शारा
जब रमेश सिप्पी की विशाल टीम ‘शोले’ फिल्म के निर्माण में जुटी थी, भारी-भरकम सेट, सलीम-जावेद जैसी नामी-गिरामी पटकथा लेखकों और अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, संजीव तथा हेमा मालिनी जैसे चेहरों के साथ तो जाहिर-सी बात है कि सारे मीडिया का ध्यान ‘शोले’ के निर्देशक की तरफ जाएगा क्योंकि निर्देशक रमेश सिप्पी उन दिनों ताजा-ताजा पश्चिमी सिनेमा के गुर सीख कर आये थे और तकनीकी के अलावा शैली पक्ष में भी वे उन गुणों को आजमाना चाहते थे। और उन्होंने आजमाए भी। जरा गौर कीजिए शोले के किरदारों और निर्माण की ओर। एक-एक किरदार खरा उतरता है। क्या बसन्ती और क्या उसकी धन्नो, इस कल्पनाशीलता का कोई भी दीवाना हो सकता है। क्या पानी की टंकी पर चढ़कर शराबी वीरू की धमकियां, क्या संजीव कुमार की एक्टिंग और क्या जया बच्चन की सादगी, फिल्म रचना के इन चेहरों को नमन। जब फिल्म 1975 में रिलीज हुई तो उस धूमधड़ाके में एक अन्य फिल्म भी रिलीज हुई खुशबू। धांसू फिल्म ‘शोले’ के आगे खुशबू दिलखुश करने वाली अपनी पंच लाइन को चरितार्थ करने वाली, थोड़ी आपकी संवेदनाओं को कचोटती, कहीं पर हल्के से गुदगुदाती और अंत में आपको हैप्पी एंड देकर कुछ सोचने के लिए विवश करने वाली गुलजार की खुशबू कब दर्शकों के मन में घर कर गयी, पता ही नहीं चला। इस फिल्म को डायरेक्ट किया था गुलजार ने। उनकी फिल्म ‘खुशबू’ की खुशबू फिर ‘आंधी’ में कब तबदील हुई, यह भी लंबी दास्तान है। फिर तो ‘आंधी’ ने सारे ‘मौसम’ दर्शकों की झोली में भर दिये। देखते ही देखते बॉलीवुड के गलियारों में उनकी तूती बोलने लगी। गुलजार पोइट्री के ब्रांड बन गये। ‘बंदिनी’ के एक गाने से प्रसिद्धि का स्वाद चखने वाले गुलजार की गुड्डी इसी खुशबू फिल्म से चढ़ी थी। यह वह समय था जब जीतेंद्र दक्षिण की हीरोइनों के साथ उछल-कूद कर रहे थे। कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति तो उनकी फिल्में देखता नहीं था लेकिन बिहार, यूपी और महाराष्ट्र के कामेरा वर्ग को ये फिल्में काफी अच्छी लगती थीं। उनको तीन घंटे के लिए ही सही, कठोर यथार्थ से भगाकर कल्पना की दुनिया में जो ले जाती थी। इस कल्पना की दुनिया में उनके सपने जो चरितार्थ होते थे। अगर साल 1975 सिनेमाई गलियारों में ‘शोले’ फिल्म के नाम से जाना जाता है तो गैर सिनेमाई गलियारों में, साहित्यिकता गुलजार के नाम से महफिलें रोशन होने लगी थीं। समीक्षक तो समीक्षक, आम दर्शक भी उनकी लेखनी, उनके निर्देशन का दीवाना होने लगा था। बात ही ऐसी थी। गुलजार फिल्मों का निर्देशन निर्देशक की तरह नहीं बल्कि एक मां की तरह करते हैं। वह फिल्म को वैसे ही पलोसते, सहेजते हैं जैसे मां बच्चे को। जैसी मुलायम रेशों से बुनी उनकी पटकथा होती है, वैसा ही सुरीला उनकी फिल्मों का संगीत। यह समय उनके करिअर की दुपहरी थी और वह किसी जल्दी में नहीं थे कि समय को इस्तेमाल करने के लिए बेताब होते। जाने-माने कथाकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘पंडित माशाई’ की कहानी पर आधारित है खुशबू की कहानी जो सत्तर के दशक के मध्य ही फिल्मों का एंटीथिसिस कहा जा सकता है। इस समय फिल्मों का जो ट्रेंड था, इस फिल्म में किसी नायक या नायिका का कद बढ़-चढ़कर नहीं दिखाया गया सिर्फ हेमा मालिनी को मुख्य केंद्र में दिखाया गया। खुशबू खुशबू ही थी। कोई बंदूक नहीं, कोई हिंसा नहीं सिर्फ साधारण से संवाद जो कहानी को आगे बढ़ाते हैं और फिल्म की बैकग्राउंड भी ग्राम्य जीवन की। वह भी तब जब फिल्मों का हीरो छोटे शहरों से उठकर बड़े शहरों में आ रहा था। गुलजार ने बड़े नामी-गिरामी सितारे अपनी फिल्म में न लेकर उन दिनों जंंपिंग जैक के नाम से मशहूर जीतेंद्र को हीरो लिया और उनसे संजीदा एक्टिंग करवायी। यह काम गुलजार ही कर सकते थे। मध्य वर्गीय परिवार के जीतेंद्र ने इस फिल्म में साधारण पैंट-कमीज पहनी है। उन्होंने इसमें पतली महीन मूंछें रखी हैं और मोटे फ्रेम वाला चश्मा पहन रखा है। इतनी सुंदर और सौम्य लुक उनकी किसी फिल्म में नहीं लगी। न कोई हीरो वाली फूं फां, न बेलगाम ऊर्जा का प्रदर्शन, बस साधारण से ग्रामीण देश के डाक्टर, वह कहीं-कहीं ‘परिचय’ फिल्म के नायक से मिलते-जुलते। कुसुम के किरदार में हेमामालिनी बचपन से ही जीतेंद्र से प्रभावित थी। उसे प्यार है जीतेंद्र से लेकिन शोले की बसंती वाला नहीं। कुछ संजीदा कुछ ठहराव वाला। वह पूरी फिल्म में सामान्य-सी कॉटन की साड़ी पहने हुए दिखेगी जो न बसंती की तरह जोर से बोलती है बल्कि आंखों से हर बात कह देती है। चाहे जीतेंद्र के इंतजार की बात हो या ग्लानि छोटा-सा गलत कदम उठ जाने की, दर्शकों की कोर गीली कर जाते हैं उसके हावभाव। आज के युवा दर्शकों के भले ही वह किरदार गले न उतरे, लेकिन वह स्वाभिमानी स्त्री की तरह अपने बचपन के प्रेम का इंतजार करती है। वह उसे स्वीकार तो करती है लेकिन अपनी शर्तों पर। ये सब उसके हाव-भाव ही कह देते हैं। ग्राम्य परिवेश में नंगे पांव चलना, औरतों का कुएं से पानी भरना ऐसी लीक से हटकर सेटिंग तैयार की थी कि दर्शकों को नोस्टैल्जिक कर गयी। रही-सही कसर आरडी बर्मन के गीतों ने पूरी कर दी। आशा भोसले का गाया गीत ‘घर जाएगी, तर जाएगी’ तमाम दर्शकों का गीत बन गया। इस फिल्म में फरीदा जलाल व मास्टर राजू भी हैं। शर्मिला टैगोर, फरीदा जलाल और अरुणा ईरानी के बारे में गुलजार का मानना है कि इन स्त्रियों में एक्टिंग की अपार संभावनाएं हैं। इस फिल्म को प्रसन्न कुमार ने तिरुपति पिक्चर्स बैनर के तले प्रोड्यूस किया। यह फिल्म 1951 में भी बांग्ला फिल्म के रूप मेें परदे पर आ चुकी थी। किशोर कुमार का गाया गाना ‘ओ मांझी रे’ इस फिल्म का गीत है। अब चलते हैं कहानी की ओर-
कुसुम (हेमामालिनी) की शादी बाल्यावस्था में ही वृन्दावन (जीतेंद्र) से हो जाती है। लेकिन कुछ समय बाद कुसुम के पिता दंगों में मारे जाते हैं और नाम वृन्दावन का लग जाता है। इसमें वृन्दावन के पिता उसे अपनी बहू मानने से इनकार कर देते हैं। दुखी होकर कुसुम अपनी मां और भाई के साथ दूसरे गांव में शिफ्ट कर जाते हैं। ताकि उन्हें वृन्दावन (जो अब डाक्टर बन चुका है) की सूरत भी न दिखे। कुसुम बड़ी होकर शादी के लिए इनकार कर देती है। वह अभी भी स्वयं को डॉ. वृन्दावन की पत्नी मानती है। इसी दौरान उसकी मां भी मर जाती है और भाई कुंज (असरानी) अपनी शादी इसलिए नहीं करता क्योंकि वह चाहता है कि पहले उसकी बहन ससुराल जाये। उधर, डॉ. वृन्दावन के पिता का भी निधन हो जाता है। घर के हालात देखकर तथा कुसुम के प्रेम से अनजान वह दूसरी लड़की लाखी (शर्मिला) से शादी कर लेता है। लाखी की भी बचपन में शादी हो चुकी है और वह अकेली है। लाखी से डॉ. वृन्दावन को बेटा होता है लेकिन लाखी कुछ समय बाद मर जाती है क्योंकि वह बीमार थी। अब डॉक्टर अपने गांव में प्रैक्टिस करने लगता है। कुछ समय बाद जब कुसुम के गांव में एक अमीर रोगी का इलाज करने जाता है जहां कुसुम उसे पहचान लेती है लेकिन डाक्टर वृन्दावन कुसुम को नहीं पहचान पाते। क्योंकि वह उसे बचपन के नाम से जानते थे, कुसुम के नाम से नहीं। धीरे-धीरे दोनों में नजदीकियां बढ़ती हैं। डॉ. वृन्दावन की मां कुसुम को अपनी बहू बनाने के लिए खुश है। लेकिन मतभेद ज्यों के त्यों रहते हैं क्योंकि कुसुम उन्हें असंवेदनशील मानती है कि न केवल उन्होंने इस बात को भुला दिया कि उन्होंने उसके परिवार के साथ क्या किया है? बल्कि यह भी कि वे अब भी उसे अपनी बपौती मानते हैं। लेकिन डॉ. वृन्दवन के मन में कुसुम के लिए कोमल भावनाएं हैं और वह चाहते हैं कि कुसुम अपने घर लौट आये। इस दौरान उसके गांव में महामारी फैलती है। कुसुम चरण को घर ले आती है वह डॉ. वृन्दावन के बेटे चरण (मास्टर राजू) का खूब ध्यान रखती है। वह डॉ. वृन्दावन के नजदीक भी हो जाती है, जिससे डॉ. वृन्दावन और कुसुम अपने अहम् से ऊपर उठकर एक हो जाते हैं। कुसुम अपने भाई कुंज का आशीर्वाद लेकर अपने घर लौट आती है।
निर्माण टीम
निर्देशक : गुलजार
प्रोड्यूसर : प्रसन्न कपूर, जीतेंद्र कपूर
गीत, संवाद : गुलजार
पटकथा : डीएन मुखर्जी, वनमाली और गुलजार
मूल कथाकार : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, पंडित माशाय
संगीत : आरडी बर्मन
सिनेमैटोग्राफी : के. बैकुंठ
सितारे : जीतेंद्र, हेमामालिनी, शर्मिला टैगोर, फरीदा जलाल, राजू, असरानी, दुर्गा खोटे आदि
गीत
दो नैनों में आंसू भरे हैं : लता मंगेशकर
घर जाएगी, तर जाएगी : आशा भोसले
ओ मांझी रे अपना किनारा : किशोर कुमार
बेचारा, दिल क्या करे : आशा भोसले