पिछले दिनों लगातार होती रही रेल दुर्घटनाएं हर किसी व्यक्ति को परेशान करती रही हैं। दुनिया के चौथे सबसे बड़े रेलवे नेटवर्क पर हम भारतीय गर्व करते रहे हैं। करीब सवा बारह लाख कर्मचारियों वाला भारतीय रेलवे दुनिया की आठवीं सबसे बड़ी व्यावसायिक इकाई है। लेकिन गाहे-बगाहे होने वाली रेल दुर्घटनाएं हमें विचलित करती हैं कि रेल यात्री की जिंदगी इतनी सस्ती क्यों है? जिन लोगों के पास रेलवे सुरक्षा का जिम्मा है क्या वे अपने दायित्वों का निर्वहन सही ढंग से नहीं कर पा रहे हैं? निस्संदेह, देश में भारतीय रेलवे दशकों तक राजनीतिक हित साधने का शार्टकट माध्यम रहा है। गठबंधन सरकारों में घटक दलों के सांसदों में रेल मंत्रालय लेने की होड़ रहा करती थी। वजह थी कि अपने राज्य व संसदीय क्षेत्रों के बेरोजगारों को विशाल रेल तंत्र में खपाया जा सके। यह यक्ष प्रश्न है कि राजनीतिक हस्तक्षेप से की गई नियुक्तियां किस हद तक किसी विभाग या काम की गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं। विडंबना यह भी कि राजनीतिक लाभ के लिये नित नयी ट्रेनों की घोषणा करने वाले राजनेताओं ने रेलवे में सेवा की गुणवत्ता व सुरक्षा के पहलुओं को उतनी गंभीरता से नहीं लिया। कोई वैज्ञानिक अध्ययन सामने नहीं आया जो इस बात की व्याख्या कर सके कि पुराना रेलवे ढांचा क्या तेज गति की ट्रेनों के दबाव को सह लेगा? सर्वविदित है कि तमाम छोटी-बड़ी रेल दुर्घटनाओं के मूल में मानवीय चूक का पहलू भी सामने आता रहा है। लेकिन हाल के दिनों में रेलों को पटरी से उतारने की साजिश का जो एंगल सामने आया है, वह बेहद डरावना है। दरअसल, आधा दर्जन से अधिक स्थानों पर रेल की पटरी पर ऐसे अवरोधक पाये गए हैं, जो रेल को पटरी से उतारकर बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकते थे। इस बाबत कुछ वीडियो सुर्खियों में रहे, जिसमें पाक में सक्रिय कट्टरपंथी भारतीय रेलों को पटरी से उतारने की बात कर रहे थे।
बीते रविवार उ.प्र. में कानपुर के निकट प्रयागराज-भिवानी कालिंदी एक्सप्रेस पटरी पर रखे एलपीजी सिलेंडर से टकरा गई। शुक्र है कि सिलेंडर छिटकने से विस्फोट न हो पाने पर दुर्घटना का खतरा टल गया। इस तरह पटरी से ट्रेन को उतारने की साजिश विफल हो गई। वास्तव में पिछले कुछ वर्षों में तमाम तेज गति की नई ट्रेनें पटरियों पर दौड़ रही हैं। उनकी गति भी बढ़ी है और रेलों की आवाजाही भी। ऐसे में सुरक्षा के प्रबंध चाकचौबंद न होने से हजारों यात्रियों की जान का जोखिम बना रहता है। यहां उल्लेखनीय है कि पिछले महीने भी कानपुर के पास ही वाराणसी-अहमदाबाद साबरमती एक्सप्रेस के करीब दो दर्जन डिब्बे पटरी से उतर गये थे। तब भी चालक ने किसी चट्टान के इंजन से टकराने की बात कही थी। इससे पहले चंडीगढ़-डिब्रूगढ़ एक्सप्रेस के बेपटरी होने से चार यात्रियों को जान से हाथ धोना पड़ा था। निस्संदेह, इसके साथ ही रेलवे ट्रैक को नुकसान पहुंचाने की कुछ अन्य घटनाएं भी सामने आई हैं। ये घटनाएं बताती हैं कि ट्रेन में सफर कर रहे हजारों नागरिकों की जीवन रक्षा के लिये रेलवे के सुरक्षातंत्र को फुलप्रूफ बनाने की जरूरत है। ये घटनाएं हमें विचार के लिये बाध्य करती हैं कि चांद व मंगल पर दस्तक देने वाला भारत अपने रेलवे तंत्र को दुर्घटनामुक्त क्यों नहीं बना पा रहा है। नीति-नियंताओं को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि गति से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि पहले सुरक्षा चाकचौबंद की जाए। यदि रेलवे को निशाने बनाने की साजिश हुई है तो उसकी उच्चस्तरीय जांच की जानी चाहिए। सिर्फ आरोप लगाने काफी नहीं हैं। नहीं तो विपक्ष को यह कहने का मौका मिलेगा कि सरकार अपनी विफलता छुपाने के लिये इस तरह के तर्क दे रही है। वैसे एक हकीकत यह भी कि लोकलुभावन नीतियों व लोकतंत्र में वोटतंत्र के हावी होने की वजह से रेलवे के किराये को तार्किक नहीं बनाया जा सका है। याद रहे रेलवे को दुर्घटनाओं से निरापद बनाने के लिये आधुनिक तकनीक व उपकरणों को लगाने के लिये बड़ी पूंजी की जरूरत होती है। जिससे रेल यात्रा को दुर्घटना मुक्त बनाने में मदद मिल सकेगी।