पश्चिम बंगाल में आपराधिक घटनाओं को सियासी रंग देने का पुराना इतिहास रहा है। अब चाहे वहां वामपंथी शासन रहा हो, कांग्रेस का हो या अब तृणमूल कांग्रेस का हो। लेकिन शुरुआती सूचनाओं के हिसाब से जल्दबाजी में किसी निष्कर्ष तक पहुंचना ठीक नहीं है। निस्संदेह, आम चुनाव की तरफ बढ़ रहे देश में जांच एजेंसियों के एक पक्ष के खिलाफ कार्रवाई करने से उनकी निष्पक्षता पर प्रश्न उठना भी स्वाभाविक ही है। इससे जहां एजेंसियों की छवि पर प्रतिकूल असर पड़ता है, वहीं देश की चुनाव प्रक्रिया पर भी आंच आती है। बहरहाल इस घटनाक्रम के विरोध में तृणमूल कांग्रेस के दस सांसदों ने सोमवार को दिल्ली स्थित चुनाव आयोग के मुख्यालय के बाहर धरना दिया। पुलिस बाद में सांसदों को जबरन उठाकर ले गई। लेकिन इसके बावजूद किसी मामले में जांच-पड़ताल को गई किसी एजेंसी के अधिकारियों पर हमला करना भी दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाएगा। ऐसे मामले में भीड़ की अराजकता स्वीकार्य नहीं है। लेकिन एक बात तो तय है कि पश्चिम बंगाल के ईस्ट मेदिनीपुर क्षेत्र में शनिवार की सुबह एनआईए अधिकारियों पर हमले का निष्कर्ष है कि राज्य के तंत्र ने विगत के घटनाक्रम से कोई सीख नहीं ली। ध्यान रहे कि इस साल की शुरुआत में संदेशखाली प्रकरण में भी प्रवर्तन निदेशालय की टीम भीड़ के हमले का शिकार बनी थी। फिर इस मुद्दे पर जमकर राजनीति हुई थी। जाहिर है ऐसे घटनाक्रम राजनीति से इतर स्वतंत्र जांच की उम्मीद को खत्म करते हैं। निस्संदेह घटनाक्रम से जुड़े वास्तविक तथ्यों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यहां उल्लेखनीय है कि एनआईए यह जांच कलकत्ता हाईकोर्ट के कहने पर कर रही है। दरअसल, मामला साल 2022 में हुए एक बम धमाके से जुड़ा है, जिसमें तीन लोगों की मौत हो गई थी। जिसकी जांच लंबे अर्से बाद उच्च न्यायालय द्वारा एनआईए को सौंपी गई। एजेंसियों ने पूछताछ के लिये आरोपियों को कई बार बुलाया था, जिसे नजरअंदाज कर दिया गया। कहा जा रहा है कि एजेंसी ने यह कार्रवाई उचित नियमों के अनुरूप ही की है।
बहरहाल, राजनीति से इतर हमें मानना होगा कि किसी मामले में केंद्रीय एजेंसी से जुड़े अधिकारियों पर हमला व कामकाज में अवरोध पैदा करना संघीय व्यवस्था के लिये घातक ही है। उल्लेखनीय है कि संदेशखाली में भी ईडी अधिकारियों पर हमला हुआ था। लेकिन राज्य सरकार ने मुख्य आरोपी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। तब भी उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद मुख्य आरोपियों को गिरफ्तार किया गया था। बाद में विवाद बढ़ते देख आरोपियों को तृणमूल कांग्रेस से निष्कासित किया गया था। आरोपी पार्टी का बाहुबली नेता था। घटनाक्रम से राज्य सरकार की कार्यशैली पर भी सवाल उठे थे। सवालिया निशान राज्य की कानून व्यवस्था व महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की अनदेखी पर भी उठे थे। वहीं राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा के इशारे पर एजेंसियों द्वारा पार्टी के नेताओं को डराया जा रहा है। दूसरी ओर तृणमूल सुप्रीमो एनआईए द्वारा बम धमाके के आरोपी की गिरफ्तारी के लिये रात में जाने को लेकर सवाल उठा रही हैं। उनकी दलील है कि ग्रामीण रात को आने वाले अनजान व्यक्ति को देखकर आक्रामक हो जाते हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या छापेमारी से पहले एनआईए ने स्थानीय पुलिस का सहयोग लिया था? या फिर राजनीतिक दबाव में काम कर रही स्थानीय पुलिस को सूचना देने से गोपनीयता भंग होने की आशंका से एनआईए ने छापे की पूर्व सूचना नहीं दी? दूसरी ओर एनआईए का कहना है कि सूचना दी गई थी लेकिन स्थानीय पुलिस का रवैया सहयोग करने वाला नहीं था। बताया जाता है कि जिस व्यक्ति को गिरफ्तार करने एनआईए गई थी वह तृणमूल कांग्रेस का नेता है। विगत में भी ममता बनर्जी अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के समर्थन में खुलकर मैदान में आ जाती हैं। यह विडंबना ही है कि तृणमूल कांग्रेस व भाजपा नेताओं के बीच जारी टसल के चलते केंद्र व राज्य के संबंधों में तनाव की स्थिति बन रही है। साथ ही केंद्रीय जांच एजेंसियों की विश्वसनीयता पर आंच आ रही है।