रेणु जैन
भारत की धरा पर हरियाली लाने वाले सावन के आने का भला किसे इंतजार नहीं होता। इस पूरे महीने युवतियों-महिलाओं के मन झूमने लगते हैं। न जाने किन-किन कल्पनाओं के झूलों में वे खो जाती रही हैं। एक जमाना हुआ करता था जब सावन के आगमन पर बाग-बगीचों, खुले मैदानों और यहां तक कि घरों में भी झूले पड़ जाया करते थे। खासकर, हरियाली तीज के उपलक्ष्य में हमजोली युवतियां-महिलाएं एकत्र होकर सामूहिक लोकगीतों के साथ झूला झूलती थीं। मगर बदलाव की प्रवृत्ति के चलते आलम यह है कि ऐसे झूले करीब-करीब यादों तक ही सिमट कर रह गए हैं। लेकिन अब भी गांव-देहात में झूले डाले जाते हैं। बच्चे तो झूल ही लेते हैं। कुछ शैक्षणिक व सामाजिक संस्थाएं भी तीज मनाने के लिए झूले झूलने के कार्यक्रम आयोजित करते हैं। लेकिन पहले जैसा झूला झूलने का माहौल नहीं नजर आता है। दरअसल आधुनिकता की दौड़ में हम जैसे अपनी संस्कृति के अंग रहे रीति-रिवाजों को भूलते जा रहे हैं। वैसा ही कुछ झूलों के साथ हुआ। इसके बावजूद कि भारतीय संस्कृति में झूला झूलने की परंपरा वैदिक काल से ही चली आ रही है।
प्रेम और प्रकृति से जुड़ी परंपरा
पुराणों व अन्य ग्रंथों में भी झूलने के कई उल्लेख हैं। भगवान श्रीकृष्ण के राधा संग झूला झूलने का वर्णन है। मान्यता है कि इससे प्रेम बढ़ने के अलावा प्रकृति के निकट जाने एवं उसकी हरियाली बनाये रखने की प्रेरणा मिलती है। भले ही भारत के महानगरों में झूला संस्कृति लुप्त होती दिखाई देती है लेकिन राजस्थान के गांवों में आज भी यह परम्परा कायम है। नवविवाहिता जब सावन में अपने मायके आती है तो उसके ससुराल वाले उसे मिठाइयों के साथ पटरी तथा झूला (रस्सी) भिजवाते हैं। राजस्थान के गांवों की बुजुर्ग महिलाओं के मुताबिक, सावन के झूले रक्षाबंधन तक बंधे होते हैं जिन पर सारे गांव की बहू-बेटियां झूलती हैं। वहीं गुजरात में तो बालकनियों में बारह मास झूले लगे देखे जा सकते हैं।
उत्साह भरने वाला योग
कहा जाता रहा है कि बगीचों में झूला झूलना उत्साह भरने वाला होता है जो झूले नीम, बरगद और आम के पेड़ों पर डाले जाते हैं। इन पेड़ों से आक्सीजन की अच्छी खासी मात्रा शरीर को मिलती है। इससे शरीर में ऑक्सीजन का स्तर बढ़ जाता है तथा मानसिक तनाव से भी मुक्ति मिलती है। वास्तव में झूला झूलना मात्र आनंद की अनुभूति नहीं देता बल्कि यह स्वास्थ्यवर्द्धक प्राचीन योग है। सावन में चारों तरफ हरियाली छाई होती है। हरा रंग आंखों पर अनुकूल प्रभाव डालता है। इससे नेत्र ज्योति भी बढ़ती है। झूलते समय दृश्य कभी पास तो कभी दूर, इन सब उपक्रमों में नेत्रों का सम्पूर्ण व्यायाम हो जाता है।
सकारात्मक सोच
कई मनोचिकित्सकों का कहना है कि झूला झूलने के दौरान हमारे मस्तिष्क में मौजूद कुछ कैमिकल्स का स्राव तेजी से होता है जो हमारे दिमाग को सकारात्मक दिशा में सोचने के लिए आंदोलित करते हैं। इसी तरह आहार विशेषज्ञों का कहना है कि बारिश के मौसम में पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है तो इस मौसम में झूला झूलना फायदेमंद होता है। ताजी हवा के झोंके जठराग्नि को सुचारु रूप से चलाने में मदद करते हैं।
अच्छी कसरत भी
झूला झूलना एक अच्छी कसरत है। बारिश के मौसम में धूल के सूक्ष्म कण, कार्बन के कण तथा कई हानिकारक तत्व जमीन पर आ जाते हैं। ऐसे में वायु शुद्ध हो जाती है क्योंकि दूसरे मौसम में ये कण वायु में मिश्रित रहते हैं। ऊपरी सतह की हवा में कुछ अशुद्धता रहती है। बारिश होने से ये कण जमीन पर बैठ जाते हैं, इसलिए झूला झूलते वक्त हमें ताजा हवा मिलती है। इसके कारण ग्रीवा की नसों में पैदा होने वाला तनाव कम पड़ता है जिससे स्मरण शक्ति तीव्र होती है। झूला झूलते समय सांस लेने की गति में तीव्रता आती है इससे फेफड़े सुदृढ़ होते हैं। इसके साथ ही झूलते समय श्वास तेजी से ली जाती है तथा फिर धीरे-धीरे छोड़ी जाती है,इससे प्राणायाम हो जाता है। खड़े होकर झूलते समय झूले को गति देने के लिए बार-बार उठक-बैठक लगानी पड़ती है। इन क्रियाओं से एक ओर हाथ-हथेलियों तथा उंगलियों का रक्त संचार सुचारू होता है वहीं दूसरी ओर हाथ, पैर, पीठ तथा रीढ़ की हड्डी का व्यायाम भी होता है। लेकिन गर्भवती महिलाओं तथा कुछ बीमारियों में झूला झूलने से परहेज करना चाहिए।