हाल ही के दिनों में पंजाब में दो अप्रिय घटनाक्रम सुर्खियों में रहे, जिसमें भीड़ ने अलग-अलग स्थानों में दो व्यक्तियों को पीट-पीटकर मार डाला। दोनों घटनाक्रम कथित बेअदबी के प्रयासों से संबंधित रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि किसी धर्म विशेष की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के इरादे से किये गए किसी भी कुत्सित कार्य की सख्त शब्दों में निंदा की जानी चाहिए। लेकिन वहीं दूसरी ओर दो लोगों की निर्मम हत्या कानून की घोर अवहेलना को ही तो दर्शाती है। निस्संदेह किसी सभ्य-सुसंस्कृत समाज में आवेशित भीड़ द्वारा किसी की जान लेने की प्रवृत्ति का कोई स्थान नहीं हो सकता। बेहतर होता कि कानूनी कार्रवाई के लिये आरोपी को पुलिस को सौंप दिया जाता ताकि इसके मूल में यदि कोई बड़ी साजिश होती तो उसकी जड़ तक पहुंचा जा सकता था। नियामक व प्रबंधन से जुड़ी धार्मिक संस्था को समझदारी व जिम्मेदारी से समय रहते स्थिति को संभालना चाहिए था। किसी भी स्थिति के नियंत्रण से बाहर होने से पूर्व ही हालात को संभाल लिया जाना आवश्यक हो जाता है। वहीं कपूरथला जिले में भी ऐसे घटनाक्रम की पुनरावृत्ति हुई। हालांकि, शुरुआती दौर में पुलिस द्वारा कहा गया कि ऐसा कोई सबूत सामने नहीं आया है जो स्थापित करे कि आस्था के प्रतीकों का अनादर किया गया। बहुत संभव है कि संदेह के आधार पर व्यक्ति सामूहिक आक्रोश का शिकार बना हो। लेकिन ऐसी प्रवृत्तियों से बचा जाना चाहिए। जुलाई में भी गुरदासपुर-पठानकोट मार्ग पर एक धार्मिक स्थल में चोरी के कथित आरोप में सीमा सड़क संगठन के एक कर्मचारी को पीट-पीटकर मार डाला गया था। वहीं अक्तूबर में किसान आंदोलन के दौरान सिंघु बॉर्डर पर एक श्रमिक पर बेअदबी के आरोप में धारदार हथियारों से जानलेवा हमला किया गया था। पंजाब में बेअदबी एक बेहद संवेदनशील और भावनात्मक मुद्दा रहा है। वर्ष 2015 में भी इस तरह की एक शृंखला ने पंजाब को उद्वेलित किया था, जिसको लेकर राजनीतिक दलों द्वारा आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला लगातार चलता रहा है।
निस्संदेह, पंजाब बेहद संवेदनशील दौर से गुजर रहा है। राज्य में अगले साल के प्रारंभ में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा राज्य में सांप्रदायिक सद्भाव बाधित करने के कुत्सित प्रयास हो सकते हैं, जिसके चलते राजनीतिक दलों को जिम्मेदाराना व्यवहार करने तथा पुलिस-प्रशासन द्वारा चौकस रहने की आवश्यकता है। इन तमाम हालात को देखते हुए पंजाब सरकार की भी जिम्मेदारी बनती है कि कानून-व्यवस्था बनाये रखने को लेकर सतर्क रहे और असामाजिक तत्वों से सख्ती से निपटे। ऐसे संवेदनशील समय में सत्तापक्ष के साथ ही विपक्षी दलों की भी जवाबदेही बनती है कि वे ज्वलनशील मुद्दों को हवा देने से बचें। राज्य में सांप्रदायिक सौहार्द बनाये रखना प्राथमिकता होनी चाहिए। भीड़ द्वारा हिंसा की घटना पर राजनीतिक दलों का प्रतिक्रिया से परहेज हिंसा की अनदेखी करने के समान ही है। इसमें दो राय नहीं कि देश के विभिन्न राज्यों में भीड़ की हिंसा को रोकने के लिये राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी लगातार सामने आती रही है। विडंबना देखिये कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो विभिन्न राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में भीड़ द्वारा की गई हिंसा में मारे गये लोगों और घायलों का विवरण अलग-अलग संकलित नहीं करता। ऐसी उदासीनता को दूर करने की जरूरत है। जाहिर बात है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी व तंत्र की उदासीनता के चलते लोकतंत्र की कीमत पर भीड़तंत्र को बढ़ावा दिया जा रहा है। राजनेताओं को अहसास होना चाहिए कि यदि वे भीड़ के निरंकुश व्यवहार व कानून को हाथ में लेने की प्रवृत्ति की अनदेखी करेंगे तो जहां लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन होगा, वहीं मानव अधिकारों का भी उल्लंघन होगा। इस मुद्दे को दल की राजनीतिक सोच व चुनावी लाभ-हानि के दायरे से ऊपर उठकर देखा जाना चाहिए। यह नजरिया देश के हर राज्य के संदर्भ में होना चाहिए। मानवता की भी यही दरकार है कि किसी व्यक्ति को किसी कृत्य के लिये सजा देने का काम न्यायिक व्यवस्था का है, भीड़ को कानून हाथ में लेने व दंडित करने का अधिकार नहीं है।