एक बार फिर साबित हुआ कि अरविंद केजरीवाल राजनीति के चतुर सुजान हैं। वे भी आपदा को अवसर में बदलने का हुनर जानते हैं। शीर्ष अदालत से सशर्त जमानत मिलने से खुद को बंधा महसूस करते हुए उन्होंने इस्तीफे का दांव चलाकर राजनीतिक जगत में एक हलचल पैदा कर दी। वहीं पार्टी में वरिष्ठता क्रम में निचले पायदान पर खड़ी आतिशी को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाकर केजरीवाल ने एक बार फिर से चौंकाया है। कयास लगे थे कि अन्य वरिष्ठ पार्टी नेता मुख्यमंत्री बन सकते हैं। वहीं उनकी पत्नी को भी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कहा जा रहा था। दरअसल, क्षेत्रीय दलों में एक परंपरा रही है कि किसी राजनीतिक या कानूनी संकट के चलते परिवार के ही किसी सदस्य को सत्ता की बागडोर सौंप दी जाती थी। ताकि स्थितियां सामान्य होने पर फिर मुख्यमंत्री की गद्दी आसानी से वापस ली जा सके। जैसे बिहार में चारा घोटाले में घिरने के बाद लालू यादव ने पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता की बागडोर सौंपी थी। विगत के ऐसे प्रसंग भी हैं जब कानूनी बाध्यताओं के चलते पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता को मुख्यमंत्री का पद दिया गया तो उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा हिलोरे लेने लगी। विगत में बिहार और झारखंड में ऐसे प्रसंग सामने आए। बहरहाल, केजरीवाल ने जेल से बाहर आते ही अपने तरकश से जो तीर चले हैं, वे कुल मिलाकर निशाने पर लगते नजर आए हैं। हरियाणा व जम्मू कश्मीर चुनाव समेत अन्य राष्ट्रीय मुद्दों में उलझी भाजपा व कांग्रेस पर केजरीवाल ने मनोवैज्ञानिक दबाव तो बना दिया है। दिल्ली के विधानसभा चुनाव निर्धारित समय से कुछ महीने पहले महाराष्ट्र के साथ कराने की मांग करके आप ने दिल्ली में राजनीतिक सरगर्मी बढ़ा दी है। लेकिन यदि केजरीवाल शराब घोटाले में नाम आने व गिरफ्तारी के बाद तुरंत इस्तीफा दे देते तो शायद उन्हें इसका ज्यादा लाभ मिलता, जैसे कि लालकृष्ण आडवाणी ने कतिपय राजनीतिक आरोप लगने के बाद इस्तीफा दे दिया था।
बहरहाल, केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा सोची-समझी रणनीति के तहत ही दिया है, ताकि आगामी विधानसभा चुनाव को अपनी ईमानदारी के जनमत संग्रह के रूप में दर्शा सकें। उनका मकसद भाजपा सरकार द्वारा दर्ज भ्रष्टाचार के आरोपों का मुकाबला करने तथा खुद को राजनीतिक प्रतिशोध के शिकार के रूप में दिखा जनता की सहानुभूति अर्जित करना भी है। निस्संदेह, जनता से ईमानदारी का प्रमाण पत्र हासिल करने की योजना उनकी दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा जान पड़ती है। वहीं तय समय से तीन माह पहले दिल्ली में विधानसभा चुनाव कराने की मांग करके उन्होंने जता दिया है कि आप चुनाव अभियान के लिये तैयार है। दरअसल, केजरीवाल वर्ष 2014 के इस्तीफे के दांव को दोहराना चाहते हैं, जिसके बाद 2015 में आम आदमी पार्टी को भारी जीत मिली थी। लेकिन इस बार की स्थितियां खासी चुनौतीपूर्ण व जोखिमभरी हैं। निस्संदेह, यह जुआ मुश्किल भी पैदा कर सकता है क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी। जिसे विपक्ष ने पार्टी की घटती लोकप्रियता के रूप में दर्शाया था। दरअसल,बुनियादी प्रशासनिक ढांचे की खामियां व भाजपा के लगातार हमलों ने आप को बचाव की मुद्रा में ला खड़ा कर दिया था। वहीं दूसरी ओर आप सरकार की कल्याणकारी योजनाएं अभी भी मतदाताओं को पसंद आ रही हैं। अब आने वाला वक्त बताएगा कि इस्तीफे का पैंतरा आप को राजनीतिक रूप से कितना रास आता है। वहीं दूसरी ओर कयास लगाए जा रहे हैं कि केजरीवाल के इस पैंतरे से तेज हुई राजनीतिक सरगर्मियों का असर पड़ोसी राज्य हरियाणा में होने वाले विधानसभा चुनाव पर भी दिख सकता है। चुनाव में इंडिया गठबंधन से मुक्त आप राज्य की सभी सीटों पर ताल ठोक रही है। जिसका कुछ लाभ भाजपा को भी हो सकता है। ये आने वाला वक्त बताएगा कि चुनौतियों से जूझती पार्टी अपना जनाधार किस हद तक मजबूत कर पाती है। वहीं दूसरी ओर जनता की अदालत में दिल्ली सरकार की फ्री पानी-बिजली व सरकारी बसों में महिलाओं की मुफ्त यात्रा कराने की नीति की भी परीक्षा होनी है।