प्रेग्नेंसी के दौरान कई वजहों से कार्बोहाइड्रेट मेटाबॉलिज्म गड़बड़ाता है। इससे ब्लड शुगर लेवल बढ़ने लगता है व मातृत्व में जोखिम के साथ कई दिक्कतें शुरू हो जाती हैं। इस रोग को जेस्टेशनल डायबिटीज कहते हैंै। इससे नवजात के हेल्थ पर भी असर पड़ सकता है। जेस्टेशनल डायबिटीज की वजहों , जांच और उपचार को लेकर नई दिल्ली स्थित डायबिटीज रिसर्च सेंटर के चेयरमैन डॉ. अशोक झिंगन से रजनी अरोड़ा की बातचीत।
जेस्टेशनल डायबिटीज गर्भावस्था में महिलाओं को होने वाली डायबिटीज है। गर्भावस्था के दौरान शुगर का मेटाबॉलिज्म गड़बड़ा जाता है और एक स्वस्थ महिला भी इसका शिकार हो जाती है। प्रेग्नेंसी में प्लेसेंटल लैक्टोजन, एस्ट्रोजन, प्रोजेस्ट्रॉन जैसे हार्मोन की वजह से गर्भवती महिला का कार्बोहाइड्रेट मेटाबॉलिज्म गड़बड़ाता है। इंसुलिन रेसिस्टेंस हो जाता है और ब्लड शुगर लेवल बढ़ने लगता है। आमतौर पर गर्भावस्था के 20 सप्ताह के बाद चेकअप के दौरान इसका पता चलता है।
महिला को क्या है खतरा
ध्यान न देने पर कई मामलों में प्रेग्नेंसी आगे नहीं बढ़ती, गर्भपात हो जाता है या शिशु की गर्भाशय में मौत भी हो सकती है। बच्चे का भार ज्यादा होने से प्रसव के दौरान महिला को नॉर्मल डिलीवरी में परेशानियां हो सकती हैं यानी सिजेरियन डिलीवरी की संभावना बढ़ सकती है। प्रसव के 4-5 महीने बाद महिला को डायबिटीज दुबारा होने और 4-5 साल बाद टाइप 2 डायबिटीज होने की संभावना रहती है। वे मोटापे से ग्रसित हो सकती हैं। हार्ट अटैक, स्ट्रोक जैसी कार्डियोवेस्कुलर डिजीज और फैटी लिवर डिजीज होने का रिस्क दोगुना हो जाता है।
गर्भस्थ शिशु पर भी असर
गर्भावस्था में शुगर लेवल अनियंत्रित होने पर शिशु पर दो तरह से प्रभाव पड़ता है- शार्ट टर्म और लांग टर्म।
शार्ट टर्म – शार्ट टर्म में शिशु को कई तरह की समस्याएं होती हैं और उसे एनआईसीयू में भी भर्ती कराने की नौबत आ सकती है। महिला का ब्लड शुगर लेवल बढ़ने से मैक्रोसोमिक शिशु होने का खतरा रहता है। मां का ब्लड शिशु तक पहुंचने से उसका शुगर लेवल ज्यादा हो जाता है। शिशु का पैनक्रियाज ज्यादा इंसुलिन का निर्माण करने लगता है और उसका वजन बढ़ने की संभावना रहती है। प्रसव के तुरंत बाद वे हाइपोग्लाइसिमिक हो जाते हैं। उनका शुगर लेवल एकाएक कम हो जाता है और उनमें दौरे आने की संभावना भी रहती है। गर्भावस्था पूरी होने के बाद भी शिशु के फेफड़ों का विकास ठीक तरह नहीं हो पाता और उसे सांस लेने में दिक्कत होती है। शिशु पॉलीसाइकीमिया का शिकार हो जाते हैं। ब्लड शुगर लेवल बढ़ने से शिशु के रेड ब्लड सेल्स का निर्माण ज्यादा मात्रा में होने लगता है। प्रसव के तुरंत बाद ये सेल्स तेजी से टूटने लगते हैं। शिशु को जॉन्डिस होने की संभावना दोगुनी हो जाती है। कई शिशुओं को कम उम्र में टाइप-1 डायबिटीज होने का खतरा रहता है।
लंबी अवधि में असर : जेस्टेशनल डायबिटीज से होने वाले लांगटर्म प्रभाव में किशोरावस्था में बच्चों में चाइल्डहुड ओबेसिटी, टाइप 2 डायबिटीज होने और लड़कियों को पीसीओडी होने का रिस्क रहता है।
क्या है कारण
इन महिलाओं को जेस्टेशनल डायबिटीज होने का रिस्क रहता है जिनकी डायबिटीज की फैमिली हिस्ट्री हो और जो बड़ी उम्र में मां बनने जा रही हों। महिलाएं जो मोटापे से ग्रसित हैं। पहले हुई प्रेग्नेंसी में महिला को जेस्टेशनल डायबिटीज, प्री-डायबिटीज, पीसीओडी की समस्या रही हो। जिनका ब्लड प्रेशर या कोलेस्ट्रॉल का लेवल अधिक हो। पहली प्रेग्नेंसी में 3 किग्रा से अधिक वजन वाले बच्चे को जन्म दिया हो। जिन्हें अनहैल्दी जीवन शैली और खानपान की आदत हो। यानी फिजीकल एक्टिविटी न कर आरामपरस्ती की आदत हो या आहार में सेचुरेटिड फैट और एडिड शुगर ज्यादा लेती हों।
ये होते हैं लक्षण
अगर कुछ महिलाओं में ब्लड शुगर का स्तर बहुत अधिक हो जाता है (हाइपरग्लाइकेमिया), तो उनमें ऐसे कुछ लक्षण विकसित हो सकते हैं : ज्यादा प्यास लगना, बार-बार पेशाब आना, मुंह का सूखना, थकान, धुंधला दिखाई देना और जननांगों में खुजली की समस्या।
ऐसे होता है डायग्नोज
रिस्क कैटेगरी में आने वाली महिलाओं की ब्लड शुगर कम से कम तीन बार 75 ग्राम ओरल ग्लूकोज टॉलरेंस टेस्ट से स्क्रीनिंग की जाती है- गर्भधारण होने पर चेकअप के लिए जाने पर, प्रेग्नेंसी के 24-28वें सप्ताह में और 32-34वें सप्ताह में। उनका फास्टिंग ब्लड शुगर 94मिग्रा/डीएल से कम और ग्लूकोज लेने के बाद 120 मिग्रा/डीएल से कम होना चाहिए।
ये है उपचार
माइल्ड जेस्टेशनल डायबिटीज होने पर महिला मेडिकल न्यूट्रीशनल थेरेपी यानी बैलेंस डाइट और फिजीकल एक्टिविटी से शुगर कंट्रोल कर सकती हैं। वरना रेगुलर इंसुलिन दी जाती है जो डिलीवरी के बाद धीरे-धीरे बंद कर दिया जाता है।
ऐसे करें बचाव
रिस्क कैटेगरी में आने वाली महिलाओं को प्रेग्नेंसी प्लानिंग से पहले डॉक्टर को कंसल्ट करना बेहतर है। गर्भावस्था के दौरान समय-समय पर ब्लड शुगर की जांच करानी जरूरी है और डॉक्टर की हिदायतों को पूरी तरह फोलो करना चाहिए।
महिलाओं को अपनी जीवन शैली में बदलाव लाकर वजन और शुगर लेवल को कंट्रोल में रखना जरूरी है। संतुलित और पौष्टिक भोजन करना जरूरी है। डाइट में साबुत अनाज, मल्टीग्रेन आटा, छिलके वाली दालें, स्प्राउट्स, हरी सब्जियां, हरी पत्तेदार सब्जियां, 100-150 ग्राम फल, नट्स जैसी हाई फाइबरयुक्त और कॉम्प्लेक्स कार्बोहाइड्रेट जरूर शामिल करनी चाहिए। मैदा, चीनी जैसी रिफाइंड चीजों, वसायुक्त भोजन और हाई कैलोरी वाले खाद्य पदार्थों के सेवन से परहेज करना फायदेमंद है।
जहां तक हो सके पूरे दिन एक्टिव रहना चाहिए। वहीं एरोबिक एक्सरसाइज, योगा, वॉक कर सकती हैं। खासकर खाना खाने के बाद 15-20 मिनट टहलना जरूर चाहिए।