत्र है किंतु गर्भनाल से आपस में जुड़े हैं। विकास बेशक आवश्यक है, किंतु साथ ही मानव को यह समझने की भी जरूरत है कि बदल रहे मौसमी चक्र से सबक लेते हुए यह पहले की तरह बेलगाम न हो। ताजा आपदा वर्ष 2013 में आई भयंकर बाढ़ के 8 वर्ष बाद हो गुजरी है, जिसमें 6000 लोग मारे गए थे, यह प्रकरण बताता है कि अभी भी कोई सबक नहीं सीखा गया।
वर्ष 2014 में केंद्र सरकार की एक कमेटी ने केंद्र से उत्तराखंड में चल रही 23 पनबिजली परियोजनाओं को बंद करने की सिफारिश की थी, विशेषकर संवेदनशील ज़ोन में। इसका निष्कर्ष था कि 2013 की बाढ़ आने में पनबिजली योजनाओं की बड़ी भूमिका थी। वर्ष 2020 से पहले केंद्र सरकार को पर्यावरणीय एवं सामाजिक प्रभाव का आकलन करवाना चाहिए था। सरोकार रखने वाले विभिन्न समूहों के साथ संवाद बनाना एक सामाजिक दायित्व है। तथापि, लोगों को साथ जोड़ने वाला यह कदम अब नदारद है और परियोजनाओं में स्थानीय समुदायों की भूमिका को नज़रअंदाज किया जाता है। उनका नजरिया महत्व रखता है क्योंकि यही लोग इस क्षेत्र के असली रखवाले हैं। उदाहरण के रूप में 50 साल पहले वनों की अंधाधुंध कटाई रोकने के लिए महिलाओं के नेतृत्व में चलाया गया मशहूर चिपको आंदोलन है। जैसा कि पर्यावरणविद सुनीता नारायण कहती हैं ‘नदियां जीवित रहें, यह सर्वप्रथम अनिवार्यता है जबकि हमारी जरूरतें बाद में आती हैं। वरना, नदियां हमें कड़वा सबक देना जारी रखेंगी, यह प्रकृति द्वारा बदला लेने और नाराज़गी दिखाने का तरीका है।’
इसलिए नदियों में न्यूनतम पर्यावरण हितैषी बहाव सुनिश्चित करना अत्यंत आवश्यक है ताकि जलप्रवाह की मात्रा और सततता बनी रहे। यह न्यूनतम जलधारा मछलियों और डॉलफिन जैसे जलीय जीवन के लिए जरूरी है, साथ ही नदी किनारे बने खेत और समुदायों की जरूरतों के लिए भी। अक्तूबर, 2018 में केंद्र सरकार ने न्यूनतम जलधारा कानून लागू किया था, जिसके तहत मुख्य पनबिजलीघरों को सुनिश्चित करना है कि देवप्रयाग और हरिद्वार के बीच गंगा नदी में साल के अलग-अलग समय में कम-से-कम 20-30 फीसदी पानी सदा बना रहे। किंतु आधिकारिक समीक्षा बताती है कि अधिकांश प्रोजेक्ट इस न्यूनतम अनिवार्यता का पालन करने में खरे नहीं उतरते।
पनबिजली परियोजना की जरूरत है कि नदियां साफ रहें ताकि गाद और पत्थर बिजली बनाने वाली टरबाइनों को नुकसान न पहुंचा सके। परंतु इस फेर में उन्हें पोषक तत्व रहित बना दिया गया है क्योंकि मछलियों और खेतों के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत जरूरी यही वे अवयव हैं जो बहकर आई मिट्टी और जैव पदार्थों में समाए होते हैं। चीन की सरकार ने असम और बांग्लादेश के लिए जीवनदायिनी त्सांगपो-ब्रह्मपुत्र नदी के ऊपर पनबिजली परियोजना के लिए महाकाय बांध बनाने की घोषणा की है। इसका विरोध किया जाना चाहिए। हिमालयी क्षेत्र में चल रही इन तमाम गतिविधियों की सबसे बड़ी शिकार नदियां हुई हैं और नदियां हैं कि बदले का सबक सिखाने के अलावा उनके पास अपना दर्द और गुस्सा बयां करने का कोई जरिया नहीं है।