डॉ. वीरेन्द्र आज़म
‘जाना तो निश्चित है, इक दिन/अश्वघोष कुछ करके जाना’। अपने नवगीत की इन पंक्तियों को सार्थक करते हुए नवगीत के पुरोधा और अप्रतिम ग़ज़लकार डॉ. अश्वघोष 26 अक्तूबर को परलोक गमन कर गए। अश्वघोष चले गए लेकिन ‘कुछ नहीं, बहुत कुछ’ करके गए हैं। आधी शताब्दी से अधिक समय तक उनकी साहित्य सृजन यात्रा रही जिस दौरान उन्होंने गीत, बालगीत, नवगीत, ग़ज़ल, कहानी आदि विधाओं में विपुल साहित्य रचा। उनके रचना संसार में एक कहानी संकलन, नौ नवगीत संकलन, पांच ग़ज़ल संकलन, पांच कविता संकलन और बाल कविता संकलन के अतिरिक्त दो खंड काव्य शामिल हैं।
डॉ. अश्वघोष ने अपनी ग़ज़लों में मानवीय जीवन के सभी पहलुओं को छुआ। उनकी भाषा सरल और प्रांजल है, लेकिन कथ्य और उत्कृष्ट शिल्प के कारण भीड़ से अलग है। साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल के शब्दों में-‘अश्वघोष की ग़ज़लों का सादापन अपने आपमें ऊंचे दर्जे का अलंकरण है।’ समाज में दरकते रिश्ते, गरीबी, शोषण, महंगाई और आम आदमी की उदासी, सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों से उपजकर उसके भीतर बैठा डर, यानि सभी कुछ उनकी ग़ज़लों में है।
अश्वघोष की ग़ज़लें अन्याय, शोषण और उत्पीड़न का प्रखर प्रतिरोध करती दिखाई देती हैं। उनमें आमजन के आक्रोश और असंतोष का भाव बोध है। कहा जा सकता है, अश्वघोष की ग़ज़लें आम आदमी की ग़ज़ल है। प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह के अनुसार ‘अश्वघोष की ग़ज़लों में ताजगी है। शे’र कहने का ढंग उनका अपना है। अगर दुष्यंत कुमार के बाद के पांच हिन्दी ग़ज़लकारों के नाम पूछे जाएं तो अश्वघोष का नाम उनमें लिया जाना चाहिए।’ उनके गीतों और नवगीतों में भी आम आदमी की बेबसी-बेचारगी को स्वर मिला है। बाबा नागार्जुन ने उन्हंे निरंतर गीत लिखने के लिए ऐसे प्रेरित किया-‘तुम गीत बहुत अच्छे लिखते हो,गीत लिखते रहना। गीत हमारी संस्कृति है।’
उ.प्र. में जिला बुलन्दशहर के रन्हेड़ा गांव में जन्में अश्वघोष की प्राथमिक शिक्षा गांव में हुई। उनका वास्तविक नाम ओमप्रकाश था। वह चित्रकार बनना चाहते थे, लेकिन निम्न मध्यम वर्ग परिवार के छात्र के लिए महंगे रंग और कैनवास जुटाना आसान नहीं था। खुरजा में ड्राइंग विषय भी नहीं था। उसके लिए या तो देहरादून जाना होता था या मेरठ। पिता ने कहा कि जो विषय खुर्जा में उपलब्ध हैं उन्हें ही पढ़ो। अंततः हाई स्कूल से बीए तक की शिक्षा खुरजा में हुई। उसके बाद हिन्दी साहित्य में एमए और पीएच.डी़ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से की।
पिता अध्यापक होने के कारण अश्वघोष को घर का माहौल पठन-पाठन वाला मिला। इसलिए पढ़ने की ललक जाग्रत हो गयी। खुरजा में काफी कवि सम्मेलन होते थे। उनके एक गुरु राधेश्याम प्रगल्भ के अलावा शिशुपाल सिंह निर्धन, सव्यसाची आदि के सम्पर्क में आये तो मन में लेखन की कोंपलें फूटने लगी। जयशंकर प्रसाद तथा सुमित्रानंदन पंत के अलावा धर्मवीर भारती, शमशेर व नागार्जुन से वह काफी प्रभावित रहे। धीरे-धीरे अश्वघोष ओमप्रकाश ‘पथिक’ नाम से लिखने लगे। सव्यसाची ने इन्हें अश्वघोष नाम दिया। अश्वघोष में न कभी छपने की होड़ रही और न पुरस्कार की दौड़। बताते थे- ‘मैंने कभी पुरस्कार पाने के लिए नहीं लिखा और काव्य मंचों के लिए भी नहीं लिखा।’
डॉ. अश्वघोष पिछले कुछ अरसे से देहरादून रह रहे थे। गत अप्रैल में उनसे आत्मीय भेंट हुई। उनके दो नवगीत रिकॉर्ड किये और एक साक्षात्कार भी लिया। उन्होंने हाल ही में अपने गीतों की अरविंद कुमार विदेह द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित व प्रकाशित अपनी पुस्तक मुझे भंेट की। क्या मालूम था, यह भेंट और साक्षात्कार अंतिम होगा। अचानक हृदयाघात का बहाना लेकर 26 अक्तूबर को नवगीतों और ग़ज़लों का ये शलाका पुरुष अपनी ही ग़ज़ल के एक शे’र ‘अपने मन की एक डगर पर/निकले हैं हम आज सफ़र पर’ को मौन स्वर देते हुए उस सफ़र पर चला गया जहां से कभी कोई लौट कर नहीं आया।