सुप्रीम कोर्ट ने यूपी मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम 2004 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए स्पष्ट संदेश दिया है कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में देश के अल्पसंख्यकों के अधिकारों की हर कीमत पर रक्षा की जाएगी। दरअसल, भाजपा शासित उ.प्र. में सरकार हजारों मदरसों पर लगाम लगाना चाहती थी। इस वर्ष की शुरुआत में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बीस साल पुराने उ.प्र. मदरसा शिक्षा बोर्ड कानून को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि ये स्कूल धर्मनिरेपक्षता के संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं। इस फैसले के बाद राज्य के हजारों मदरसों का भविष्य खतरे में पड़ गया था। साथ ही इन मदरसों में पढ़ने वाले लाखों बच्चों का भविष्य अनिश्चित हो गया था। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इन मदरसों के संचालकों ने राहत की सांस ली है। साथ ही यह भी सुनिश्चित हो गया कि इनमें पढ़ने वाले लाखों छात्रों को पारंपरिक शिक्षा संस्थानों में स्थानांतरित नहीं किया जाएगा। दरअसल, हाल के वर्षों में न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि मध्यप्रदेश और असम जैसे भाजपा शासित राज्यों में भी मदरसे सरकारों के एजेंडे में शामिल रहे हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग यानी एनसीपीसीआर की कारगुजारियां भी सवालों के घेरे में रही हैं, जिसने पिछले महीने सभी राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को पत्र लिखकर सिफारिश की थी कि मदरसा बोर्डों को बंद कर दिया जाए। साथ ही इन संस्थानों को राज्य का वित्त पोषण रोकने की भी सिफारिश की गई थी। वहां पढ़ने वाले छात्रों को औपचारिक स्कूलों में नामांकित करने की बात भी कही गई थी। आयोग की दलील थी कि इन बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा आधुनिक जरूरतों के अनुरूप नहीं है। साथ ही इन मदरसों पर शिक्षा का अधिकार अधिनियम के प्रावधानों का पालन न करने का भी आरोप लगाया गया था। निस्संदेह, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मदरसा संचालकों व छात्रों ने राहत की सांस ली होगी।
दरअसल, इन मदरसों को लेकर कहा जाता रहा था कि ये धार्मिक कट्टरपंथी सोच को बढ़ावा देने वाली संस्थाएं हैं। इसमें संदेह नहीं कि कट्टरपंथ को प्रश्रय देने वाली किसी भी कोशिश को नकारा ही जाना चाहिए, लेकिन संपूर्ण मदरसा व्यवस्था को ही खारिज करने की सोच में असहिष्णुता झलकती है, जो भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि के विरुद्ध है। इसकी व्याख्या सुप्रीम कोर्ट ने भी विभिन्न संस्कृतियों, सभ्यताओं और धर्मों के संरक्षक कवच के रूप में की है। निस्संदेह, मदरसा एक्ट पर रोशनी डालने वाला सुप्रीम कोर्ट का फैसला बेहद महत्वपूर्ण है, जो इस कानून की संवैधानिकता की तो पुष्टि करता है, लेकिन मदरसों को उच्च शिक्षा की डिग्री देने से रोकता है। इसके अलावा राज्य सरकारों को शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने का अधिकार भी देता है। साथ ही फैसला शिक्षा और धर्मनिरपेक्षता जैसे मुद्दों को संवेदनशीलता के साथ देखने की जरूरत भी बताता है। वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मदरसा एक्ट को लागू करने के तौर-तरीकों की खामियों की ओर भी ध्यान खींचता है। कोर्ट ने यूजीसी एक्ट से जुड़ी विसंगतियों का ध्यान रखते हुए स्पष्ट किया कि मदरसे उच्च शिक्षा से जुड़ी डिग्री देने का अधिकार नहीं रखते। साथ ही अदालत ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता की सीमाओं के अतिक्रमण को स्वीकार नहीं किया जाएगा। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट को इस बात का अहसास था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले का असर देश के अन्य अल्पसंख्यक संस्थानों पर पड़ेगा। इसी आलोक में शीर्ष अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि अल्पसंख्यक वर्ग को अपने संस्थान चलाने का अधिकार तो है लेकिन वहीं दूसरी ओर राज्य सरकार को भी इन संस्थानों में दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने का अधिकार है। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की प्रतिष्ठा तो स्थापित हुई है, लेकिन साथ ही इन मूल्यों को सुनिश्चित करने में सतर्कता की जरूरत भी बतायी गई। बहरहाल, मदरसा संचालकों का दायित्व भी बनता है कि 21वीं सदी के वैज्ञानिक युग में छात्रों को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए, जो राष्ट्रवादी मूल्यों के साथ प्रगतिशील सोच को भी विकसित करे और रोजगारपरक भी हो।