ऐसे वक्त में जब भारत समेत अन्य विकासशील देश पहले से निर्धारित वायु गुणवत्ता के मानकों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नये मानकों को और कठोर बना दिया है। निस्संदेह डेढ़ दशक पूर्व निर्धारित मानकों को वैश्विक बदलाव के मद्देनजर बदला जाना चाहिए लेकिन जब पहले से निर्धारित लक्ष्य ही पूरे नहीं हो पा रहे हैं तो नये मानकों पर पालन आसान नहीं लगता। कमोबेश दुनिया की नब्बे फीसदी आबादी पहले ही पूर्व में निर्धारित मापदंडों के अनुसार दूषित हवा में सांस ले रही है। जाहिर है नये मानक तय करने से और मुश्किलें पैदा होंगी। लक्ष्य को असंभव देखकर अन्य देशों में इसे नियंत्रित करने के प्रयासों में उत्साह कम होगा। ऐसे में सवाल उठता है कि जब दुनिया में पुराने मानक पूरे नहीं हो पा रहे हैं तो नये सख्त मानक क्यों? निस्संदेह, पूरी दुनिया में जिस तेजी से ग्लोबल वार्मिंग का संकट गहरा रहा है, उसे देखते हुए पर्यावरण शुद्धता की मांग जोर पकड़ती जा रही है। ऐसा हमारा दायित्व भी है लेकिन गरीब मुल्कों की अपनी सीमाएं उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं क्योंकि बड़ी आबादी की जीविका का प्रश्न उनके सामने पहले है। वैसे भी यह प्रदूषण पेट्रोलियम व खनिज ईंधनों के उपयोग से बढ़ता है। यह भयावह है कि दुनिया में हर साल सत्तर लाख मौतें प्रदूषित वायु के चलते होती हैं। मगर डब्ल्यूएचओ ने पीएम 2.5 व पीएम 10 के जो नये मानक तय किये हैं, उन्हें जनसंख्या व जीविका के दबाव के चलते पूरा करना विकासशील देशों के लिये आसान नहीं होगा। कायदे से तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिये इन मानकों का पालन अपरिहार्य ही है। हाल के दिनों में ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम के जो विनाशकारी तेवर पूरी दुनिया में नजर आए हैं, उसका दबाव डब्ल्यूएचओ पर भी है। उसके नये मानकों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
निस्संदेह सरकार के स्तर पर प्रदूषण के कारकों पार्टिकुलेट मैटर, सल्फर डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड को नियंत्रित करने के प्रयास होने चाहिए और नागरिकों को भी इस अभियान में शामिल करना चाहिए। जागरूकता अभियान से डब्ल्यूएचओ के नये मानकों को पूरा करने की दिशा में भी पहल होगी। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि स्विस संगठन आईक्यू एयर द्वारा जारी विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट-2020 के अनुसार दुनिया के तीस सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में से बाइस भारत में स्थित हैं। वहीं दिल्ली को दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानियों में शामिल किया गया है। बहरहाल, डब्ल्यूएचओ की सिफारिशें ऐसे वक्त पर आई हैं जब भारत के वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग ने पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सरकारों को पराली जलाने से किसानों को रोकने और इसे नियंत्रित करने के लिये निगरानी योजनाओं को सख्ती से लागू करने के निर्देश दिये हैं। निस्संदेह, पराली जलाना सर्दी की शुरुआत में वायु की गुणवत्ता को खराब करने का एक बड़ा कारक रहा है। ऐसे में जब वर्ष 2021-22 में बेहतर खरीफ फसल उत्पादन की उम्मीद है तो पराली संकट बढ़ने की भी आशंका है। हालांकि, हरियाणा में एक लाख एकड़, उत्तर प्रदेश में छह लाख एकड़ व पंजाब में साढ़े सात हजार एकड़ से अधिक भूमि पर पराली को खाद में बदलने की योजना पर काम चल रहा है, लेकिन अन्य वैकल्पिक प्रयासों की भी जरूरत है। पर्यावरण अनुकूल विधियों में बायोमास और बिजली उत्पादन संयंत्रों में धान की भूसी के रूप में इसका इस्तेमाल भी संभव है। यदि किसानों को पराली बेचने के लाभदायक विकल्प मिलेंगे तो वे इस जलाने से बचेंगे। हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव की अध्यक्षता में एक बैठक में हरियाणा सरकार द्वारा बताया गया था कि राज्य में पराली जलाने से रोकने के लिये 200 करोड़ रुपये की प्रोत्साहन राशि किसानों को आवंटित की गई है और एक लाख एकड़ भूमि में जैव अपघटन के प्रयास जारी हैं। हरियाणा सरकार का दावा है कि राज्य में फसल विविधीकरण योजना के चलते धान बुवाई के क्षेत्र में दस फीसदी की कमी आई है।