भले ही लाखों भारतीय युवाओं के लिये अमेरिका एक सुनहरे सपनों का देश हो, लेकिन नये साल की शुरुआत में पांच प्रतिभावान भारतीय छात्रों की मौत बताती है कि वहां जमीनी हकीकत खासी कंटीली है। अपनी मेधा-परिश्रम के बूते अपनी विशिष्ट जगह बनाते भारतीय युवा उन काहिल अमेरिकी युवाओं की आंख की किरकिरी बने हुए हैं जिन्हें लगता है कि भारतीय युवा उनकी जगह ले रहे हैं। दरअसल, इस सोच को दक्षिणपंथी राष्ट्रपति रहे डोनाल्ड ट्रंप ने हवा दी। डोनाल्ड ट्रंप तो युवाओं का राजनीतिक दोहन करके चले गए लेकिन पथभ्रष्ट अमेरिकी सफलता की नई इबारत लिख रहे युवा भारतीयों को निशाना बना रहे हैं। हालात कई भारतीय छात्रों के स्वप्नों का अमेरिका में दु:स्वप्न बनाया जा रहा है। फरवरी के पहले सप्ताह में शिकागो में एक भारतीय युवा को अज्ञात हमलावरों ने निशाना बनाया। इससे पहले एमबीए की डिग्री हासिल करने वाले विवेक सैनी की लिथोनिया में पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। इंडियाना में समीर कामत पिछले सप्ताह मृत पाए गए। एक अन्य छात्र नील आचार्य लापता हुए, बाद में उनकी मृत्यु होने की पुष्टि हुई। वहीं एक युवा अकुल धवन, जो इलिनोइस विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था, पिछले माह मृत पाया गया। इसी तरह श्रेयस रेड्डी की मौत की खबर कुछ सप्ताह पूर्व आई। निश्चय ही ये हत्याएं उन छात्रों को व्यथित करने वाली हैं जो अमेरिका में अपने सपनों का संसार देखते हैं। निस्संदेह, ये घटनाएं उन मां-बाप के लिये दुखदायी हैं जो अपने चल-अचल संपत्ति बेचकर या जीवन की सारी पूंजी लगाकर अपने बच्चों का भविष्य संवारने अमेरिका भेजते हैं। ये बच्चे नस्लवादी व नशेड़ियों की हिंसा का शिकार बन रहे हैं। आज एक प्रतिशत भारतीय अमेरिकी अर्थव्यवस्था में छह फीसदी आयकर दे रहे हैं। उनकी संपन्नता कुछ अमेरिकियों की आंख में खटकती है। दरअसल, अमेरिका में बेरोजगारी काफी है और अपनी अयोग्यता के चलते भारतीय छात्रों का मुकाबला नहीं कर पाते। यह दुराग्रह उन्हें कालांतर में हिंसक बनाता है।
दरअसल, केवल अमेरिकी युवा ही नहीं, अमेरिकी पुलिस भी नस्लवाद मुक्त नहीं है। एक भारतीय छात्रा की सड़क दुर्घटना में हुई मौत पर संवेदनहीन टिप्पणी करता एक पुलिसवाला पिछले दिनों सुर्खियों में था। सारी दुनिया में मानवाधिकारों व सांप्रदायिक सौहार्द की ठेकेदारी करने वाला अमेरिकी प्रशासन भी इस दिशा में गंभीर नजर नहीं आता। रोजगार के अवसरों की कमी के चलते उत्पन्न असंतोष की वजह से बड़ी संख्या में अमेरिकी युवा नशे और अपराध की दुनिया में उतर रहे हैं। यह दुखद ही है कि पिछले एक साल में अमेरिका में रह रहे पांच सौ बीस भारतीय मूल के लोगों के साथ नस्लीय हिंसा की घटनाएं हुई हैं जो पिछले साल के मुकाबले में चालीस फीसदी अधिक हैं। हिंसा की चपेट में केवल छात्र ही नहीं हैं बल्कि वहां नौकरी कर रहे और वहां बस चुके लोग भी शामिल हैं। दरअसल, पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सार्वजनिक टिप्पणी की थी कि भारतीय युवा अमेरिकी युवाओं का हक छीन रहे हैं। उनका दावा था कि सत्ता में आने पर वे उनका हक दिलवाएंगे। यही वजह है कि दक्षिणपंथी ट्रंप को आज भी अधिक अमेरिकी युवाओं का समर्थन मिल रहा है। दक्षिणपंथी अमेरिकियों को इस बात से भी परेशानी है कि बाइडन प्रशासन भारतीय मूल के लोगों को अधिक तरजीह दे रहा है। आंकड़े बता रहे हैं कि बाइडन सरकार ने सवा सौ से अधिक महत्वपूर्ण पदों पर भारतीय मूल के लोगों की नियुक्ति की है। यहां तक कि आज अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस भी भारतीय मूल की हैं। निस्संदेह, ऐसी स्थिति में भारतीय समुदाय के लोगों और राजनयिक कर्मचारियों को छात्रों तक पहुंचाने और उनकी समस्याओं को दूर करने के लिये अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। उन्हें समयबद्ध तरीके से जांच करवाने के लिये कानून प्रवर्तन एजेंसियों पर भी दबाव बनाने का प्रयास करना चाहिए। भारतीय छात्रों को भी सचेत रहने की जरूरत है कि खुद को दुनिया का आदर्श लोकतंत्र कहने वाले अमेरिका में नस्लीय सड़ांध गहरे तक है। विडंबना यह है कि अमेरिकी मीडिया, जो भारत में छोटी-छोटी घटनाओं पर हो-हल्ला करता रहता है, घृणा के अपराधों को उजागर करने तथा भारतीय छात्रों की दशा पर खामोश रहता है।