शारा
गुलजार की कलम जब बोलती है तो सारा मंजर शांत हो जाता है। खो जाता है उनके बोलों में जिनका एक-एक शब्द और एक-एक लाइन अपने आप में पूरी कहानी होती है। और जब कई हिट गीत एक ही फिल्म में हों तो कहने ही क्या? ऐसा ही तो था फिल्म ‘लेकिन’ में। यारा सीली-सीली विरहा की रात का जलना हो या मैं एक सदी से बैठी हूं। फिर… सुरमई शाम इस तरह आये, भी तो…। गुलजार के कलमबद्ध गीतों को हृदयनाथ मंगेशकर ने सुरों में पिरोया और लता की मधुर आवाज जब फूटी तो समां ही बदल गया। इस पर डिंपल कपाड़िया का अभिनय… ऊफ… सोने पे सुहागा। आंखों से बोली हैं डिंपल। गुलजार को ऐसा ही तो अलहदा अभिनय चाहिए होता है। वह खुद हंसी के कितने रूप सामने लाते हैं, गीली हंसी, सूखी हंसी। यही नहीं, वह तो पानी का भी बहुवचन बना देते हैं छईं छपा छईं, छपाक छईं, पानियों के छींटे उड़ाती हुई लड़की। फिल्म ‘हू तू तू’ का है यह गीत। ‘हू तू तू’ फिल्म 1999 में आई थी। इससे लगभग 9 साल पहले आ चुकी थी फिल्म ‘लेकिन’। फिल्म ‘लेकिन’ में एक से बढ़कर एक गीत हैं। गुलजार ने ही इस फिल्म का निर्देशन भी किया। गुलजार के साथ-साथ ‘लेकिन’ को लता मंगेशकर और उनके भाई हृदयनाथ मंगेशकर की फिल्म भी कहा जा सकता है। सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर द्वारा प्रस्तुत यह फिल्म दीनानाथ कला मंदिर के बैनर तले निर्मित की गई थी। इस कला मंदिर का नाम उनके महान गायक-अभिनेता पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर के नाम पर रखा गया था। संगीत उनके भाई हृदयनाथ मंगेशकर ने तैयार किया। यह फिल्म भले ही पर्दे पर सामान्य रही हो, लेकिन इसने पांच राष्ट्रीय पुरस्कार जीते। सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक, सर्वश्रेष्ठ गीत, सर्वश्रेष्ठ संगीत, सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन और सर्वश्रेष्ठ डिजाइन। सचमुच फिल्म सर्वश्रेष्ठ रही। डिजाइन तो ऐसा था कि राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में कम रोशनी के फिल्मांकन में भी डिंपल अलग से पहचान में आ जाती हैं। पोशाक डिजाइन जाने-माने डिजाइनर भानु अथैया ने किया है। उनके नेतृत्व में हुई डिजाइनिंग में प्रत्येक चरित्र की ड्रेसिंग शैली यथार्थ लगती है। कहानी के मुताबिक। एक और अलग बात इस फिल्म में थी और वह थी विनोद खन्ना का अभिनय। अब तक एक दूसरे ही रूप में दर्शकों ने विनोद खन्ना को देखा था। इस फिल्म में वह एक्शन हीरो के तौर पर कतई नहीं हैं। अपनी परंपरागत फिल्मों में अब तक की अभिनय शैली से कोसों दूर। अभिनेत्री हेमा मालिनी का रोल बेशक छोटा है, लेकिन है सशक्त। खूबसूरत तो वह हैं ही, फिल्म की डिमांड के मुताबिक उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। फिल्म ‘लेकिन’ मूलत: महान कथाकार रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी ‘क्षुधित पाषाण’ पर आधारित है। क्षुधित पाषाण यानी भूखा पत्थर। इसी कहानी से थीम लेकर बनाई गई ‘लेकिन।’ अपने नाम के मुताबिक ही है ‘लेकिन।’ सवाल उठाती और सवालों का हल बताती-सी। अगर कहा जाये कि यह गुलजार के साथ लता मंगेशकर की संगीतमय प्रस्तुति थी, तो गलत नहीं होगा। गुलजार ने ‘भूत’ को जिस तरह ‘जीवंत’ किया है, यह उनके निर्देशन का ही कमाल था। कहानी इस तरह से है- इतिहासकार और क्यूरेटर समीर (विनोद खन्ना) को राजस्थान के एक ऐसे महल में जाने की जिम्मेदारी दी जाती है जो भूतहा है। यानी उस महल में जाने से ही लोग डरते हैं। समीर को जिम्मेदारी दी जाती है कि वह महल में मौजूद कलाकृतियों को एक संग्रहालय में लाएं। महल में उसका राब्ता एक भटकी हुई या यूं कहें कहीं गुम हो चुकी आत्मा से पड़ता है। इस किरदार का नाम है रेवा (डिंपल कपड़िया)। यह फिल्म इसी आत्मा की आजादी को लेकर है। यूं तो इसे सस्पेंस थ्रिलर कहा जा सकता है, लेकिन यह तो लेकिन है। कुछ जानकार इस फिल्म को समय और स्थान का परा-मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण भी कहते हैं। यह बहुत गहरे विषय से संबंधित है और विज्ञान और कला के बीच की सीमा पर चर्चा करती-सी है यह फिल्म। कुछ गुंजायमान और कुछ-कुछ खामोशी। इस फिल्म में विज्ञान, तर्क, कला, असमंजस, अध्यात्म और यथार्थ के कई पहलू हैं। इन सभी पहलुओं के साथ उभरता है एक प्रश्न जो कहता है, ‘लेकिन।’
एक परेशान आत्मा अन्याय का बदला लेने के लिए नहीं, बल्कि एक दर्दनाक अनुभव के कारण जीवन और मृत्यु के बीच फंस गई है। वह अपने अंतिम क्षणों के समय और स्थान में फंसी हुई है, रेगिस्तान को पार करने और खुद को मुक्त करने से इनकार कर रही है और साथ ही जीने से भी डर रही है। गुलज़ार अपने भूत को भी यथार्थवादी बना देते हैं। निर्देशक का ऐसा शिल्प है कि कई दृश्य शब्दविहीन हैं, लेकिन बिना कहे सब कुछ कह देते हैं। फिल्म में डिंपल राजस्थानी परिधान में एकदम अलग अंदाज में नजर आती हैं। नयनाभिराम। अभिनय तो है ही लाजवाब। विनोद खन्ना अपने रुटीन अंदाज से अलग रूप में सामने आए हैं जो काबिले गौर और काबिले तारीफ है। हेमा मालिनी ने स्पेशल अपीयरेंस दी है और हमेशा की तरह बेहद खूबसूरत लग रही हैं। अमजद खान (शफी अहमद सिद्दीकी की भूमिका में) समीर (विनोद खन्ना) के विश्वासपात्र और दोस्त के रूप में जम रहे हैं। वह कभी-कभी एक गंभीर फिल्म में हल्का-फुल्का हास्य पुट देने में सफल रहते हैं। फिल्म में मुनमुन सेन भी हैं जिनकी उपस्थिति का कोई मतलब है। सरकारी अधिकारी का रहस्यमयी महल की ओर जाने के सफर से लेकर अंत तक कहानी में कई पड़ाव आते हैं। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, उसका रहस्य गहराता जाता है। डिंपल का भूतिया अभिनय फिल्म की पूरी जान है। क्या वह सरकारी अधिकारी इस भूत को मुक्त करा पाने में सफल हो पाता है? क्या उसे अपने काम को अंजाम तक पहुंचाने का मौका मिलता है? फिल्म देखेंगे तो इन सवालों के जवाब तो मिलेंगे ही साथ ही कर्णप्रिय गीतों की जरूरत और फिल्मांकन का अनूठा प्रयोग भी देखने को मिलेगा। बेशक यह फिल्म उस वक्त औसत रही, लेकिन इसे हमेशा देखा जा सकता है। आज भी। लेकिन…।
निर्माण टीम
मूल कहानी : रबीन्द्रनाथ टैगोर
पटकथा : कैलाश आडवाणी, अरुण कौल
निर्देशक : गुलजार
प्रोड्यूसर : लता मंगेशकर, हृदयनाथ मंगेशकर, बाल फुले
सिनेमैटोग्राफी : मनमोहन सिंह
गीत : गुलजार
संगीत : हृदयनाथ मंगेशकर
सितारे : डिंपल कपाड़िया, विनोद खन्ना, हेमा मालिनी, अमजद खान, बीना बनर्जी, आलोकनाथ, मुनमुन सेन आदि
गीत
केसरिया बालमा ओ जी कि तुमसे लागी : लता मंगेशकर
केसरिया बालमा मोहे बावरी बोलें लोग : लता मंगेशकर
सुरमई शाम इस तरह : सुरेश वाडकर
यारा सीली -सीली विरहा के रात का : लता मंगेशकर
सुनियो जी अरज हमारी : लता मंगेशकर
झूठे नैना बोले साची बतियां : आशा भोसले, सत्यशील देशपांडे
मैं एक सदी से बैठी हूं : लता मंगेशकर
जा जा रे : लता मंगेशकर, हृदयनाथ मंगेशकर
दिल में लेकर तुम्हारी याद : लता मंगेशकर