देश में करीब एक करोड़ बच्चे ऑटिज्म से पीड़ित हैं। इस रोग की पहचान, निदान व उपचार जरूरी है ताकि वे इस स्थिति से उबर कर आत्मनिर्भर हो सकें। समाज में बेहतर जीवन जी सकें। इसी संबंध में दिल्ली स्थित सर गंगा राम अस्पताल के चीफ साइकोलॉजिस्ट डॉ. इमरान नूरानी से रजनी अरोड़ा की बातचीत।
ऐसे कई बच्चे मिल जाते हैं जो दूसरे बच्चों की तरह लगते हैं, लेकिन व्यवहार में अलग होते हैं। उन्हें दूसरों के साथ बोलने, बात समझने या अपनी बात समझाने में कठिनाई होती है। असफल रहने पर वे अजीब व्यवहार करते हैं। वे न तो अपने परिजनों से जुड़ पाते हैं, न दोस्तों से। बाहरी माहौल, स्कूल और समाज में घुलने-मिलने, खेलने के बजाय अपनी दुनिया में ही खोए रहना पसंद करते हैं। विशिष्ट व्यवहार करने वाले ये बच्चे ऑटिज्म स्पैक्ट्रम डिसऑर्डर से पीड़ित होते हैं। ऑटिज्म बचपन से ही पाया जाने वाला न्यूरो-बिहेवियरल डेवेलपमेंट स्पैक्ट्रम डिसऑर्डर है। जो बच्चे में मस्तिष्क के विकास में विकार होने की वजह से होता है और जिंदगी भर चलता है। यह विकार बच्चे के मानसिक विकास को अवरुद्ध कर देता है, उनके व्यवहार और रोजमर्रा गतिविधियों को प्रभावित करता है। 2018 के आंकड़ों के मुताबिक, दुनिया में 59 में से एक बच्चा ऑटिज्म से पीड़ित है। हमारे देश में करीब एक करोड़ बच्चों में यह विकार है। अध्ययनों से पता चला कि ऑटिज्म जेनेटिक या जीन्स में क्रोमोसोम या ब्रेन वॉल्यूम में गड़बड़ी की वजह से होता है।
ये हैं लक्षण
आमतौर पर 2-3 साल की उम्र के बच्चों मे ऑटिज़्म का पता चलता है जब वे दूसरों के साथ बोलना-समझना शुरू करते हैं। हालांकि शुरुआती साल में कुछ विशिष्ट व्यवहार देखने को मिल जाते हैं जिन्हें पेरेंट्स बिल्कुल नजरअंदाज न करें:
प्रमुख संकेत है यदि 3-5 महीने का बच्चे का आई कॉन्टेक्ट नहीं करता या उन्हें देख नहीं रहा या पेरेंट्स के पुचकारने के बावजूद वापस सोशल स्माइल नहीं दे रहा हो। या फिर खेलते समय मूवमेंट पर ध्यान न देकर दूसरी तरफ देखता रहता है। वहीं अन्य पहचान है कि उम्र के हिसाब से बच्चा डेवलेपमेंट माइलस्टोन्स पर खरा न उतर रहा हो। बोलना, उठना-बैठना-चलना जैसी एक्टिविटीज नहीं कर पा रहा हो। दरअसल, आम बच्चा पैदा होने के साथ ही बच्चा भूख लगने पर चिल्लाने या रोने के रूप में कम्यूनिकेशन करता है। 6 महीने का होते-होते ब-ब-ब जैसी आवाजें निकालता है। वहीं अगर बच्चा आपको देखकर या बुलाने पर प्रतिक्रिया नहीं देता। 12-16 महीने का होने पर नई चीज़ या खिलौना देने पर रिस्पांस नहीं देता। आमतौर पर बच्चे पूरे खिलौने के साथ खेलते हैं। जबकि ऑटिस्टिक बच्चे खिलौने के किसी हिस्से के साथ खेलते रहते हैं। किसी एक खिलौने के साथ ही खेलना, अगर पेरेंट वो खिलौना बदल दें तो रोने लगता है। बौद्धिक स्तर औसत या उससे कम यानी पढ़ने-लिखने, सीखने-समझने में मुश्किल होती है। तेज आवाज या तेज रोशनी बर्दाश्त नहीं करना, बेवजह चीखना-चिल्लाना-हंसना, रोजमर्रा के कामों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना। इन बच्चोंं को पसंदीदा कामों को उन्हें बार-बार करने में मजा आता है।
ऐसे होता है डायग्नोज
व्यवहार और विकासात्मक मानदंडों के आधार पर मूल्यांकन करके ऑटिज्म की स्थिति का पता लगाया जाता है। डॉक्टरों की मल्टीडिसिप्लिनरी टीम डायग्नोज करती है जिसमें डेवेलपमेंटल पीडियाट्रीशियन, साइकोलॉजिस्ट, स्पेशल एजुकेटर, ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट, स्पीच थेरेपिस्ट और काउंसलर होते हैं। बच्चे की स्क्रीनिंग कर उसके विकासात्मक विलंब और अलग व्यवहार को विभिन्न तरीकों से परखा जाता है। यह पता चलता है कि ऑटिज्म किस स्टेज का है।
ऐसे होता है उपचार
चूंकि ऑटिज्म एक सिंड्रोम है। अर्ली डायग्नोज होने पर मल्टी-डिसिप्लिनरी इंटरवेंशन थेरेपी की मदद से उपचार शुरू किया जाता है, तो ये बच्चे आत्मनिर्भर हो सकते हैं। खासकर जिन बच्चों में 0-3 साल में ऑटिज्म डायग्नोज हो जाता है, और उपचार शुरू हो जाता है- तो उनमें सुधार की गुंजाइश ज्यादा होती है। डेवेलपमेंट-लेवल और ऑटिज्म की गंभीरता के आधार पर मल्टी-डिसिप्लिनरी एप्रोच अपनाई जाती है। बच्चे की उम्र व स्थिति के हिसाब से अलग-अलग पैटर्न व थेरेपीज दी जाती हैं।
जरूरत के अनुसार थेरेपीज और पैटर्न
ऑक्युपेशनल थेरेपी-आत्मकेंद्रित बच्चों की अतिसक्रियता को नियंत्रित करके रोजमर्रा के काम खुद करना सिखाया जाता है। जैसे- वॉशरूम जाना, ब्रश करना, नहाना आदि। स्पीच थेरेपी- शब्दावली का विकास करने के लिए उन्हें कई तरह के कार्ड, फोटोग्राफ, सचित्र पुस्तकें दिखाई जाती हैं और उनके नाम बोलने को कहा जाता है। बिहेवियरल थेरेपी- दूसरों से बातचीत करना, हाव-भाव के साथ अपनी बात अभिव्यक्त करना सिखाया जाता है। इससे इन बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ता है और वे घुलने-मिलने लगते हैं। बच्चा अगर कोई भी नई बात सीखता है या दूसरे बच्चों के साथ मिलकर कोई काम या एक्टिविटी करता है- तो विशेषज्ञ शाबासी देते हैं। एजुकेशनल थेरेपी- तकरीबन 10 प्रतिशत आत्मकेंद्रित बच्चे किसी न किसी प्रतिभा के धनी होते हैं जैसे- गणितीय गणना, चित्रकारी, संगीत, क्ले से खिलौने बनाने। विशेषज्ञ उनका कौशल विकसित करने के लिए प्रशिक्षण देते हैं।
बच्चे को ऑटिज्म की स्थिति से निकालने के लिए स्मार्ट केयर जरूरी है। ऑटिस्टिक बच्चे का लालन-पालन चुनौतीपूर्ण होता है। पैरेंट्स का मानसिक रूप से मजबूत होना जरूरी है। सकारात्मक रहकर बच्चे की देखभाल के लिए समुचित कदम उठाने चाहिए। धैर्य से बच्चे को छोटी-छोटी चीजें सिखानी चाहिए ताकि वह आत्मनिर्भर हो सके और समाज में सामंजस्य स्थापित कर सके।