धीरा खंडेलवाल
अच्छा वक्त जब साथ छोड़ देता है तब बुरा वक्त हाथ थाम लेता है और दूर तक आपके, उस इंतजार के साथ कि अच्छा वक्त आयेगा, साथ-साथ चलता रहता है।
आपको कहां पता होता है कि अच्छा वक्त कितनी दूर निकल गया है और उसे लौटने में कितना वक्त लगेगा।
यह बुरा वक्त भी सच में बुरा ही होता है।
कितने लोगों को विवस्त्र कर जाता है,
कितनों की कलई उतार देता है,
रिश्तों की गांठें ढीली कर जाता है।
आपके मन को रुला-धुला के आंखों पर पड़े परदे हटा देता है। हर वक्त आपके दिलोदिमाग में बसा रहता है। उसका थोड़े समय का साथ भी बहुत लम्बा लगता है।
जब वह वापसी का रुख करता है तब तक तमाम विश्वासों, अपेक्षाओं से निर्वाण प्राप्त हो चुका होता है। कर्तव्यों, सहायताओं, अपनों आदि अतीत की प्रतीति से मन उखड़ चुका होता है।
आगे एक निर्मल नीला आकाश आपको, अच्छे वक्त की भोर का भरोसा दे, पथ प्रदर्शित करता है। और यह समझाता है कि सूर्यास्त सूर्य का अंत नहीं होता है। रात का वक्त भी सदा अंधकार नहीं होता है।
वक्त से जो हारा नहीं, वही खुशियों का हरकारा। साल हर साल बदल जाता है, कोई उसकी इस फितरत का ग़म नहीं मनाता, ताने नहीं मारता, सालों साल कोसता नहीं। उलट उसके जाने पर जश्न मनाता है। नवागंतुक का जोरदार स्वागत किया जाता है। कंजूस की अंटी से भी पैसे निकल आते हैं। दूसरों पर दिल खोल खजाना लुटाया जाता है। सभी स्वार्थ से ऊपर ऊठ चुके होते हैं। अकेले थोड़े न कोई अभिनंदन आरती करता है। वक्त वक्त की बात है जब जाने वाले का ग़म नहीं मनाया जाता। बदलगीर या बदलखोर, बदलू या बदलबाज कहें ऐसे बरस को जो हर बरस बदले कोई भला-बुरा भी नहीं कहता। वर्ष भी तो वक्त है, फिर यह भेदभाव क्यों।
वर्ष का बदलना सहर्ष स्वीकार है तो वक्त के बदलाव पर हाय तौबा कैसी?
लेखिका साहित्यकार व पूर्व वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैं।