गोवर्धन गब्बी
पैंतीस साल की उम्र को छूता राकेश दफ्तर में देर रात तक काम कर के थका-हारा घर पहुंचता है। जैसे ही वह दरवाज़ा खोलता है तो देखता है कि रोज़ की तरह साठ-पैंसठ वर्षीय उसकी मां उसका इंतज़ार कर रही है।
‘मम्मी, तू अभी सोई नहीं?’ राकेश अंदर प्रवेश करते हुए पूछता है।
‘बेटा, जिसका जवान बेटा रात बारह बजे तक घर न लौटे, उसकी मां भला कैसे सो सकती है?’ अपनी आंखें साफ़ करती मां नाराज़गी के साथ बोलती है।
‘मम्मी, तुझे पता तो है कि इवेंट कंपनी चलाने के लिए बहुत सारा काम करना पड़ता है…देर भी हो जाती है।’ राकेश अपनी मां को बाहों में भरकर कहता है।
‘मुंह दूर हटा। फिर पीकर आया है?’ मां नाक सिकोड़ती हुई राकेश को दूर धकेलती है।
‘मम्मी, बस यूं ही थकावट उतारने के लिए दो पैग लिए थे… मेली प्याली मम्मी, बड़ी भूख लगी है… क्या बनाया है खाने के लिए?’ राकेश मां को पुचकारता हुआ कहता है।
‘कितनी बार कहा है कि रोज़ न पिया कर…पर कहने का क्या फायदा। तेरे कानों पर कौन-सा जूं रेंगती है। चल, हाथ-मुंह धो के आ, मैं खाना गरम करती हूं।’ मां मोह और नाराज़गी भरे लहजे में जवाब देती रसोई में चली जाती है। राकेश अपना बैग टेबल पर रख गुसलखाने में घुस जाता है।
‘पिंकी कहां है?’ गुसलखाने से बाहर निकलता हुआ राकेश पूछता है।
‘बेटा, रात के बारह बज रहे हैं… वह बेचारी रोज़ की तरह तेरा इंतज़ार करते करते थक-हार कर ऊपर जाकर अपने कमरे में सो गई है। बच्चे पहले ही सो गए थे। सच बताऊं…तेरा अब रोज़ का ही यह काम हो गया है।’ मां गैस चूल्हे पर तवा रखते हुए नाराज़गी भरे लहजे में बोलती है। खाने की तैयार के साथ ही वह अपने बैग में से लैपटॉप भी निकालने लगता है।
‘मम्मी, मैं कौन-सा जान-बूझकर लेट आता हूं, कामकाज ही ऐसा है, सिर खुजाने को समय नहीं मिलता दिनभर।’ राकेश मां की ओर देखकर कहता है।
‘बेटा, रोटी आराम से खा ले, तूने ये नाशपिटे डिब्बे को फिर बाहर निकाल लिया। इसको दफ्तर ही छोड़कर आया कर।’ मां पतीली में कड़छी घुमाती हुई चिढ़कर कहती है।
‘मम्मी, एक ईमेल चैक करनी है, बस दो मिनट।’ कहता हुआ राकेश लैपटॉप पर कुछ टाइप करता है।
‘बेटा, चल छोड़, तेरी मरज़ी… मैं क्या कर सकती हूं। अच्छा बेटा, अगर तू गुस्सा न करे तो एक बात पूछूं?’ मां तवे पर रोटी सेकते हुए राकेश की तरफ देखकर कहती है।
‘हां, पूछ न मम्मी… इसमें गुस्सा करने वाली भला कौन-सी बात है।’ लैपटॉप में व्यस्त राकेश प्रत्युत्तर में कहता है।
‘बेटा, तू रोज़ के कितने पैसे कमा लेता है?’ मां दाल को कटोरी में डालते हुए पूछती है।
‘मम्मी, तुझे इससे भला क्या लेना-देना…ऐसा व्यर्थ का सवाल क्यों पूछ रही है?’ राकेश मां की तरफ देख नाराज़गी में उत्तर देता है।
‘बेटा, गुस्सा न हो… मैं बस जानना चाहती हूं कि तू रोज़ की कितनी कमाई कर लेता है?’ मां राकेश की ओर देखकर दुबारा पूछती है।
‘यही कोई पांचेक हज़ार रुपये।’ राकेश गुस्से में मां की ओर देखते हुए बताता है।
‘पांच हजार रुपये… अच्छा ठीक है। तू बारह-बारह घंटे काम करता है रोज़। इसका मतलब है एक घंटे के करीब चार सौ रुपये कमा लेता है। है ना?’ मां रोटी वाली थाली बेटे के आगे रखते हुई पूछती है।
‘पर मम्मी, तू ये क्यों पूछ रही है?’ राकेश लैपटॉप को टेबल पर रखते हुए पूछता है।
‘बेटा, तू मुझे पांच हजार रुपये उधार दे सकता है? जल्दी ही वापस कर दूंगी।’ मां रोटी वाला हॉटकेस राकेश के आगे टेबल पर रखती हुई पूछती है। यह सुनते ही राकेश गुस्से में आ जाता है। वह प्रश्नवाचक नजरों से मां की ओर देखता है।
‘मम्मी, एक तो तूने फिजूल का सवाल पूछा…ऊपर से पांच हज़ार रुपये मांग रही है। अभी कल-परसों ही तो तुझे दिए थे दो हज़ार रुपये…क्या करने है तूने पांच हज़ार रुपये?’ राकेश मां से सवाल करता है।
‘कुछ भी करूं…तू दे तो सही।’ मां कहती है।
‘मुझे पता है, तुझे ये रुपये बच्चों को देने होंगे या फिर पिंकी ने मांगे होंगे। उन्होंने बाज़ार से कुछ ऊटपटांग लाना होगा। मम्मी, तू चुपचाप अपने कमरे में जाकर सो जा। मैं पैसा कमाने के लिए दिन-रात मेहनत करता हूं और तुम लोग इसको बेकार में बर्बाद कर देते हो।’
गुस्से में आकर राकेश ज़ोर से गिलास टेबल पर रखता है। मां डर जाती है। उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं। वह बिना कुछ बोले अपने कमरे में चली जाती है।
राकेश पहले तो काफी समय गुस्से में रहता है। खाना खाता है। फिर कुछ देर बाद वह शांत होता है।
‘कितना कमीना हूं यार मैं भी… पांच हज़ार रुपये की खातिर मम्मी को इतने प्रवचन सुना दिए…बुरा-भला कह दिया। शायद उसको कोई ज़रूरी काम हो। कोई दवा-दारू लेनी हो…ऐनक ठीक करवानी हो…या कोई अन्य ज़रूरत हो। आज से पहले तो उसने कभी इस तरह पैसे मांगे भी नहीं थे।’ यह सब सोचते हुए राकेश उठकर मां के कमरे में चला जाता है। कमरे की ट्यूब-लाइट जलाकर वह देखता है कि मां अभी जाग रही है। उसकी आंखों में अभी भी आंसू हैं।
‘मम्मी, तू अभी तक सोई नहीं?’ राकेश मां के पास बेड पर बैठते हुए पूछता है। राकेश की ओर देख, करवट बदलकर मां सिसकना शुरू कर देती है।
‘सॉरी मम्मी, मैंने तुझे बेवजह ही झिड़क दिया… बुरा-भला कह दिया। असल में मैं दिनभर काम से बुरी तरह थक जाता हूं, ऊपर से नशा लेता हूं… बात बात पर चिढ़ जाता हूं। ये ले तू पांच हज़ार नहीं बल्कि दस हज़ार पकड़। आय एम सॉरी मम्मी… प्लीज फोरगिव मी।’ मां का हाथ पकड़ राकेश खुद भी सिसकने लगता है।
मां पैसे पकड़ लेती है। बेड से उठकर तेजी से अपनी अल्मारी की ओर जाती है। अपनी छोटी-सी, मैली-कुचैली थैली में से इकट्ठे किए रुपये निकालकर धीरे-धीरे उन्हें गिनना शुरू कर देती है।
‘जब तेरे पास पहले ही इतने पैसे थे मम्मी, तो तूने मेरे से और पैसे क्यों मांगे?’ मां को रुपये गिनते देख राकेश तंज कसता है और मुस्कराते हुए पूछता है।
‘क्योंकि मेरे पास कुछ रुपये कम थे, पर अब पूरे हो गए हैं।’ मां जवाब देती है।
‘ये ले अपने पांच हजार वापिस।’ मां राकेश की तरफ रुपयों वाला हाथ बढ़ाती है।
‘रख ले मम्मी… मैं तो मजाक कर रहा था।’ बोलता हुआ राकेश अचरज भरी नज़रों के साथ मां की ओर देखता है, पर रुपये पकड़ता नहीं। मां वे पांच हज़ार रुपये उसकी कमीज की जेब में डाल देती है।
‘नहीं, मुझे बस पांच हजार ही चाहिए थे। ये ले अब मेरी तरफ से बारह हजार रुपये।’ मां रुपयों वाला हाथ फिर राकेश की तरफ बढ़ाती है।
‘मम्मी, तू ये क्या कर रही है… मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा। तू ये रुपये मुझे क्यों दे रही है?’ हैरान हुआ राकेश मां की ओर देखकर पूछता है। वह रुपये नहीं पकड़ता है।
‘बेटा, तुम दोनों हर समय अपने कामों में बिजी रहते हो। अगर काम से फुरसत मिले तो मोबाइल में घुस जाते हो। बच्चे भी पढ़ाई और फोन में लगे रहते हैं। सब अपने-अपने काम में खोये रहते हैं। मगर बेटा, मैं क्या करूं? मैं किसके साथ बातें करूं…अपने दुख-सुख किसके साथ साझे करूं? पहले तेरे पापा जब जीवित थे तो कोई मुश्किल नहीं थी, पर जब से वे यह दुनिया छोड़कर गए हैं…।’ जबरन रुपये उसकी जेब में डालती हुई मां की आंखें सजल हो उठती हैं।
‘तू ठीक कहती है मम्मी… मैं मजबूर हूं। कोई बात नहीं मैं पिंकी और बच्चों से कहूंगा कि वे तेरे पास बैठा करें… मैं भी टाइम निकाला करूंगा, पर मम्मी मेरी समझ में नहीं आ रहा कि तूने मुझे ये बारह हज़ार रुपये क्यों दिए हैं?’ राकेश मां के आंसू पोंछता हुआ कहता है।
‘बेटा, तूने बताया है ना कि तू एक घंटे के चार सौ रुपये कमा लेता है…चार सौ रुपये के हिसाब से महीने के तीस घंटों के बारह हजार बने ना? मैंने तेरा रोज का एक घंटे का वक्त अपने लिए खरीद लिया है… अब तू रोज एक घंटा मेरे पास बैठा करेगा।’ बोलते हुए मां फफक पड़ती है और साथ ही, राकेश भी। उन दोनों को रोते देख, राकेश के दोनों बच्चे और पत्नी भी आकर उनके साथ लिपट जाते हैं।
अनुवाद : सुभाष नीरव