देश के किसी भाग में सांप्रदायिक सौहार्द और कानून व्यवस्था भंग करने का अधिकार किसी को भी नहीं है, चाहे वह बहुसंख्यक समाज हो या अल्पसंख्यक। दरअसल, सात दशकों में देश के राजनेताओं ने वोट की राजनीति कर समाज को इतने गहरे तक विभाजित कर दिया है कि दूसरे वर्ग के पर्व-त्योहार का स्वागत करने के बजाय पत्थरबाजी की घटनाएं व फसाद होने लगे हैं। लेकिन इन घटनाओं की प्रतिक्रिया में कथित रूप से दंगइयों के लिये बुलडोजर न्याय की व्यवस्था न तो कानून की दृष्टि से न्यायसंगत है और न ही मानवाधिकारों की ही दृष्टि से। हालांकि, उत्तर प्रदेश से शुरू हुई बुलडोजर से राजनीतिक संदेश देने की कवायद मध्यप्रदेश से होते हुए अब दिल्ली की जहांगीरपुरी तक जा पहुंची है। जहांगीर पुरी में एक धार्मिक जुलूस पर हमले के दौरान हुई हिंसा के बाद जिस तरह बुलडोजर चला, उसने राजनीतिक हलकों में तूफान खड़ा कर दिया। जिस तरह से राजनीतिक दल अपने-अपने प्रतिनिधि मंडल भेजकर वहां राजनीति कर रहे हैं, उसे भी कतई उचित नहीं कहा जा सकता। दरअसल, इस राजनीतिक खेल में असल मुद्दे पार्श्व में चले जाते हैं। अच्छी बात यह कि इस प्रकरण को सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता से लिया और अगले आदेश तक यथास्थिति बनाये रखने का आदेश दिया। हालांकि, कोर्ट के आदेश के बावजूद कुछ समय तक बुलडोजर चलता रहा, जिसकी खासी आलोचना भी हुई। एमसीडी के अधिकारियों द्वारा बिना समय दिये की गई कार्रवाई ने कई सवालों को जन्म दिया। निस्संदेह, बुलडोजर संस्कृति किसी निर्माण पर ही नहीं चलती बल्कि देश में लागू नियम-कानून व संवैधानिक प्रक्रिया को भी रौंदती है। हकीकत है कि दिल्ली से लेकर देश के छोटे-बड़े शहर अवैध अतिक्रमणों से हांफ रहे हैं। झुग्गी बस्तियों से लेकर पॉश कालोनियों तक अवैध अतिक्रमण की भरमार है। लेकिन पहुंच व पैसे वाले कानून व्यवस्था के छिद्रों के रास्ते बच जाते हैं और गरीब-गुरबों के मकान-दुकान पर बुलडोजर कहर बरपा ही देता है। इससे व्यक्ति ही नहीं उसके पूरे परिवार का जीवन जुड़ा होता है।
निस्संदेह, किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में बुलडोजर संस्कृति का कोई स्थान नहीं हो सकता। इससे कानून व्यवस्था व सार्वजनिक व्यवस्था का बड़े पैमाने पर अतिक्रमण होता है। इसे धर्म-संप्रदाय का कवच देकर न्यायसंगत ठहराने की कोशिश भी होती है। राज्य सरकारों व स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों को जनहित में कार्रवाई करनी भी चाहिए, लेकिन कायदे-कानूनों को ताक पर नहीं रखा जा सकता। वहीं जहांगीरपुरी में जब नगर निगम अधिकारियों ने कथित अवैध निर्माण हटाने का काम शुरू किया तो उन्हें एमसीडी एक्ट के प्रावधानों का पालन करना चाहिए था। एमसीडी एक्ट में इस बात का साफ-साफ उल्लेख है कि किसी भी अवैध निर्माण को हटाने से पहले नोटिस दिया जाना चाहिए। किसी भी पक्के निर्माण से पहले नोटिस की यह अवधि कम से कम पांच से पंद्रह दिन की होती है। वहीं नोटिस न देने की छूट सिर्फ उस स्थिति में ही जब निर्माण अस्थायी हो। विडंबना यह है कि मध्य प्रदेश से लेकर जहांगीरपुरी तक जो पक्के निर्माण गिराये गये हैं, न तो उनके मालिकों को नोटिस दिये गये और न ही उन्हें नोटिस के खिलाफ अपनी शिकायत दर्ज करने का मौका ही । निस्संदेह यह कार्रवाई न्याय की मूल धारणा के विरुद्ध है। भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने समय रहते बुलडोजर के पहिए थाम दिये। निस्संदेह, यदि यह मामला देश के दूरदराज के इलाके में घटित होता तो इतनी जल्दी मीडिया की पकड़ में न आता और न्यायिक सक्रियता में भी विलंब होता। जाहिर है अदालत के हस्तक्षेप के बाद अब बुलडोजर संस्कृति के जरिये अल्पकालिक राजनीतिक लाभ उठाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा। मगर इस तरह की कार्रवाई के दूरगामी घातक परिणाम भी हो सकते हैं। निस्संदेह, दंगों में कुछ लोगों की भूमिका हो सकती है, लेकिन इसके चलते उनके घर व दुकान ध्वस्त करना भी तो न्याय नहीं है। यह परिवार की जीविका और जीवन के अधिकार का अतिक्रमण भी तो है। निस्संदेह, मामले की असलियत अदालत की आगे की कार्रवाई से ही सामने आयेगी। लेकिन एक बात तो तय है कि बुलडोजर के अन्यायपूर्ण इस्तेमाल की संस्कृति पर लगाम लगनी ही चाहिए।