अरुण नैथानी
पुस्तक : हिंदी पत्रकारिता एक यात्रा लेखिका : मृणाल पाण्डेय प्रकाशक : राधाकृष्ण पेपरबैक्स, नयी दिल्ली पृष्ठ : 224 मूल्य : रु. 350.
परतंत्र भारत में राष्ट्रीय चेतना की पर्याय बनी हिंदी पत्रकारिता स्वतंत्रता के बाद तेजी से बदलती नजर आई है। कहते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन सही मायनों में हिंदी पत्रकारिता की अनुगूंज ही थी। स्वतंत्रता के अग्रदूतों पत्रकारों ने घर-फूंक तमाशा देख कहावत को चरितार्थ करते हुए समाचार पत्र निकाले। डटकर अंग्रेजी सत्ता के दमन का सामना किया। देश की आजादी पत्रकारिता का मिशन था। यहां तक कि महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, बाल गंगाधर तिलक, डाॅ. अंबेडकर, मदन मोहन मालवीय व पं. नेहरू राष्ट्र उत्थान की अन्य भूमिकाओं के साथ ही पत्र-पत्रिकाओं के संपादन में लगे थे। लेकिन आजादी के बाद स्थितियां विकट हुई हैं।
अक्सर कहा जाता है कि आजादी के बाद पत्रकारिता का लक्ष्य क्या है? कहते हैं कि समतामूलक सामाजिक और आर्थिक आजादी। लेकिन विडंबना यह है कि आजादी के बाद पूंजी प्रधान तकनीक ने पत्रकारिता के परिदृश्य को बदल दिया। आधुनिक तकनीक, पूंजी के हस्तक्षेप, लाभ के लिये समाचार पत्रों का प्रकाशन, सूचना क्रांति से उपजी विसंगतियों, बड़ी पूंजी वाले अखबार मालिकों व राजनेताओं की दुरभि संधि के चलते जो विद्रूपताएं उपजी, उनका मंथन करती है हालिया प्रकाशित पुस्तक ’हिंदी पत्रकारिता एक यात्रा।’ पुस्तक हिंदी पत्रकारिता की बहुचर्चित हस्ती मृणाल पाण्डेय ने अंग्रेजी में लिखी है और अनुवाद हर्ष रंजन ने किया है।
उल्लेखनीय है कि मृणाल पाण्डेय दैनिक हिंदुस्तान, साप्ताहिक हिंदुस्तान व वामा के संपादक के रूप में खासी चर्चित रही हैं। उन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक आदि विधाओं में विपुल साहित्य भी रचा है। कई सालों तक विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्यापन करने के बाद हिंदी पत्रकारिता में रचनात्मक भूमिका निभाई। वहीं इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी उनका खासा दखल रहा। समीक्ष्य कृति हिंदी पत्रकारिता के ऐतिहासिक सफर से लेकर डिजिटल युग तक का विश्लेषण करती है। अंग्रेजी मीडिया के वर्चस्व, हिंदी पत्रकारिता का राष्ट्रव्यापी विस्तार, पत्रकारिता में विज्ञापन व कॉरपोरेट का दखल, सूचना क्रांति से बदले पत्रकारिता के परिदृश्य का उन्होंने सूक्ष्म विश्लेषण किया है। संपादक नामक संस्था के बगैर पांव पसारते सोशल मीडिया और डिजिटलीकरण के प्रसार और उसके नकारात्मक परिणामों की ओर भी वे ध्यान दिलाती हैं। निश्चित रूप से विज्ञापनों पर बढ़ती निर्भरता और राजनेताओं व अखबार मालिकों की दुरभिसंधि से उपजे क्षरण से विश्वसनीयता पर आंच आई है। वे सवाल उठाती हैं कि हिंदी पत्रकारिता संविधान प्रदत्त सूचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हक को विस्तार देने में किस सीमा तक सफल हुई है? आजादी के बाद हिंदी पत्रकारिता के विकास, समाचार पत्रों के अर्थशास्त्र, पत्रकारिता की दशा-दिशा, डिजिटल मीडिया के विस्तार, न्यू मीडिया व कोरोना काल के प्रभाव के बाद की पत्रकारिता का विस्तृत विश्लेषण पुस्तक को समृद्ध करता है। जो मीडियाकर्मियों व पत्रकारिता के छात्रों के लिये उपयोगी बन पड़ी है।