शारा
इस बेहतरीन फिल्म के सेट ही फतेहपुर सीकरी में लगने चाहिए थे और निर्देशक ने स्थल का चयन भी यही किया। तभी फिल्म के टाइटल, कहानी पात्र, नेपथ्य सभी कुछ सार्थक हो पाया। वैसे तो इस फिल्म में सभी पात्रों ने अपने अभिनय का सर्वश्रेष्ठ दिया, लेकिन जो रोल हेमामालिनी ने अभिनीत किया, मेरे हिसाब से उनके जीवन का सर्वोत्तम रोल था। यह फिल्म उनकी शुरुआती फिल्मों में से एक थी। उस समय वह ‘जॉनी मेरा नाम’ सरीखी मनोरंजक फिल्में कर रही थीं और वे हिट भी हो रही थीं क्योंकि यह वक्त देवआनंद, धर्मेंद्र सरीखे हीरो का था और उन फिल्मों की सफलता के लिए हीरोइन को एड़ी-चोटी का जोर नहीं लगाना पड़ता था। इस फिल्म में हेमामालिनी का किरदार ही ऐसा था कि न चाहते हुए भी हेमामालिनी ने इस किरदार को आत्मसात कर लिया और इस किरदार को मदर इंडिया की नरगिस के किरदार की ऊंचाइयां दे डालीं। खुद हेमामालिनी ने एक इंटरव्यू में माना था कि यह उनके जीवन का सबसे कठिन रोल था, जिसके लिए उन्हें खूब मेहनत करनी पड़ी। हालांकि निर्देशक सुशील मजूमदार ने इस रोल को नेगेटिव रोल की तरह पेश किया, लेकिन नेगेटिविटी को हेमामालिनी ने जो क्रिस्प दी, वह लाजवाब थी। यह फिल्म 1971 में रिलीज हुई थी, यह वक्त था जब वह दर्शकों में शराफत, तेरे मेने सपने और धर्मेंद्र के साथ नया जमाना में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी थीं। इस फिल्म के आते ही उनका कद ऊंचा हो गया। बाकी सितारे भी कमतर नहीं थे राजकुमार, राखी, विनोद मेहरा अपने-अपने पात्रों में फिट थे। असित सेन, पेंटल आदि भी थे। क्या गीत थे और जो सुर दिये थे वह भी क्या थे? यह मूवी दरअसल बांग्ला फिल्म लाल पत्थर की रीमेक है जो 1964 में रिलीज हुई थी तथा ब्लैक एंड ह्वाइट थी। जो रोल हिंदी फिल्म में राजकुमार ने निभाया, वह बांग्ला फिल्म में उत्तम कुमार ने निभाया था। प्रसन्नतो चौधरी ने जो कहानी लिखी थी, उस कहानी को शब्दों के आवरण से मूर्त रूप देना सुशील मजूमदार जैसे ही निर्देशक का काम था। यह उनके ही निर्देशन का सदका था कि वह हेमामालिनी के किरदार से बहुत कुछ निकलवाने में कामयाब हो गये कि बाद में हेमामालिनी ही इस फिल्म की यूएसपी बन गयी। कहानी शुरू करने से पहले फ्लैशबैक के पाठकों को यह भी बता दूं कि पहले हेमामालिनी के स्थान पर वैजयंती माला को लेने का भी विचार हो रहा था। घर की दीवारें और उस पर लगे पत्थर ही इतिहास की कहानी बया करते हैं। मगर उनकी कहानी दीवारों और ईंट गारे तक ही महफूज रह जाती हैं। तो जनमानस इनकी कथा-व्यथा कैसे जाने? एक आवाज जो लाल हवेली की दुख–तकलीफों और अत्याचारों से बावस्ता थी, उन पर्यटकों को लाल हवेली के अतीत में ले जाती हैं, जिसके एक पूर्वज ने कभी बेटी समान बच्ची से रेप किया था, लेकिन पितर-कोप का बोझ कई पीढ़ियां ढोती रहीं। इस हवेली का कोई भी वारिस इसलिए शादी नहीं करता था क्योंकि शादी के बाद उसकी मौत होनी निश्चित थी। इसलिए इस हवेली के वर्तमान राजा कुमार बहादुर (राजकुमार) ने शादी नहीं की, जब शादी की तो क्या हुआ? यह तो हम आगे चलकर बताएंगे लेकिन पहले बता दें कि हिंदू मिथकों में कहा गया है कि जो भी हम यहां गलत काम करते हैं उसी की भरपाई हमारी पुश्तें करती हैं—आम भाषा में इसे पोइटिक जस्टिस कहते हैं। इस कहानी में लगभग ऐसा ही हुआ। लाल पत्थर फिल्म में राजा कुमार बहादुर पहले ऐसे नहीं थे। कैसे थे? आइए जानें- ये फतेहपुर सीकरी जैसी लाल ईंटों वाली हवेली है। कहानी यहीं से ही शुरू होती है और खत्म भी यहीं से। यहां कुछ पर्यटक इकट्ठे हैं जिन्हें एक बुजुर्ग यादों की गलियों में ले जाता है और यादों की गलियां हैं राजा कुमार बहादुर की जो राजा कम साधु ज्यादा है जो तड़क-भड़क की जिंदगी से कोसों दूर है और वह औरतबाजी से सख्त नफरत करता है। लेकिन सौदामनी से आंखें चार होते ही जीवन के आदर्श भुला बैठता है। वह सौदामनी को गरीबी लाचारी की मार से बचाकर घर तो ले आता है, लेकिन घर की मिस्ट्रैस बनाकर क्योंकि वह शादी नहीं करना चाहता। सौदामनी जो अब माधुरी बन गयी है, राजा बहादुर चाहता है कि वह संगीत और कला की बारीकियां सीखे, लेकिन माधुरी (हेमा) अपनी वर्तमान पोजिशन से ही खुश है। उसे हवेली में रहते-रहते आठ साल गुजर गये हैं। फ्लैशबैक के पाठक उनके संबंध को लिव-इन-रिलेशन कह सकते हैं और यह रिश्ता पूर्व में जोर-शोर से प्रैक्टिस में था। राजा और माधुरी की जिंदगी अच्छी-खासी चल रही थी कि राजा बहादुर एक गीत समारोह में सुमित्रा नामक महिला की आवाज पर मोहित हो उठे। वह उसकी उम्र से आधी थी लेकिन एक राजा के लिए कुछ भी मजबूरी नहीं थी कि सुमित्रा को उसकी पत्नी बनाने से रोके। सुमित्रा (राखी) बचपन से ही शेर (विनोद मेहरा) को प्यार करती थी लेकिन सुमित्रा की गुरबत वह मंच थी जहां से राजा बहादुर उसका शोषण कर सकता था और उसने ऐसा किया भी। राजा ने कर्ज में दबे उसके पिता को आजाद करवाया, इसलिए न चाहते हुए भी उसे (सुमित्रा) को राजा से विवाह करना पड़ा। वह इसे ही अपनी किस्मत मानकर राजा के साथ नयी राह पर चल पड़ी। उधर जब शेखर विदेश पढ़कर घर आया तो उसे वस्तु स्थिति का पता चला। पुराना दोस्त जानकर राजा ने सुमित्रा का शेखर से मेलजोल जारी रखा। अब यहां पर कहानी में ट्विस्ट आता है। चूंकि माधुरी को राजा का सुमित्रा से शादी करना अच्छा नहीं लगा, वह दोनों पति-पत्नी के बीच दरार खींचने के लिए षड्यंत्र बुनती है। यही षड्यंत्र उसे बाद में पछतावे की अग्नि में झुलसाता है। फतेहपुर सीकरी की लाल दीवारें स्निग्ध चांदनी में अजीब नजारा प्रस्तुत कर रही हैं। कहानी सुनाते बुजुर्ग की चालढाल को देख कर पर्यटकों को अब भ्रम नहीं रहा कि अमुक बुजुर्ग ही राजा बहादुर है। सुमित्रा से शादी के बाद माधुरी राजा का घर छोड़कर जा चुकी है लेकिन राजा जलन की उसी आंच में झुलस रहा है जो माधुरी लगा कर गयी है। पर्यटक बुजुर्ग को अंधेरे की तरफ जाते हुए देखते हैं। अंधेरे में वह उन खून के धब्बों को धोकर आया है जो हत्या उसने की थी सुमित्रा और शेखर की। माधुरी जिसके बाल अब सफेद हो गये हैं, राजा की हवेली में लौट आयी है, उसकी देखभाल करने। अब कहानी कहते-कहते बुजुर्ग (राजा) बुजुर्ग महिला (हेमा) के साथ चला जाता है और पर्यटकों के लिए कभी न खत्म होने वाला वक्फा छोड़ देता है। अगर इसका निर्देशन सुशील मजूमदार न करते तो इसका अंत और तरह से होता। लेकिन जो अंत कुछ सोचने को विवश करे, वही सही अंत है और वही कलात्मकता भी। यह अंत करके मजूमदार ने एक और साहित्यिक प्रश्न खड़ा कर दिया है कि ऐसा फिल्मों में भी होता है, सिर्फ किताबों में ही नहीं। इसका संगीत शंकर जयकिशन ने तैयार किया था। ‘उनके ख्याल आए तो आते चले गये’ इसी फिल्म का गीत है। ‘गीत गाता हूं मैं’ और आशा द्वारा गाया एकल गीत ‘सूनी सूनी सांस की सितार पर’ काबिलेतारीफ है। यह फिल्म अपने हर विभाग में दक्ष होकर निकली है, भले ही वह कहानी हो या गीत-संगीत, वेशभूषा, कला निर्देशन, लोकेशन, कैमरा संचालन, संपादन, रंग संयोजन, प्रोडक्शन आदि सब कुछ ए-क्लास है। 1975 में बनी ‘मौसम’ फिल्म के गाने ‘रुके रुके से कदम’ को आप इस फिल्म में भी सुन सकते हैं लेकिन नेपथ्य में। हालांकि इस फिल्म की कंपोजिशन अलग है। यह फिल्म ‘पाकीज़ा’ के पाए की है, अपने जमाने की हिट मूवी थी, लेकिन इसे वह मयार हासिल नहीं हो सकता जो पाकीज़ा और मदर इंडिया को था। पाठक इसे जरूर देखें।
निर्माण टीम
निर्देशक : सुशील मजूमदार
मूलकथा : प्रसन्नता चौधरी
पटकथा : नवेन्दु घोष
संवाद : विजयेन्द्र गौड़
प्रोडक्शन : एफसी मेहरा
सिनेमैटोग्राफी : द्वारका दिवेचा
गीत : हसरत जयपुरी, देव कोहली, नीरज
संगीत : शंकर जयकिशन
सितारे : हेमामालिनी, राजकुमार, राखी, विनोद मेहरा, असित सेन आदि
गीत
गीत गाता हूं मैं : किशोर कुमार
उनके ख्याल आये तो आते चले गये : मोहम्मद रफी
सूनी-सूनी सांस की सितार : आशा भोसले
फूलों से मेरी सेज सजा दो : आशा भोसले
आ आजा, दिखाऊं तुझे : आशा भोसले
रे मन सुर में गा : आशा भोसले, मन्ना डे