नरेश कौशल
निस्संदेह, नवरात्र नारी-शक्ति को प्रतिष्ठित करने का पर्व है। इसके आध्यात्मिक-सामाजिक निहितार्थ यही हैं कि हम अपने आस-पास रहने वाली उन बेटियों के संघर्ष का सम्मानपूर्वक स्मरण करें जिन्होंने अथक प्रयासों से समाज में विशिष्ट जगह बनायी। साथ ही वे समाज में दूसरी बेटियों के लिये प्रेरणास्रोत भी बनीं। दैनिक ट्रिब्यून ने इसी कड़ी में उन देवियों के असाधारण कार्यों को अपने पाठकों तक पहुंचाने का एक विनम्र प्रयास किया है, जो सुर्खियों में न आ सकीं। उनका योगदान उन तमाम बेटियों के लिये प्रेरणादायक होगा जो अनेक मुश्किलों के बीच अपना आकाश तलाशने में जुटी हैं।
‘कर्मठ कन्याएं’ के इस कॉलम में प्रेरणा की एक आहूति डालते हुए मेरे जेहन में चलती है एक फ्लैशबैक… घटनाक्रम है 1992 में मार्च महीने का। दैनिक ट्रिब्यून के संपादक विजय सहगल के कमरे में एक छरहरे बदन की रबड़ की गुड़िया सी लड़की प्रवेश करती है। अभिवादन के उसके तौर-तरीके में गजब का सलीका है। कोकिला स्वर की धनी आगंतुक कन्या बोलती है, ‘सर, मैं वर्तिका नंदा।’ संपादक महोदय खुशी में मानो बल्लियों उछल पड़ते हैं, ‘नरेश यही है वर्तिका नंदा, जिसने दैनिक ट्रिब्यून की कथा प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता।’ इसके साथ ही संपादक जी से मेरी नियमित रिपोर्टिंग की बैठक मानो एक जश्न में बदल जाती है।
शिमला के गेयटी थियेटर में 15 मार्च को नवोदित कथाकार वर्तिका नंदा ने ‘द ट्रिब्यून’ के तत्कालीन प्रधान संपादक वीएन नारायणन और हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री शांता कुमार से पुरस्कार प्राप्त करने से पूर्व अपनी कहानी ‘सितारों भरा आसमां’ पर चर्चा की। वह बोलती गईं, ‘मेरे बहुत सारे सपने थे, आसमान को देखना मुझे बहुत अच्छा लगता था… बचपन में मैं आकाश देखती तो सोचती थी कि प्रकृति ने आकाश और सितारों को जोड़कर बहुत बड़ा काम किया है…।’
वर्तिका की सितार की झंकार भरी आवाज आज जेल की बड़ी-बड़ी दीवारों को ध्वस्त कर रही हैं। समाज से तिरस्कृत, उपेक्षित और निष्ठुर माने जाने वाले कैदियों के लिए वह संवेदनाओं का संबल बनकर उभरी हैं। ‘तिनका-तिनका’ चुनकर मानवीयता के ऐसे घोंसले बना रही हैं जिनमें से प्रेरणा और नवजीवन की आशाओं के गीत उसी आकाश की बुलंदियां छू रहे हैं और वह स्वयं उसी आकाश में सितारे-सी चमक रही हैं जिसका सपना उन्होंने दैनिक ट्रिब्यून की उस पुरस्कृत रचना ‘सितारों भरा आसमां’ में देखा था। तो आइये वर्तिका से यह जानने का प्रयास करते हैं कि लिम्का बुक से लेकर राष्ट्रपति भवन तक की बुलंदियां छूने के लिए उसने प्रेरणा के ऐसे कौन से पंख लगा रखे हैं।
नयी दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज में जर्नलिज्म डिपार्टमेंट की चेयरपर्सन डॉ. वर्तिका नंदा आज किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं। जेलों में सुधार के कार्यों में जुटी डॉ. नंदा की बदौलत ही हरियाणा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की जेलों की खामोशियों को आवाज़ मिली है। ऊंची और मजबूत दीवारों से अब संगीत फूटता है। तिनका-तिनका फाउंडेशन के बैनर तले वे इन राज्यों की कई जेलों में पॉडकास्ट यानी ‘तिनका-तिनका’ रेडियो की शुरुआत कर चुकी हैं।
भागदौड़ भरी इस जिंदगी में किसी के पास दो पल की फुर्सत नहीं, लेकिन डॉ. वर्तिका नंदा न केवल जेलों को वक्त देती हैं, बल्कि कैदियों व बंदियों के जीवन में बदलाव भी ला रही हैं। उनका जेलों और कैदियों के प्रति नज़रिया भी तब बदला, जब उन्होंने जेलों में पत्रिकारिता की शुरुआत की।
अध्यापन से पहले मीडिया में रह चुकीं वर्तिका की पहचान अब जेल सुधारक, लेखिका और मीडिया शिक्षक के रूप में होती है। पंजाब में जन्मीं डॉ. नंदा अपराध पत्रकारिता को लेकर लीक से हटकर काम करती हैं।
वह बताती हैं कि जेलों में रेडियो की शुरुआत उन्होंने सबसे पहले 2019 में देश की सबसे पुरानी जेल इमारत यानी आगरा की जिला जेल से की। वर्ष 2021 में हरियाणा और उत्तराखंड की जेलों में रेडियो लाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उनके इन प्रयासों से जेलों की जिंदगी में महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं। ‘तिनका-तिनका’ जेलों और समाज के बीच संवाद का पुल बन रहा है। 2020 में आईसीएसएसआर की इम्प्रेस स्कीम, मानव संसाधन विकास मंत्रालय के लिए भारतीय जेलों में संचार की जरूरतों पर एक कार्योन्मुखी शोध पूरा किया, जिसे उत्कृष्ट मानते हुए प्रकाशन के लिए प्रस्तावित किया गया।
जेलों में शुरू किए रेडियो की कमान उन्होंने कैदियों को ही सौंपी हुई है। खुद भी रेडियो जॉकी की भूमिका में रहती हैं। वह आगे कहती हैं कि जेलों में रेडियो की शुरुआत चुनौतियों भरी डगर थी, लेकिन वे जेल प्रशासन की मदद से ‘पुल’ बनाने में कामयाब रहीं। उनके खुद के शब्दों- ‘जेलों के अंदर ठिठके पल बाहर नहीं आते, बाहर की रोशनी अंदर नहीं जाती। मुझे एक पुल बनाना है, यह मेरी जिद है’, से भी स्पष्ट है कि जेलों में कदम रखते ही उन्हें चुनौतियों और मुश्किलों का आभास हो गया था। वे कहती हैं कि जेलों में सुधार में सामाजिक स्तर पर किसी तरह का सहयोग नहीं मिलता। लोग न तो समय निकालते हैं ओर न ही किसी तरह का काम करना चाहते हैं। इसी वजह से उन्होंने इसका नाम ‘तिनका-तिनका’ रखा।
डॉ. वर्तिका नंदा ने पहला कविता संग्रह 2012 में और ‘रानियां सब जानती हैं’ नामक पुस्तक 2015 में, लिखी, जबकि पुस्तक ‘मरजानी’ का विमोचन बर्मिंघम में आयोजित हिंदी सम्मेलन में हुआ। इसके अतिरिक्त वह ‘नये समय में अपराध पत्रकारिता’, ‘मीडिया, लॉज एंड एथिक्स’, ‘मीडिया और बाजार’, ‘रेडियो जर्नलिज्म इन इंडिया’, ‘खबर यहां भी’ तथा ‘मीडिया और जनसंवाद’ जैसी कई पुस्तकें भी लिख चुकी हैं। कई पुरस्कारों से नवाजी गयी वर्तिका को अल्फा पब्लिकेशंस ने 108 नामी पत्रकारों के एन्साइक्लोपीडिया में भी शामिल किया।
उसकी आवाज भले रेशम के रेशों-सी है, मगर जब बोलती है तो समझ में आता है कि उसमें जेलों की कठोर सलाखों को पिघलाने की जिद है और जुनून भी है। वह कहती हैं कि कैदी व बंदी कितने ही खूंखार क्यों ना हों, उनकी नज़र में वे ‘इंद्रधुनष’ के रंगों जैसे हैं। क्राइम किसी भी स्थिति-परिस्थिति या वजहों से किया हो। ऐसे लोगों को भी समाज की मुख्यधारा से जोड़ने की एक कोशिश है उसकी। हम जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट, मानवाधिकार आयोग से लेकर सरकारें भी इसके प्रति गंभीर हैं। ऐसे तमाम प्रयासों और कोशिशों के बीच यह आवाज ऐसी है जो कैदियों के दिल की गहराइयों में खोई आवाज और उनके मर्म को समझती है। खामोशियों को आवाज देने वाली ऐसी शख्सियत से पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी बच्चियां प्रेरणा ले सकती हैं।
(रिपोर्ताज के लेखक दैनिक ट्रिब्यून के संपादक हैं)
जेलों में रेडियो की शुरुआत
महिला होने के बावजूद वर्तिका ने खौफ देती जेलों के अंदर जाकर बंदियों में बदलाव के लिए काम किया। तिनका-तिनका के तहत वे देश की अलग-अलग जेलों को मीडिया से जोड़ कर नये प्रयोग कर रही हैं। मीडिया शिक्षण, मीडिया लेखन और पत्रकारिता के जरिये अपराध, जेल और मानवाधिकार पर उनका जोर है। उनके रेडियो को अब यूट्यूब पर तिनका-तिनका जेल रेडियो के नाम से प्रसारित किया जाता है।
जब राष्ट्रपति ने बढ़ाया ‘मान’ : तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा डॉ. वर्तिका नंदा को ‘स्त्री शक्ति पुरस्कार’ से नवाज़ा गया। वर्तिका को यह पुरस्कार मीडिया और साहित्य के जरिये महिला अपराधों के प्रति जागरूकता लाने के लिए दिया गया। 2018 में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एमबी लोकूर और जस्टिस दीपक गुप्ता की बेंच ने जेलों में महिलाओं और बच्चों की स्थिति की आकलन प्रक्रिया में उन्हें शामिल किया।